प्रेम की चाशनी में लिपटी हुई कविता संग्रह “तुम्हारा होना सच नहीं है”
सर्वप्रथम “तुम्हारा होना सच नहीं है” कविता संग्रह हेतु श्री कृष्ण सुकुमारजी को बहुत-बहुत बधाई, शुभकामनाएँ. 128 पेजों और 80 कविताओं के इस संग्रह का प्रकाशन बोधि प्रकाशन, जयपुर ने आकर्षक रंगीन आवरण में मूल्य रुपये 150 रखकर किया है. सुकुमारजी एक अच्छे स्थापित कवि हैं. इनकी कविताओं में बहुत कुछ रहता है, पाठक जितनी बार पढ़ता है, डूबता जाता है. इस पुस्तक की अनेक कविताएँ मुझे बहुत अच्छी लगी और मैं इसे समर्थ कविता संग्रह कहूँगा. ज्यादातर कविताएँ एक अदृश्य प्रेमिका को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं. प्रेम के अलग-अलग भावों को, आये विचारों को और अपनी अनुभूतियों को बहुत ही सुन्दर शब्दों में सजाया है. पढ़ते समय पाठक भी कवि के साथ विचरण करने लगता है. अपने को वहाँ पाता है, यही तो कवि की सफलता है. एक बात और कि इस कविता संग्रह को पढ़ते समय श्रीमती मीना सूद की कविता संग्रह “आखर दिल के” की याद आती है. इन कविताओं में बहुत कठिन हिन्दी के शब्दों का प्रयोग नहीं है. आसान शब्दों में कठिन भावों की अभिव्यक्ति है. प्रेम सुनने में जितना आसान लगता है उसपर लिखना उतना ही मुश्किल होता है. इसमें कवि बहुत हद तक सफल होते हैं.
मैं कुछ एक खास पंक्तियों की चर्चा करूँगा.
एक जगह लिखते हैं कि
“मैंने हवाओं पर लिखे कुछ शब्द
और भेज दिये..
उम्मीद है मेरी चिट्ठी तुम्हें मिली होगी?
कई दिन हुए
तुम्हारे स्पर्श मिले..
बारिशों में भीगे हुए
तुम यहाँ निर्विघ्न
अनुपस्थित हो..
आशा करता हूँ
मेरी साँसें वहाँ सकुशल धड़कती होंगी…”
आगे की कविताओं में एक जगह लिखते हैं कि
“लगता है
कोई है मेरे आस-पास
जैसे तुम्हारे सानिध्य की तरल आँच
मुक्ति की कामना सँजोए
ठहरी हुई सी..
कोई है मेरे आस-पास
जैसे तुम्हारा स्थिर स्वप्न..
चोट पर बंधी पट्टी की तरह
कसा हुआ सा..”
इन पंक्तियों को देखें कि
“चलो
एक बार लौट चलें
क्या पता वक्त अभी भी
वहीँ हो ठहरा हुआ
हमारी प्रतीक्षा में..
आओ फिर से देखें वही सपने
जो टूट-टूट कर
चुभते रहे थे पाँव में रास्ते भर.
क्या पता अब के सच हो जायें सचमुच.”
कहीं कहीं मन मोह लेते हैं जब लिखते हैं कि
“मेरी भी एक प्रेम कहानी है
सुनोगे?
लेकिन इस कहानी में
नहीं है प्रेम शुरू से अंत तक
प्रेम है अंत के बाद और कहानी के बाहर..
धीमी-धीमी आँच में पक रहे थे
हमारे अनिर्वचनीय शब्द
जो हमारी दग्ध साँसों को दे रहे थे
एक स्निग्ध स्वाद.”
जब कवि ऐसा कहते हैं तो पाठक खो जाता है-
“तुझ तक नहीं पहुँच पाया
मेरा बढ़ा हुआ हाथ
शायद तेरी तरफ काफी गहरा हो अँधेरा..
मैं तो जलाये रखता हूँ
एक नन्हा सा दीप हर पल
शायद उसकी किरणों का पथ
अहम की दीवारों से टकराकर
लौट आता हो वापस.”
पाठक अलग दुनिया में चला जाता है जब पढ़ता है कि
“तुमने मेरे कंधों पर
टिका रखा था अपना सिर
और मैं ढूँढ रहा था
अपने भीतर खोई हुई चीजें.
तुमने बाँधना चाहा मुझे
आलिंगन में और मैं
तक रहा था मुक्ति की राह.”
कुछ और पंक्तियों को देखें कि
“चलो फुर्सत निकालें
और निपटा लें
छोटे-मोटे काम.
बहुत दिनों से उलझी पड़ी है
तेरे मेरे बीच
धागों की गुच्छी
दोनों सिरे ढूँढें
सुलझाएँ.
अहं की धूल से अटा पड़ा है
तेरा मेरा आदमकद आईना
झाड़ें पोंछें
चमका लें.
मुरझाने से पूर्व
जी लें
खिलते हुए लम्हों को.
और एक दूसरे के सानिध्य में
दें नमी
खुश्क आँखों को..”
इस पुस्तक की अंतिम कविता भी बहुत अच्छी लगी.
“मेरे जीवन में एक प्रेम करने वाली स्त्री आयी
उसने मुझे प्रेम से किये असंख्य नमस्कार..
और मैं प्रेम से वंचित रह गया.
मेरे जीवन में एक सीधी सरल स्त्री आयी
उसने मुझे अपना मंदिर कहा और देवता बनाकर प्रेम से पूजती रही.
और मैं प्रेम से वंचित रह गया.
मेरे जीवन में एक आधुनिक स्त्री आयी
वह प्रेम पूर्वक स्त्री विमर्श पर करती रही बहस
और सभाओं गोष्ठियों में करती रही
आतिथ्य स्वीकार.
और मैं प्रेम से वंचित रह गया.
फिर किसी स्त्री ने किसी स्त्री से मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा,
कितना लंपट आदमी है.. इसे
और कितना प्रेम चाहिए.”
कुल मिलाकर इस पुस्तक को प्रेम की चाशनी में लिपटी हुई बहुत सुन्दर पुस्तक कहेंगे. खास कर जो प्रेम की कविताएँ पढ़ते हैं निश्चित रूप से उनके लिए यह एक अद्भुत पुस्तक है. यह कविता संग्रह किसी भी दृष्टिकोण से पाठक को निराश नहीं करेगी, एक अच्छी पुस्तक कहूँगा. एक चीज जिसकी कमी बहुत खलती है वो है किसी भी कविता के शीर्षक का नहीं होना. शीर्षक आवश्यक होता है, किसी भी कविता का शीर्षक नहीं होने से भी पंक्तियाँ ज्यादा दिनों तक याद नहीं रहतीं. बाद में खोजने में भी परेशानी होती है. फिर भी रचनाएँ अच्छी हैं. श्री सुकुमारजी को पुनः बहुत-बहुत बधाई और भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ.
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