“दर्जन भर प्रश्न” में लेखिका श्रीमती प्रियंका ओम प्रकाश
व्यक्ति परिचय:-
नाम– प्रियंका ओम प्रकाश.
जन्म तिथि व स्थान– 05 मई, जमशेदपुर.
शिक्षा– अंग्रेजी साहित्य से स्नातक एवं व्यवसाय में स्नातकोत्तर.
अभिरुचि/क्षेत्र– लेखन, पठन.
कार्य-वर्त्तमान– गृहिणी.
लेखकीय कर्म– 2016 में पहली कहानी संग्रह “वो अजीब लड़की” आयी और फिर 2018 में दूसरी “मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है.” फिलहाल तीसरी पुस्तक (उपन्यास) पर काम जारी है.
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“दर्जन भर प्रश्न”
श्रीमती प्रियंका ओम प्रकाश से विभूति बी. झा के ‘दर्जन भर प्रश्न’ और श्रीमती प्रियंका के उत्तर-
विभूति बी झा– नमस्कार. सर्वप्रथम आपको आपकी पुस्तक ‘मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है’ और ‘वो अजीब लड़की’ के लिए बधाई, शुभकामनाएँ.
पहला प्रश्न:- आपके साहित्य के पसंदीदा रचनाकार कौन-कौन हैं? आपका नाम किन साहित्यकारों के साथ लिया जाये? आपकी क्या इच्छा है?
श्रीमती प्रियंका के उत्तर– मैं सबको पढ़ती हूँ. नये, पुराने या समकालीन, सभी को पढ़ती हूँ, विदेश रहनवास में जो भी उपलब्ध हो जाता है पढ़ लेती हूँ, खासतौर से जिसकी अधिक चर्चा हो जाती है उसे पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती है, सभी अच्छा लिख रहे हैं ऐसे में पसंदीदा तय कर पाना मुश्किल काम है. जब आप पसंदीदा चुन लेते है तब आपका झुकाव उक्त लेखक की ओर अधिक रहता है, आप उस रचनाकार के लिए बायस्ड होने लगते हैं. आपके अपने लेखन पर भी उनका प्रभाव दीखता है, मैं इस स्थिति से बचने की कोशिश करती हूँ. जब पहली कहानी संग्रह आई थी तो पाठकों / समीक्षकों ने खुलकर मंटो चुगताई से तुलना की, यह मेरे लिए गर्व की बात थी लेकिन एक किस्सागो के तौर पर मैं ‘प्रियंका ओम’ के रूप में प्रतिष्ठित होना पसंद करुँगी.
2. प्रश्न:- आपको लिखने की इच्छा कब से और क्यों हुई? आपकी ‘वो अजीब लड़की’ काफी चर्चित रही. कहीं-कहीं इसके कथ्य और शिल्प की आलोचना भी हुई. बहु-चर्चित, बेस्ट सेलर पुस्तक और बेस्ट कृति के प्रति आपके क्या विचार हैं?
उत्तर– लेखन की तुलना आप किसी सामान्य इच्छा से नहीं कर सकते, लेखन एक नेचुरल फ्लोटिंग है जिसे लेखक काढ़ता है. मैं बचपन से ही तुकबन्दियाँ किया करती थी, बहुत कुछ ट्रकों के पीछे लिखी जाने वाली शायरी की तरह लेकिन बाद में बढ़ती उम्र के साथ वह गंभीर होती गई परिणामस्वरूप “वो अजीब लड़की” आई जो वर्जनाओं को तोड़ते कंटेंट के कारण काफी सराही गई तो एक खास तबके द्वारा आलोचना का शिकार भी हुई, कुल मिलाकर खूब चर्चित हुई और लगातार पढ़ी जा रही है.
बेस्ट सेलर वह टर्म है जो बिकने/ बेचने से जुड़ा हुआ है. यह हिंदी बाजार में प्रचार का सुगम माध्यम है, पाठक बाजारवाद में नियमों से अनजान है, वह अभी तक लेखन को उत्पाद की तरह देखना नहीं सीख पाया है जबकि रचनाकार लेखन से अधिक बेचन पर धयान देने लगे हैं. फलस्वरूप तमाम लेखक बेचक बन गए हैं. बेस्ट कृति वह है जो बिना बिना बेस्ट सेलर की सूची में शामिल हुए अपने कसे हुए कंटेंट के कारण लगातार पढ़ी जा रही है और चर्चा में बनी हुई है.
- प्रश्न:- पुराने रचनाकारों की कृति और नये रचनाकारों की ‘नयी वाली हिन्दी’ में लिखी कृति में आपको क्या अंतर लगता है? इन दोनों के बीच पाठक कहाँ है?
