सर्वप्रथम कहानी संग्रह “संगतराश” के लिए श्री नज़्म सुभाषजी को बधाई शुभकामनाएँ. पुस्तक में 16 कहानियाँ हैं और 184 पेजों की इस पुस्तक का प्रकाशन लोकोदय प्रकाशन प्रा. लि., लखनऊ ने आकर्षक रंगीन आवरण में मूल्य रुपये 250 रखकर किया है. श्री उमाशंकर सिंह परमार ने नौ पेजों की प्रस्तावना बहुत अच्छी हिंदी में लिखकर पुस्तक को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है. सुभाषजी की रचनाओं में उर्दू शब्दों का प्रयोग बहुत रहता है लेकिन इस पुस्तक में ऐसा नहीं है. इन कहानियों में उत्तर प्रदेश के एक स्थान विशेष के क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग है. हालाँकि भाषा आसान है तथापि कहीं-कहीं समझने में असुविधा होती है. मैं हमेशा अनुरोध करता हूँ कि अगर स्थानीय भाषा में आप किसी विषय को रखते हैं तो कोष्ठक में उसका हिंदी में भी अर्थ दे दिया करें तो जो उस भाषा को समझने वाले पाठक नहीं है वह हिंदी में उसका अर्थ समझ लेंगे.
इनकी कहानियों में शोषण, व्यंग्य, ग्रामीण राजनीति, स्त्री पुरुष के सम्बन्ध, सामाजिक परिस्थितियाँ हैं और भावनाएँ उमड़ कर आतीं हैं. लिखने की शैली इनकी अपनी है. उर्दू के शब्दों पर इनकी खासी पकड़ रहती है लेकिन इस संकलन में ज्यादा उर्दू नहीं है. इनकी कहानियाँ दुकान के सामने रखी अलग अलग प्रकार की टॉफियाँ हैं जो कभी खट्टी तो कभी मीठी लगती हैं. पढ़ेंगे तो लगातार पढ़ते चले जायेंगे. ये अलग अलग खुश्बूदार हवा के झोंके हैं जो एक के बाद एक क्रमशः आते हैं.
सबसे पहली कहानी ‘मुर्दाखोर’ एक सच्चे मेहनती गरीब किसान की कहानी है जिसे गाँव का जमींदार अपने चंगुल में फँसाये रखने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपनाता है. उसके फसल की चोरी तक करवा देता है. उसे इतना परेशान करता है कि वह तंग होकर आत्महत्या कर लेता है. भाव ह्रदय विदारक और मर्मस्पर्शी हैं. उत्तर प्रदेश के स्थान विशेष की भाषा इस कहानी को वास्तविक बनाती है.
दूसरी कहानी ‘खिड़कियों में फँसी धूप’ में एक विधवा हिन्दू स्त्री एक मुस्लिम के साथ संबंध बना रही होती है और गाँव के ही महिला के एक संबंधी यह देख लेते हैं. चुप रहने के बदले में वह भी उस स्त्री से संबंध बनाना चाहता है लेकिन वह स्त्री मना कर देती है. वो उस मुस्लिम से मदद की उम्मीद में संबंध बनाती है. फिर पंचायत बैठती है. यह महिला प्रत्येक पंच के घर की किस महिला के किसके साथ अवैध संबंध हैं की चर्चा कर सबकी बोलती बंद करती है. अंत में फैसला यह होता है कि महिला सामूहिक भोज का आयोजन करे, खाने पर आने वाले लोगों की संख्याओं पर फैसला हो. भोज का आयोजन भी उसका वह मुस्लिम प्रेमी ही करता है और जब भोज प्रारंभ होता है तो गाँव के लगभग लोग उस भोज में खाने आते हैं. आजकल देश में ऐसे ही हिन्दू मुस्लिम काफी हो रहा. एक तरह का फैशन चल पड़ा है ऐसी कथाओं का. लोगों को लगता है कि हिंदू स्त्रियों को मुस्लिम ही सहारा देते हैं या इस तरह के शारीरिक संबंध बनाने के लिए मुस्लिम व्यक्ति हमेशा तैयार रहते हैं. इस कहानी में हिन्दू मुस्लिम करने से बचा जा सकता था.
