सर्वप्रथम “मृत्युंजय” पुस्तक हेतु श्री रत्न चंद सरदानाजी को बहुत-बहुत बधाई. शुभकामनाएँ.

159 पेजों की इस पुस्तक का प्रकाशन रेडग्रेब बुक्स ने बहुत ही सुंदर, आकर्षक, विषय सम्मत  रंगीन आवरण में मूल्य रुपये 175 रखकर किया है. रचनाकार के लिए 80 की उम्र में पुस्तक लिखना अपने आप में निश्चित रूप से कठिन और दुरूह कार्य रहा होगा अतः तारीफ तो बनती है. पुस्तक के रचयिता जाने-माने पत्रकार श्री रोहित सरदानाजी के पिता हैं और पुस्तक भारत विभाजन की त्रासदी जैसी गंभीर, महत्वपूर्ण विषयवस्तु पर है तो पुस्तक की चर्चा में रहना स्वाभाविक है.

धर्म के आधार पर भारत विभाजन के समय एक सामान्य सा व्यक्ति जो पाकिस्तान के क्षेत्र में था, कैसे और किन स्थितियों में भारत के क्षेत्र में आता है और उसके आगे के जीवन संघर्ष की कथा है. विभाजन के समय दंगे हुए. हिंसा, मारकाट, महिलाओं के साथ अत्याचार हुए और आपसी संबंधों का दुखदायी बंटवारा हुआ. धर्मान्तरण केद्र का भाव बन गया. पुस्तक में मुस्लिम धर्मावलम्बी के द्वारा सिख और हिन्दुओं को अपने धर्म में शामिल करने हेतु हिंसा का रास्ता अपनाया जाना, मुस्लिमों का ज्यादा हिंसक होना और हिन्दू धर्म की मान्यता के विपरीत माँसाहार कराने की चर्चा है. सिख और हिन्दूओं ने किस प्रकार अपने प्राण देकर भी अपने धर्म और लोगों की रक्षा की. हिन्दू महिलाओं के साथ का अत्याचार और जौहर कर प्राण त्यागने की बात, लड़कर जान लेने-देने की बातों की विस्तृत चर्चा है. परन्तु एक सामान्य स्तर की पुस्तक है.

भारत विभाजन के समय पाकिस्तान के क्षेत्र में रहने वाले नायक ‘मृत्युंजय’ के गले पर वार किया गया था और किसी प्रकार उसकी जान बची थी. मृत्यु पर विजय पाने की वजह से उसका नाम ‘मृत्युंजय’ पड़ा. वो भागकर भारतीय क्षेत्र में आया और फिर अपने को जिंदा रखने के लिए मित्रों, संबंधियों की मदद से किस प्रकार उसका जीवन चला, उसके संघर्ष की सूक्ष्मता से चर्चा की गयी है. सरकारी सहायता, नेहरूजी की व्यवस्था, संघ की चर्चा के साथ नायक की कहानी आगे बढ़कर उसके बच्चों तक आती है. पूरी पुस्तक में एक समय का भोजन हेतु संघर्ष से लेकर सरकारी तंत्र की अव्यवस्था के बीच अपना परिचय हेतु एक अदद कागज जुटाने से लेकर नायक की पत्नी, बच्चों की चर्चा पुस्तक को विस्तार देती है. कथा स्वतः ही अपनी इति पर पहुँचती है.

जो इस पुस्तक में भारत विभाजन के समय की कुछ महत्वपूर्ण तथ्यात्मक बातें या कोई ख़ास विषयवस्तु ढूँढेंगे उन्हें निराशा होगी. बहुत ख़ास या सेंसेशन पैदा करने वाली बात नहीं है. भारत विभाजन के समय सिख, हिन्दू और मुस्लिम के बीच के तनाव और हिंसा की बात सभी जानते हैं, घर बार छोड़कर एक दूसरे क्षेत्र में जाना, स्थान परिवर्तन कितना कष्टकर और दुखद रहा होगा सभी मानते हैं. रचनाकार आजादी के पूर्व के हैं और इनका बचपन वह सब देख चुका है जो हम फिल्मों या अन्य पुस्तकों में पढ़ चुके हैं. उम्मीद कुछ नये की थी लेकिन ऐसा कुछ नहीं है. पुस्तक बिल्कुल सामान्य कथ्य और शिल्प में है. हाँ, मारकाट, स्त्रियों का बलिदान, स्त्रियों का जौहर, जान देने और जान लेने की बातों को बहुत आसानी से दर्शाया और लिखा गया है. निश्चित ही उससमय हिंसा सामान्य बात रही होगी. आमजन को बहुत क्षति हुई होगी.

भाषा और शिल्प की दृष्टिकोण से पुस्तक को पढ़ते ही बात समझ में आ जाती है कि लेखक ने इस पुस्तक की रचना स्वयं की है. पढ़ने से कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि पुस्तक लिखने में किसी बड़े साहित्यकार की मदद ली गई हो. जबकि रचनाकार जिस स्थान पर हैं वे किसी अन्य उपन्यासकार या साहित्यकार से साहित्यिक मदद लेकर इस पुस्तक के विषय वस्तु और शिल्प को और बढ़िया बना सकते थे लेकिन मुझे यह लिखते हुए अच्छा लग रहा है कि पुस्तक मेरी नजर में 80 वर्ष के सामान्य साहित्य प्रेमी के लिखने के अंदाज की तरह ही है. बहुत प्रभावशाली और कठिन हिंदी के शब्द नहीं हैं. आसान हिन्दी है और ठीक-ठाक है. बड़े पत्रकार के पिता की पुस्तक है इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ज्यादा चर्चा में है. सामान्य सी पुस्तक है तथापि रचनाकार का यह कदम निश्चित रूप से स्वागत योग्य है. अंत में पुनः बधाई.

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बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.