सर्वप्रथम “साथ चलते हुए” उपन्यास के लिए श्रीमती जयश्री रॉयजी को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ, बधाई. पुस्तक का प्रकाशन सामयिक बुक्स, नयी दिल्ली ने आकर्षक कवर में मूल्य रुपये 150 रखकर किया है. 160 पेजों की यह पुस्तक प्रथम दृष्टया ही प्रेम पर आधारित उपन्यास लगता है. लेखिका एक विशेष शैली की हिन्दी के लिए जानी जाती हैं. मैंने इनकी अन्य रचनाएँ भी पढ़ी है और इनकी लेखनी का मैं कायल रहा हूँ इसलिए मुझे इनसे बहुत ज्यादा अपेक्षा रहती है.
अब कहानी पर आऊँ.
इस उपन्यास में एक भारतीय महिला विदेश में अपने पति और अपनी इकलौती पुत्री के साथ रहती है. पति पूरा व्यावसायिक जीवन जीने वाला है. उसे पत्नी और पुत्री से भावनात्मक स्तर पर कोई लगाव नहीं है जबकि पुत्री को जानलेवा बीमारी है. महिला अपनी पुत्री के ईलाज कराने में खोयी हुई है. एक अन्य भारतीय महिला जो वहीं विदेश में ही अपने पति से तलाक का केस लड़ रही है, उसे यह महिला मदद करने के ख्याल से अपने घर लाकर ठिकाना देती है और इसका पति उस महिला के प्रेम में पड़ जाता है. इसका पति अपनी बेटी और अपनी पत्नी के प्रति बिल्कुल ही उदासीन हो जाता है और नई प्रेमिका के साथ मगन हो जाता है. नयी प्रेमिका भी बसे बसाये घर को पाकर मुग्ध है. पुत्री की मृत्यु के बाद यह महिला भारत वापस लौट आती है. भारत में एक पहाड़ी, हरियाली इलाका में एक भवन में रहती है जहाँ उसे एक ऐसा व्यक्ति मिलता है जिसका परिवार कोलकाता में है और वह भी अपनी पत्नी और बच्चों से दूर और भावनात्मक रिश्तों से भी दूर जीवन जी रहा होता है. दोनों का एकाकी जीवन और बार-बार मिलने से दोनों एक दूसरे के नजदीक आते हैं. इस महिला को उस पुरुष के प्रति प्रेम हो जाता है. पुरुष भी बहुत प्रभावित होता है लेकिन ज्यादा प्रभावित स्त्री ही है. बाद में विदेश में रह रहे इसके पति का उस प्रेमिका से भी अलगाव हो जाता है. इसका पति संवाद भेजता है कि वह वापस इसके साथ जीना चाहता है लेकिन अब यह वापस नहीं जाना चाहती और यहाँ अकेले रह रहे उस व्यक्ति के साथ जीवन बिताना चाहती है. उस व्यक्ति का भी अपने परिवार से मोहभंग हो चुका होता है, उसे भी एक साथी की आवश्यकता होती है, दोनों के विचार आपस में बहुत मिलते-जुलते हैं. इतने दिनों में दोनों ने अपना जीवन एक दूसरे पर आधारित बना लिया है. अंत में दोनों विवाह करने के प्रस्ताव पर साथ होते हैं.
जयश्री रॉयजी की यह कहानी शुरुआत में बहुत अच्छी बन पड़ी है. लगता है कि एक गंभीर कथ्य की ओर जायेगी लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है पकड़ ढ़ीली हो जाती है. खास कर बीच में कुछ निरर्थक पात्र भी आते हैं. अगर पात्रों की संख्या कम होती और कहानी सीधी चलती तो और ज्यादा प्रभावशाली होती. तथापि लेखिका का किसी प्राकृतिक दृश्य को कागज पर उतारने की कला पर अच्छी पकड़ है. बेहतरीन शिल्प से सजाना वो जानती हैं. वर्णन करने की उनकी अपनी ख़ास शैली है.
वैसे कहानी को बहुत कमजोर भी नहीं कहूँगा लेकिन पाठक शुरू में ही समझ जाता है कि आगे इन्हीं दोनों का मिलन होने वाला है. भारतीय महिला चाहेंगी कि पति के बुलाने पर वापस चली जाये लेकिन कथाकार की सफलता होती है कि एक अच्छा वैचारिक समाधान सुझाये. इस सोच की तारीफ करूँगा कि इस महिला को वापस जाने का अवसर मिला. महिला को अगर पति का बुलावा नहीं आता तो पाठक सोचते कि लाचार औरत क्या करती, जो सामने मिला उसपर आश्रित हो गयी. यह महिला पति के पास जाने का विकल्प होने के बावजूद अपने निर्णय पर, प्रेम पर कायम रहकर इस अकेले व्यक्ति के पास रही.
कुल मिलाकर अच्छी पुस्तक ही कहूँगा. पढ़ने में प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन मन मोह लेता है. हिन्दी के अनेक शब्दों को सीखने का अवसर मिला. लेखिका को भविष्य की शुभकामनाओं के साथ पुनः बधाई.