‘मेरा कसूर क्या था’ कहानी में एक स्त्री जो अपने प्रिय पति को प्रेम और सहयोग से ऊँचा मुकाम दिलाती है, अब ऊँचा मुकाम मिलते ही पति अन्य किसी दूसरी स्त्री के साथ रहने लगता है और अब यह पत्नी किसी और के साथ प्रेम खोजती हुई संबंध बना लेती है. सुलझी हुई उलझी कहानी है जो बहुत प्रभावित नहीं करती.
‘मुक्ति’ कहानी में एक लेखक जो अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श के नाम पर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा में लंबी-लंबी बातें लिखता है वह खुद घर में पत्नी को समय नहीं दे पाता. इस कारण पत्नी नाराज होती है और एक दिन वह पत्नी पर हाथ उठा देता है. पत्नी पति को छोड़कर चली जाती है. महिला सम्मान और अधिकारों की रक्षा करती इस कहानी के लिखने का अंदाज बढ़िया है. कहानी फिल्म ‘थप्पड़’ की याद दिलाती है.
‘कहर’ कहानी में एक गरीब परिवार की चर्चा है. परिवार में पुत्र की मृत्यु हो जाती है. बाढ़ की वजह से पूरे इलाके में तबाही मची है. राशन बाँटने सरकारी अधिकारी आते हैं जो लोगों पर और उनके ज्यादा बच्चों पर तंज करते हैं. गाँव के सारे लोग उन राहत बाँटने वालों को उनकी अश्लील टिप्पणियों के कारण पकड़कर पीट देते हैं. साधारण कहानी है.
‘एक सौ का नोट’ कहानी में प्रेम, गरीबी और जीवन यापन के लिए वेश्यावृत्ति के बीच आपसी प्रेम पनपने की बात है. लोग किन स्थितियों में मजबूर होकर कौन सा कदम उठाते हैं और कोई अन्य विकल्प नहीं होने की स्थिति में वेश्यावृत्ति की ओर अग्रसर होते हैं. साधारण शिल्प में कथ्य असाधारण है.
‘शतरंज’ कहानी गाँव की राजनीति से जुड़ी हुई कहानी है जिसमें चुनाव जीतने के तिगड़म और जीत के लिए लोग नरसंहार तक कराते हैं की दुखद चर्चा है.
‘भेड़िये’ एक कबीले की कहानी है जिसमें एक भाई के विवाह करने के बाद उसकी पत्नी से उसके अन्य भाई भी संबंध बनाने के नियम जारी रखना चाहते हैं, जिसका महिला विरोध करती है और सफल होती है. एक स्त्री के स्वाभिमान और संघर्ष की कथा है. समाज के बनाये नियम को बदलने की शक्ति उसमें है. यह कहानी महिलाओं को अपनी आवाज उठाने हेतु प्रोत्साहित करती है.
‘मैं पाकिस्तानी नहीं हूँ’ कहानी में धार्मिक उपदेश है. हिंदुओं में जातिप्रथा के आधार पर ऊँची जातियों के लोग निचली जाति से दूरी बनाकर रखते हैं. लोग धार्मिक महंथ, संत बनकर अय्याशी करते हैं. मुस्लिम के प्रति पुलिस विभाग पूर्वाग्रह से ग्रसित रहता है, की चर्चा है. एक साधारण लड़का रात में टेलीफोन बूथ पर कहीं बात कर रहा होता है और पुलिस उसे पाकिस्तानी कह कर पकड़ती है, आतंकवादी घोषित कर हत्या करती है. बाद में वह पुलिस अधिकारी मानसिक रूप से बीमार हो जाता है और उसे हमेशा याद आते रहता है कि उसने एक निर्दोष की हत्या की थी जो अंत तक बोलता रहा था कि मैं पाकिस्तानी नहीं हूँ.