उत्तर– सबसे अहम् अंतर भाषा और शिल्प का है. आज भी बहुत से रचनाकार भाषा और शिल्प को महत्व देते हैं और यही कृतियाँ हिंदी को बचाए रखने में सक्षम हैं. कई रचनाकार अपनी रचनाओं में देशज भाषा का भी प्रयोग कर रहे हैं, यह हिंदी के लिए अच्छी खबर है. पुराने रचनाकारों को हम स्वतः ही साहित्यकार कहते हैं जबकि नए रचनाकार को लेखक या कि ऑथर. दोनों ही के अपने-अपने पाठक वर्ग हैं. यह पाठक स्वयं तय करता है उसे क्या पढ़ना है. हिंदी क्लासिक साहित्य या सीधी सरल भाषा (फ़िल्मी भाषा भी कह सकते हैं) वाली मनोरंजक नयी हिंदी. अंग्रेजी के बढ़ते चलन के कारण यूँ भी हिंदी हासिये पर है, ऐसे में सरल भाषा वाली नयी हिंदी प्रचार प्रसार के कारण पाठकों को अधिक एप्रोच कर रही है. ऐसा देखने में आ रहा है कि बहुत से पाठक नयी हिंदी से विमुख होकर पुराने साहित्य की ओर लौट रहे हैं.
- प्रश्न:- ग्रामीण या छोटे स्थानों के रचनाकारों के लिए आपका क्या संदेश होगा? नयी पीढ़ी के रचनाकारों, नये रचनाकारों को आप क्या सलाह देंगीं?
उत्तर:- किसी भी रचनाकार के लिए एक ही सन्देश है- खूब पढ़े और खूब लिखे, छपे. हालाँकि नयी पीढ़ी के लिए विशेष सुझाव यह रहेगा कि अच्छा लिखने के लिए पहले अच्छा पढ़ें, खूब पढ़ें; क्लासिक जरूर पढ़ें, साहित्य पढ़कर आप भाषा बरतना सीखते हैं, शिल्प सीखते हैं. कहानियाँ सबके पास होती है, कहने का तरीका उसे विशिष्ट बनाता है जो आप अपने वरिष्ठों से सीखते हैं.
- प्रश्न:- महिला रचनाकारों में अभी अचानक साहित्य में छा जाने, पुरस्कार पाने की इच्छा प्रबलता से आयी है, आपका इसपर क्या विचार है?
उत्तर:- इच्छा न हो तो मानुष जीये ही क्यूँ? किसी चाहना के बगैर रोबोट बन सकता है, मनुष्य तो कतई नहीं. किन्तु हम उस समाज में जी रहे हैं जहाँ स्त्री को मनुष्य की गिनती में नहीं रखा जाता. ऐसे में स्त्रियों की इच्छा से सम्बंधित आपका प्रश्न लाज़िम है. सदियों से स्त्रियाँ कठपुतली मात्र रही हैं जिनकी डोर पुरुषों के हाथों में रही हैं. आज स्त्री स्वयं कुछ चाह रही है तो यह सराहनीय है, हमें इसे प्रशंसा की दृष्टि से देखनी चाहिये. जहाँ तक साहित्य में छा जाने का प्रश्न है तो साहित्य में शुरू से पुरुषों का वर्चस्व रहा है. कलम के दम पर छा जाने की कूवत और पुरस्कार हासिल करने की स्त्री हिमाकत पर तालियाँ बजती रहनी चाहिये. यद्यपि अपनी बात रखूँ तो पुरस्कृत करने वाली किसी भी संस्था को मैंने अपनी पाण्डुलिपि या पुस्तक नहीं भेजी, आप इसे मेरा गैर साहित्यक एप्रोच कह सकते हैं.
- प्रश्न:- महिला विमर्श के नाम पर आजकल क्या कुछ नहीं लिखा जा रहा. विरह, दर्द, यौन शोषण, धोखा और असंतोष को लेखन का श्रोत मानती हैं?
उत्तर:- लेखन का श्रोत कुछ भी हो सकता है. मृत आत्मा भी और मुंडेर पर रोजाना काँव-काँव करता झूठा कौआ भी. किन्तु इस सत्य से भी इनकार नहीं कि जिसके पास जो अत्यधिक होगा वह वही उलीचेगा. यह कौन तय करे कि स्त्रियों को क्या लिखना चाहिये? और पुरुषों को क्या? कोई भोगा हुआ लिखता है तो कोई देखा सुना, लेकिन महत्वपूर्ण ये है कि उपेक्षित, हाशिये पर महिलायें और उनके सवाल कथा कहानियों के बहाने अब न सिर्फ चर्चा में हैं बल्कि प्रश्न बनकर समाज के सामने ढिठाई से खड़े हैं जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता.
