सर्वप्रथम कविता संग्रह “जा सकता तो जरूर जाता” हेतु कवि श्री दिनकर कुमार को बधाई, शुभकामनाएँ. इस पुस्तक का प्रकाशन बोधि प्रकाशन, जयपुर ने आकर्षक रंगीन कवर में मूल्य ₹ 120 रखकर किया है. 96 पृष्ठों की इस पुस्तक में 84 कविताएँ हैं. गुवाहाटी से पाक्षिक पत्रिका निकालने वाले और अनेक वर्षों तक दैनिक समाचार पत्र में कार्य करने वाले श्री दिनकरजी की अपनी अलग पहचान है. इनकी कविताओं में एक आम ग्रामीण, आम शहरी का सत्ता के प्रति रोष, व्यवस्था के प्रति असंतोष, नहीं मिलने वाली सुविधाओं पर सीधा प्रहार और वर्तमान राजनीति की चर्चा है. आये दिन जो कुछ अपने देश में घटित हो रहा है, देखकर एक कवि हृदय दिनकरजी अपनी कविताओं में पिरो देते हैं. कहीं पर कवि ह्रदय राजनीतिक व्यंग करते हैं, कभी अखबार के मालिकों को नहीं छोड़ते, कभी देश की सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे व्यक्ति को भी लपेटे में ले लेते. कुल मिलाकर एक बढ़िया कविता संग्रह है जिसका मूल भाव आज की राजनीति पर आमजन के कष्ट और जीवन संघर्ष की चर्चा है. सत्ता की कमियों को बताना सामान्य कार्य नहीं होता. इनकी कविताएँ सत्ता की कार्यशैली पर सीधा प्रहार करती हैं, पाठक मंत्रमुग्ध हो जाता है. इनकी कुछ पंक्तियों पर ध्यान दें.

झूठ के कारखाने’ कविता में कवि कहते हैं कि-
“झूठ के कारखानों में दिन रात उत्पादित हो रहे हैं नए-नए झूठ,
इन झूठों को प्रसारित किया जा रहा है
बिजली की रफ्तार में सोशल मीडिया पर
लाइक और शेयर के जरिए इन झूठों को
रातों-रात अमिट सत्य का खिताब दिया जा रहा है.
झूठ के कारखाने में दिन रात
काम कर रहे हैं विवेकहीन कारिंदे
जिनको नफरत का उत्पादन
करने पर मिलती है सराहना
सतही गाली-गलौज के बदले पैसे
सनसनीखेज मुहावरों और लच्छेदार टिप्पणियों पर पारितोषिक
इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने पर
मिलती है पदोन्नति और अलग से भत्ते.”

‘जब अखबार के मुँह में खून लग जाता है’ कविता में कहते हैं-
“जब अखबार के मुँह में खून लग जाता है
उसकी प्यास बढ़ जाती है
वह सवेरे-सवेरे परोस देता है जहर में डूबे हुए शब्द
उसके शब्दों से उत्तेजित हो जाती है भीड़
भीड़ विवेक को कुचलकर नारे लगाती है
पुतले जलाती है रेल की पटरियाँ उखाड़ती है
बीच सड़क पर टायर जलाती है
निर्दोष शिकार के पीछे उसी तरह भागती है
जैसे हिरण के पीछे शिकारी.”

जब शब्दों पर पहरे लगाए जाते हैं’ कविता में कवि के शब्दों का प्रहार देखें-
“जब शब्दों पर पहले लगाए जाते हैं तब
इशारे की भाषा से आग लगाई जा सकती है
सिर्फ भावनाओं के जल को
आँखों में भरकर
इस पृथ्वी के हृदय को उदास बनाया जा सकता है
आतताई की आँखों में घूरकर
उसके अंदर भय का संचार किया जा सकता है.”

