“देवांशु” जी द्वारा लिखित पुस्तक “आवारा बादल” आज मिली है और आज ही पढ़कर समाप्त किया है। इनकी पुस्तक के लिये मैं इंतजार नहीं कर सकता। पुस्तक का प्रकाशन रंगीन कवर में हर्फ़ पब्लिकेशन ने मूल्य 200 रुपये रखकर किया है। पुस्तक के पेज और कवर की क़्वालिटी बहुत अच्छी है लेकिन फॉन्ट थोड़ा छोटा है। फॉन्ट थोड़ा और बड़ा होता तो बेहतर होता। श्री देवांशु की इसी माह कविता संग्रह “पग बढ़ा रही धरती” भी पढ़ी है। उसकी रचनाएँ भी बेहतरीन थीं।
“आवारा बादल” में उन्होंने पुस्तक के नाम के अनुरूप ही रचनाओं का समावेश किया है। पुस्तक में अलग अलग विषयों पर उनके अनुभव, निजी विचार और लेख हैं। 117 पेज की पूरी पुस्तक पाँच खंडों में है। जहाँ सिनेमा से संबंधित सत्यजीत राय, अमिताभ बच्चन, शोले और सदमा जैसी फिल्मों और हस्तियों के बारे में चर्चा की है वहीं निराला, रामानुजन, गामा पहलवान, दारा सिंह, सचिन तेंदुलकर, येसु दास, हेमन्त दा, किशोर कुमार के बारे में लिखा है। गाँव, शिवालय, हरिद्वार और ऋषिकेश की चर्चा है तो कुछ रचनाएँ काव्य खंड पर हैं जो मुझसे काफी ऊँची हैं। मैं अक्सर कहता हूँ कि देवांशु जी की हिन्दी का स्तर देखना चाहिए। नयी वाली हिन्दी पढ़ पढ़ कर हम अपने असली शुद्ध घी वाली हिन्दी भूल रहे हैं या शब्द का अर्थ नहीं जानते। मैंने अनेक महान साहित्यकार को नहीं देखा लेकिन जब इनको पढ़ता हूँ तो लगता है कि हिन्दी साहित्य के धरोहर को बचाने वाले नयी उम्र में भी कुछ हैं। इस उम्र में ऐसी हिन्दी लिखने वाले मेरी नजर में बहुत कम ही हैं। मैं अनेक साहित्यिक पत्रिका और पुस्तक पढ़ता हूँ लेकिन ऐसी हिन्दी नहीं के बराबर मिलती है। साहित्य के स्वयंभू मठाधीशों को इन्हें पढ़ना चाहिए और देखना चाहिए कि एक साधारण सी बात कि लेखक गाँव से पटना आते वक़्त मोकामा के पास गंगा को कैसे देखते हैं।
लिखते हैं कि
“गाँव से पटना आते हुए मोकामा के पास गंगा का सौन्दर्य अनुपम होता था। विशाल पुल के नीचे बहती हुई प्रगल्भा, कोई मानिनी सी मौन अनंत पथ पर आगे बढ़ती हुई। विशाल तटों के किनारे प्रकृति जैसे तुरीयावस्था में डूबी दीख पड़ती।”
यह तो मैंने एक पंक्ति लिखी है। पूरी पुस्तक ऐसी हिन्दी की चाशनी में डूबी है। आज के समय में ऐसी पुस्तक विरले ही मिलेगी। क्या लिखा है ये महत्वपूर्ण नहीं है, कैसे लिखा है ये महत्वपूर्ण है। शिल्प के क्या कहने। बेजोड़, अप्रतिम। किसी भी लेखक को ऐसी पुस्तक दस बार पढ़नी चाहिए।
पुस्तक को पढ़ने के लिए मुझे डिक्शनरी खोलना पड़ ही गया। ऐसा नहीं है कि उन्होंने बहुत सोच विचार कर लिखा है बल्कि उनकी भाषा शैली ही ऐसी है। उनके फेसबुक के पोस्ट भी ऐसे ही होते हैं। इनकी हिन्दी मुझसे हमेशा मल्ल युद्ध करती हैं और मैं जितना पकड़ने की कोशिश करता हूँ उतनी ही छूटती हैं।
कुल मिलाकर एक ऐसी पुस्तक जिसे कुछ समय उपरांत जब नयी वाली हिन्दी से मन ऊब जाये तो अवश्य निकालकर पढ़ें। इनके लिखने की कला के वैसे भी बहुत दीवाने हैं लेकिन शुद्ध घी की मिठाई बहुत कम बिकती है यह सच्चाई है। रिफाइंड के दौर में हम, रिफाइंड भी नहीं, पाम आयल खाते हैं तो शुद्ध घी से रोआं उड़ने का भय होता है। इस पुस्तक को अवश्य खरीदें, पढ़ें और अपने बच्चों को पढ़ायें, ये हिन्दी की देशी घी वाली पुस्तक है। देवांशुजी जैसे लोगों के होते अपनी हिन्दी सुरक्षित है।