- प्रश्न:- आपकी दृष्टि में लेखन में अश्लील गालियों का हूबहू प्रयोग और यौन सम्बन्धों की चर्चा की क्या सीमा होनी चाहिए? साहित्यकार अभी हिंसा और यौन संबंधों वाली रचनाओं की ओर उमड़ पड़े हैं? क्या इसे आप सफलता की सीढ़ी मानती हैं?
उत्तर:- इस प्रश्न का उत्तर एक ओवर रेटेड वक्तव्य से करुँगी “साहित्य समाज का दर्पण है.” समाज जब जैसा रहा है साहित्य भी वैसा ही लिखा गया है और इस वक़्त का समाज दैहिक संबंधों और हिंसा से लबरेज है. प्रगतिशील समाज फ्री सेक्स की हिमायत करता दीखता है. विवाह से बाहर संबंधों को उचित ठहराते संबंधों की कहानी लिखी जा रही है. लेखिका चित्रा मुद्गल ने 1988 ई. में ‘वाइफ स्वेपिंग’ पर एक कहानी लिखी थी जिसमें नेवी ऑफिसरों के बीच होने वाले ‘वाइफ स्वेपिंग’ को दिखाया गया था. समलैंगिक संबंधो पर राजकमलजी का उपन्यास “मछली मरी हुई” और स्त्री-पुरुष संबंधों के खुलेपन पर दो टूक शब्द-बयानी के कारण लोकप्रिय लेखिका मृदुला गर्ग के दो प्रमुख उपन्यास ‘चितकोबरा‘ और ‘कठगुलाब’ विवादास्पद भी माने जाते रहे हैं. इस्मत चुगताई और मंटो की कहानियों में अश्लीलता से जुड़े विवाद किसी से छुपे नहीं. जहाँ तक खुलापन की बात है तो यह कतई कहानी की माँग पर निर्भर करती है. जबरन ठूँसे गये दृश्य अथवा विस्तृत वर्णन पाठक ख़ारिज कर देते हैं. इसे सफलता की सीढ़ी न कहकर समय की माँग कह सकते हैं. पहले हिंदी फिल्मों में चुम्बन दृश्य दो फूलों को टकराकर दिखाया जाता था, आजकल सबकुछ अनओढ़ा है. यह वक़्त की माँग है. जब इन्टरनेट पर सबकुछ इतना पसरा हुआ है ऐसे में साहित्य में लुका-छिपी बोझिल प्रतीत होती है. किसी भी कहानी की सफलता उसकी भाषा और शिल्प तय करती है.
- प्रश्न:- आप मानती हैं कि रचनाकारों पर सिनेमा का प्रभाव पड़ता है. सिनेमा को ध्यान में रखकर पुस्तकें लिखी जा रहीं जबकि यथार्थ का साहित्य ज्यादा सफल रहा है. आपका क्या विचार है?
उत्तर:- जैसा की मैंने ऊपर कहा है कि अधिक पढ़ने से आपकी रचना प्रभावित होती है, ठीक उसीप्रकार अधिक फिल्में देखने से भी लेखन प्रभावित होता है. चूँकि हिंदी लेखन आय का उचित श्रोत नहीं है ऐसे में हिंदी लेखक अपनी कलम का उचित मूल्यांकन के लिए सिनेमा की ओर भाग रहा है. यह कमर्शियल युग है, यहाँ प्रत्येक कलाकार अपनी कला का उचित मूल्यांकन की अपेक्षा रखता है, अपनी कला का नकदीकरण करना चाहता है. कला मात्र आत्मिक सुख का साधन क्यूँ हो? जीवन यापन का माध्यम क्यूँ न हो? सिनेमा के स्क्रिप्ट लिखने वाले लेखक भी हिंदी के लेखक ही हैं. सिनेमा और साहित्य दोनों अपनी-अपनी जगह हैं, दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं.
- प्रश्न:- लेखक की अतिप्रिय कृति को कभी पाठक पसंद नहीं करते. लेखक पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? ऐसी स्थिति में आपके अनुसार लेखक को क्या करना चाहिए?