‘वह जिसने आत्मदाह किया’ कविता का दर्द देखें-
“वह जिसने आत्मदाह किया
कल दिसपुर सचिवालय के सामने
उसकी करुण चीख
गुवाहाटी की सोलह पहाड़ियों से
प्रति ध्वनित हो रही है
ब्रह्मपुत्र के जल में ठिठक गया है
आग से घिरे हुए एक सर्वहारा का प्रतिबिंब
बुलडोजर पर सवार शासक
अखबार और टीवी पर क्रूरता पूर्वक मुस्कुरा रहा है.”

मयखाने का कोलाहल’ कविता में कवि कहते हैं कि
“मुझे सबसे अधिक मानवीय लगता है
मयखाने का कोलाहल
इतना इत्मीनान होता है मयखाने में
किसी भी तरह की आवाज
मुझे परेशान नहीं करती.
हल्के अंधेरे का हाथ पकड़कर जब भी
मैं अपने पराजय को ललकारना चाहता हूँ
जब भी मैं सवालों से घिरकर
किसी ठोस जवाब को ढूँढ़ना चाहता हूँ
तब मैं सीढ़ियों पर चढ़ते हुए
मयखाने पहुँच जाता हूँ.”

दिल्ली हवाई अड्डे पर’ कविता में कवि लिखते हैं-
“अश्लील भव्यता छिपा नहीं पाती
मेरे वतन के कुपोषित चेहरे को
बेशकीमती कालीन पर जब इतराते हुए
इठलाते हुए चलते हैं मलाईदार वर्ग के लोग
मुझे कालीन के ऊपर गाँव के भूखे-प्यासे लोगों के
कलेजे का लहू जमा हुआ नजर आता है
प्लास्टिक के पौधे किस कदर हरे-भरे लगते हैं
मगर कितने बेजान उच्च वर्ग की
अघाई हुई स्त्रियों की तरह
देशी-विदेशी कंपनियाँ शालीनता की चादर ओढ़कर
दुकानें लगाकर बैठी हुई है जिन्हें
खुली छूट मिली हुई है यात्रियों को लूटने की
दौड़ती-भागती हुई छायाएँ
किस कदर मशीनी नजर आती हैं मानो किसी
प्लास्टिक के जंगल में चाबी से चलने वाले
कुछ खिलौनों के बीच जारी हो
दंभ प्रदर्शित करने की प्रतियोगिता
एक ही जगह है स्मोकिंग जोन
जहाँ धुएँ उड़ाते हुए मुझे तसल्ली मिलती है
कम से कम मैं कोई
प्लास्टिक का खिलौना नहीं बना हूँ.”

‘अपने सपनों के साथ जोड़िए आधार कार्ड को’ कविता व्यवस्था पर तंज़ है.
“अपने सपनों के साथ जोड़िए आधार कार्ड को
और अपनी जरूरतों की सूची के साथ
नत्थी कीजिए अपने पहचान पत्र को
यह जो कसाईबाड़ा है जिसके दरवाजे पर
लोकतंत्र की तख्ती लटक रही है
इस कसाईबाड़े में अपनी बारी का इंतजार कीजिए.
असल में आपकी नींद पर भी नजर है
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इसीलिए तो
आपको मोबाइल फोन पर दिनभर भेजे जाते हैं
ललचाने वाले संदेश
ठगों और अपराधियों के हवाले कर दिया गया है
आपकी सारी निजी जानकारियों को
आपकी गोपनीयता को निगल रहा है शासक
आपको पालतू बनाने के लिए
वह योजनाओं का चारा फेंक रहा है.”

