सर्वप्रथम “कुआर का क़र्ज़” पुस्तक हेतु श्री कुणाल सिंहजी को बधाई, शुभकामनाएँ. इस पुस्तक का प्रकाशन अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज ने रंगीन आवरण में मूल्य रुपये 150 रखकर किया है. 157 पेजों का यह उपन्यास इनकी प्रथम रचना है इस नाते भी उत्साहवर्धन होना ही चाहिए. यह पुस्तक लेखक का प्रथम प्रयास नहीं लगता है, बेहतर है. पुस्तक का कथ्य और शिल्प ठीक है लेकिन पुस्तक का शीर्षक ‘कुआर का क़र्ज़’ और उसके ऊपर एक सफेद साड़ी में लाल टीका लगाये और बड़ा सा नथ पहने एक युवती की तस्वीर अलग बात की ओर इशारा करती है. कवर देखने से लगता है कि एक वेश्या की कहानी होगी लेकिन ऐसा नहीं है और लिखने का अंदाज बिलकुल ही अलग है. एक निर्मल प्रेमकथा है. अश्लीलता भी नहीं है. शब्द संयोजन भी ठीक है. कुआर का अर्थ लोग कार्तिक मास के पहले या मलमास के रूप में नहीं समझकर कुँवारेपन को समझेंगे इसलिए इस पुस्तक का कवर और इसका शीर्षक अलग भाव उत्पन्न करता है. मैं तो कुआर का यही अर्थ समझ पाया.
लेखक ने प्रेम में पड़े युवक और खासकर युवती के मनःस्थिति का वर्णन और प्रेम को त्याग के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है. अनेक जगहों पर हम पढ़ते हैं कि प्रेम पाने का नहीं बल्कि त्याग का नाम है. प्रेम में हमेशा पाया जाये यह आवश्यक नहीं है. यहाँ भी पुस्तक का प्रत्येक पात्र त्याग के लिए तैयार है. ऐसी प्रेम कहानियाँ समाज में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती हैं.
अब इस उपन्यास की कहानी की तरफ आते हैं.
कहानी में एक महिला पात्र निर्मला है जो किसी बाजार से अपने को बिकने से बचाकर भागती है. उसके भूत की विस्तृत चर्चा पुस्तक में नहीं है और वह एक ऐसे लॉज में पहुँचती है जहाँ एक युवक उज्ज्वल मजुमदार को छोड़कर सभी नौकरीपेशा लोग रहते हैं. लॉज का बुजुर्ग मालिक एक हम उम्र रसोईया के साथ रहता है. निर्मला के पहुँचने पर मालिक को दया आती है और निर्मला को रसोईया के रूप में रख लेते हैं जिससे उस बूढ़े रसोईये को भी थोड़ी मदद मिलेगी. निर्मला पूरा किचन को अपने कब्जे में ले लेती है. उसे बार-बार चाय और भोजन लेकर उज्ज्वल के कमरे में जाना पड़ता है, उसे उज्ज्वल के प्रति आसक्ति हो जाती है. उज्ज्वल एक अमीर बाप का बेटा है. उज्ज्वल के मन में वैसी भावना नहीं रहती और वो जानता है कि निर्मला किसी वेश्यालय से भागकर आयी है. उसकी पवित्रता पर भरोसा कौन करे? लॉज में एक अन्य व्यक्ति हमेशा निर्मला के प्रति गलत भाव रखता है लेकिन निर्मला खाली समय में अपने को उज्ज्वल के साथ होने का सपना देखती है.
लॉज का मालिक उसे पुत्री के रूप में देखता है लेकिन जब निर्मला को लगता है कि उज्ज्वल उसके प्रति गंभीर नहीं है तो एक दिन वह यहाँ से भी सब छोड़कर अन्यत्र बेसुध चली जाती है और अपने को एक नयी जगह पाती है. नयी जगह पर दो भाई बहन देवेन्द्र घोषाल और यामिनी रहते हैं. निर्मला दोनों भाई बहन के अनुरोध पर वहाँ रुकती है. देवेन्द्र बहन यामिनी का विवाह एक अच्छे बड़े व्यक्ति के पुत्र से तय करता है. निर्मला यामिनी के साथ उसके घर में रहकर पूरा सहेली की तरह घुल-मिल जाती है. धीरे-धीरे देवेन्द्र निर्मला के प्रेम में पड़ जाता है और विवाह का प्रस्ताव रख देता है लेकिन निर्मला बताती है कि उसका विवाह पूर्व में ही उज्ज्वल से हो चुकी है तो फिर देवेन्द्र चुप हो जाता है.

इधर निर्मला के जाने के बाद उज्ज्वल को उसकी कमी खलती है. अब उज्ज्वल को उसके प्रति प्रेम और उसकी संवेदना सताती है. यहाँ लेखक बताना चाहता है कि जबतक अपने पास कोई रहता है तबतक उसका उचित मूल्यांकन हम नहीं कर पाते हैं लेकिन जैसे ही वह दूर होता है तब उसका मूल्य समझते हैं. उज्ज्वल निर्मला को बहुत खोजता है लेकिन ढूँढ नहीं पाता है. वह बहुत परेशान रहने लगता है. वह निर्मला को उसी रूप में पाना चाहता है. पिता के आदेश पर यामिनी को देखने विवाह के उद्येश्य से उज्ज्वल ही आता है और उसे यहाँ निर्मला से भेंट हो जाती है. निर्मला चाहती है कि यामिनी का विवाह उज्ज्वल से हो लेकिन उज्ज्वल इसके लिए तैयार नहीं होता. वह निर्मला को पाना चाहता है. निर्मला के मना करने पर वह अचानक कलकत्ता वापस लौट जाता है और वहाँ से देवेन्द्र घोषाल को एक पत्र लिखता है. उस पत्र में वह लिखता है कि उसे निर्मला से प्रेम है और वह कतई गलत ना समझे. वह यामिनी से नहीं बल्कि निर्मला से विवाह करना चाहता है. देवेंद्र घोषाल एक अच्छे व्यक्ति की तरह निर्मला को उज्ज्वल के पास कलकत्ता पहुँचा देते हैं. उज्ज्वल और निर्मला दोनों मिल जाते हैं. एक सुखद अंत के साथ कहानी सम्पूर्ण होती है.
पूरी कहानी में हर व्यक्ति के स्तर पर त्याग की बात है. प्रेम त्याग का नाम है स्थापित करने में लेखक सफल हैं. कहानी में अंत तक मन लगा रहता है.

नकारात्मक कुछ ख़ास नहीं है. पुस्तक में लॉज का वर्णन कुछ ज्यादा पेजों में है. कहानी थोड़ी फिल्मी अवश्य है लेकिन कुल मिलाकर अच्छी है. कथ्य और शिल्प की दृष्टि से शीर्षक और आवरण और बेहतर होना चाहिए था. रचनाकार की मेहनत दिखती है. कुणाल सिंहजी को पुनः बधाई और भविष्य की शुभकामनाएँ.

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बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.