उत्तर:- जी! ऐसा होता है. आपकी अतिप्रिय कृति को उतना प्रेम सुलभ नहीं होता जितना अपेक्षित होता है. बाजमर्तबा उल्टा भी होता है, सबसे कमज़ोर कहानी को सबसे अधिक प्रेम मिलता है जैसे मेरी “लास्ट कॉफ़ी”. जब मैंने यह कहानी लिखी थी तब मुझे लगा था यह संग्रह की सबसे कमज़ोर कहानी है लेकिन इसके विपरीत सबसे अधिक सराही गयी. कई बार चरित्र निर्माण में इतनी सकारात्मकता समाहित हो जाती है कि पढ़ने वाले भी मोहासक्त हो जाते हैं जबकि खूब प्रेमिल कहानी भी नकारात्मक भाव के कारण बाँध नहीं पाती. दोनों ही स्थिति में लेखक को धैर्य से काम लेना चाहिये, अपना संयम बनाये रख अगली कृति पर ध्यान देना चाहिये.
- प्रश्न:- आप मानतीं हैं कि साहित्य में भी गुटबाजी, किसी को नीचा या ऊपर कराने का, जुगाड़ का खेल होता है? प्रकाशक या पुरस्कार इन बातों से प्रभावित होते हैं?
उत्तर:- आपके प्रश्नों का एक मात्र उत्तर ‘हाँ’ हैं.
- प्रश्न:- सोशल मिडिया का लेखन और लेखक पर क्या प्रभाव पड़ा है? ऑनलाइन और लाइव आना कहाँ तक हितकारी है? आपको क्या लगता है कि मोबाईल युग आने से हिन्दी में पाठकों की संख्या घटी है?
उत्तर– सोशल मीडिया वक्त की खराबी का सबसे बड़ा साधन है और इससे कोई वंचित नहीं, न मैं न आप. दूजा प्रचार का बड़ा माध्यम है. यदि सोशल मीडिया नहीं होता तो प्रियंका ओम को जानने में आपको बरसों बरस लग जाते. यहाँ आपके लेखन का देय तत्काल मिल जाता है. साहित्यक पत्रिकाओं की पहुँच सीमित है, ठीक उल्टा सोशल मीडिया की असीमित. यहाँ घंटो में आपकी कविता/ कहानी/ लेख हजारों पाठकों तक पहुँच जाती है.
लाइव अर्थात जीवित. लाइव आने का अर्थ है जीवन का सन्देश देना, खास कर उस वक़्त जब समूचा विश्व एक अजीब संकट से गुजर रहा था. तमाम तरह की नकारात्मकता से भर गया था, चारों ओर मौत का तांडव था, भय का अँधियारा था उस वक़्त लाइव आकर बातें करना, कविता या कहानी पाठ करना जीवन का संचार कर रही थी. मुझे अपनी बात रखने के लिये लाइव का माध्यम अधिक सुगम लगता है और इसका प्रसार भी अत्यंत तीव्रता से होता है. देखा जाये तो मोबाइल युग ने हिंदी लिखने पढ़ने वालों की संख्या में बढ़ोतरी की है जिसका मुख्य कारण सोशल मीडिया रहा है. एक वक़्त ऐसा था जब अंग्रेजी भाषा की धूम थी, अंग्रेजी बोलना लिटरेट वर्ग होना था, आज हिंदी लिखना एलीट क्लास होना है.
- प्रश्न:- आप आज के हिन्दी रचनाकारों में पाँच ऐसे रचनाकारों के नाम बतायें जिनकी पुस्तक से आप प्रभावित हैं या आपको भविष्य में उनसे हिन्दी साहित्य में अपेक्षा है?
उत्तर:- विजय शर्मा, मनीषा कुलश्रेष्ठ, जयश्री रॉय, आकाँक्षा पारे और गीताश्रीजी. आपने पाँच पूछा इसलिए मैंने पाँच ही कहे अन्यथा मुझे सभी प्रिय हैं, सभी बेहतर काम कर रहे हैं, साहित्य समाज को इनसे बहुत उम्मीदें हैं. हम नवाकुंर इन्हें पढ़कर सीखते हैं.
विभूति बी. झा:- बहुत बहुत धन्यवाद. आपके आने वाले उपन्यास हेतु शुभकामनाएँ.
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श्रीमती प्रियंका ओम की पुस्तकें:-
बढ़िया और खरी-खरी! बधाई प्रियंका जी को!
सीधी-सच्ची बात! बधाई!??
सीधे मुद्दे की बात…
बहुत सुंदर व सारगर्भित तरीके से अपनी बात रखी है। सवालों का स्तर भी उच्च है व जवाब भी सुलझे हुए है। जब साक्षात्कार देने वाला व लेने वाला दोनो में समानता होती है तो सवालों व उत्तर का तालमेल बैठता है, अन्यथा बनावट की बू साफ नजर आ जाती है। प्रियंका जी ने बहुत सुलझे हुए जवाब दिये है। बहुत बढ़िया साक्षात्कार बना है। आप दोनों बधाई के पात्र है।
धनराज माली
लेखक लौट आना मुसाफ़िर