आइटम नंबर’ कविता बहुत सुंदर कविता है. कविता की पंक्तियों को देखें-
“वह साहित्य की थकी उदास वीरान लुटी-पिटी
महफिल में इठलाती हुई आती है
बचकानी सी रचना लेकर
मठाधीश झूम उठते हैं अनायास ही उनके मुँह से
सीटियाँ निकलने लगती हैं
आह-वाह का समवेत स्वर सुनाई देने लगता है
वह किसी हुनरमंद शिकारी की तरह
साहित्य की सत्ता के सोपानों पर बैठे
कुंठित बीमार मर्दो को
कनखियों से देखती है वासना की मुस्कान के साथ
पलक झपकते ही वह महफ़िल को लूट लेती है
मठाधीश उसे प्रेमचंद के बाद
सबसे महान रचनाकार घोषित कर देते हैं
प्रकाशक उसे सदी की महानतम
बेस्टसेलर लेखिका बताकर उसकी
आरती उतारने लगते हैं
भविष्य के सारे पुरस्कारों की माला
पेशगी के तौर पर उसके गले में लटका दी जाती है
ठीक उसी तरह जैसे
किराए की नाचने वाली के गले में
लटकाई जाती है नोटों की माला.”

‘जा सकता तो जरूर जाता’ कविता जो इस पुस्तक का नाम भी है में कवि कहते हैं-
“जा सकता तो जरूर जाता
खुद ही देख कर आ जाता
लहूलुहान हरियाली और विषादग्रस्त वृक्षों को
जख्मी इंद्रधनुष की उंगली पकड़कर
चल रहे सपनों को
मातम ओढ़कर सोई हुई नदी को
जा सकता तो जरूर जाता
खुद ही देख कर आ जाता
सूखे हुए पत्तों पर लड़खड़ा कर चल रहे अतीत को
उत्सव के शोर-शराबे के बीच भी ठंडे पड़े चूल्हों को
सुराही उठाकर किसी प्यासे होंठ को तृप्त कर देता
दोतारे पर बजाता उम्मीद का राग
घुटनों के बल झुकी हुई आकृतियों को
बता देता स्वतंत्रता की परिभाषा
जा सकता तो जरूर जाता
खुद ही देख कर आ जाता
और कितनी देर में बदलेगा मौसम
और कितनी यातना के बाद
विद्रोह करेंगे मेरी मिट्टी के लोग
और कितने आदेशों अध्यादेशों की मार खाकर
सुलग उठेगी प्रतिरोध की आग.”

‘मन की बात’ इस पुस्तक की अंतिम कविता है. इसमें कवि लिखते हैं कि
“प्रजा को संबोधित करता है शासक
रविवार की छुट्टी के दिन
डिजाइनर पोशाक पहनकर
किराए के भाषण लेखक का लिखा हुआ भाषण
वह रेडियो पर पढ़ने से पहले
मन ही मन दोहराता है
स्वयं को दीनबंधु प्रजा वत्सल जतलाने के लिए
अपनी आवाज में घोलने की कोशिश करता है
कृत्रिम मिठास
अपने अहंकार पर डालने की कोशिश करता है
विनम्रता की चादर
प्रजा को संबोधित करता है शासक
प्रजा की जमीन छीनने के लिए
प्रजा की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए
कारपोरेट का साम्राज्य स्थापित करने के लिए
कमजोर तर्कों को चिल्ला-चिल्लाकर
पेश करता है
जैसे बकरे को काटने से पहले कसाई कहे कि
जीवन अर्पित करना उसके हित में है
वह प्रजा को समझाता है कि
विकास का स्वर्ग रचने के लिए ही
वह चूसना चाहता है प्रजा का रक्त.”

कुल मिलाकर यह पुस्तक आज के राजनीतिक और सामाजिक वातावरण पर बहुत ही गंभीर प्रहार करती है. कविताएँ एक बार सोचने को विवश करती हैं. ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ की याद ताज़ा हो जाती है. आज सत्ता के शीर्ष को पसंद नहीं करने वाले पाठकों को इनकी कविताएँ ज्यादा पसंद आयेंगी. अभिव्यक्ति की आजादी का यह एक बढ़िया उदाहरण है. आप अपनी बातों को  बिंदास कह सकते हैं. मैं श्री दिनकरजी को पुनः बधाई और भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ.

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बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.