‘बरसात की रात’ कहानी में एक व्यक्ति बाहर जाड़े में गरीबी का जीवन जी रहा होता है. ठंढ़ में तेज बारिश होने लगती है. उसे अपनी पत्नी और बच्चों का ख्याल आता है कि इस भीषण ठंढ़ और बरसात में उनकी पत्नी और बच्चे कैसे होंगे? इतने में उसे एक बारिश में भीगता हुआ भूखा कुत्ता दिखाई देता है जिसे वह अपनी रोटी खिला देता है और कुत्ते को एक रजाई ओढ़ा देता है. बगल की रजाई में वह स्वयं जाकर सो जाता है. रचनाकार कहना चाहते हैं कि आप अगर कहीं किसी के लिए अच्छा करते हैं तो विश्वास रखें कि आपके लिए भी कहीं अच्छा ही हो रहा होगा. इसके अलावा अन्य कहानियाँ भी पढ़ने लायक हैं.
‘संगतराश’ इस पुस्तक की सबसे लंबी और बेहतरीन कहानी है. पुस्तक का नाम भी इसी कहानी पर है. इसका मैं जिक्र विस्तार से करना चाहूँगा. इस कहानी में नायक एक संगतराश, मूर्तिकार है जो एम ए पास है और मुस्लिम होने की वजह से बैंक और अन्य परीक्षाओं के पास होने के उपरांत साक्षात्कार में उसे नहीं चुना जाता है. एक जगह कहा गया कि संगतराश हो, नौकरी में क्यों जाना चाहते हो? मूर्ति बनाओ. नौकरी नहीं मिलने पर वह बहुत बेहतरीन मूर्ति बनाने लगता है. वह मूर्तियों में जान डाल देता है. एक बार एक नेताजी मूर्ति अपनी कीमत पर खरीदना चाहते और कम कीमत पर देने से मना करने पर रात में मूर्तियों की चोरी करवा देते हैं. संगतराश निराश और हताश होकर पूँजी के अभाव में सिर्फ पत्थरों पर नाम लिखने का कार्य करने लगता है. शहर के एक प्रतिष्ठित डॉक्टर को अपने पिता की मूर्ति अपने अस्पताल में लगवानी है. वे आकर फोटो दिखाकर संगतराश को अपने पिता की बेहतरीन मूर्ति बनाने का अनुरोध करते हैं. संगतराश भावना में बह जाता है. मूर्ति बनाते वक्त इसका चश्मा टूट जाता है और बिना चश्मे के ही रात दिन लगकर नियत तिथि से पहले डॉक्टर के पिता की बेहतरीन मूर्ति तैयार कर देता है. इस मूर्ति को बनाने में एक दिन बिना चश्मा के रहने के कारण एक पत्थर का टुकड़ा निकलकर एक आँख में लगता है और लहू बहने लगता है. बाद में उसकी आँखों में तकलीफ बढ़ने पर बड़े अस्पताल आता है. वह बाहर देखता है कि उसकी बनाई हुई वह मूर्ति लगी हुई है. वह गरीब उसी डॉक्टर के पास रुपये 400 की पर्ची कटाकर जाता है. डॉक्टर सब भूल व्यावसायिक व्यवहार कर टेस्ट कराओ की सलाह देते हैं. संगतराश वापस डॉक्टर के पिता की मूर्ती के पास आता है जिसे उसने बहुत मेहनत से बनाया था. वह मूर्ति के ऊपर का जमा धूल साफ कर रहा होता है कि मूर्ति की आँखों से खून के आँसू टपक पड़ते हैं. मूर्ति के आँसू उसे आश्चर्य में डाल देते हैं. अब वह डॉक्टर साहब की पर्ची पर एक भावनात्मक पत्र लिखकर हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर डॉक्टर साहब के लिए छोड़ जाता है. बातें बहुत ही भावनात्मक और मार्मिक हैं. सोचने को मजबूर करती हैं. एक गरीब से जब काम रहता है तो भावनात्मक बातों में उलझाकर काम निकाल लिया जाता है लेकिन जब गरीब को आवश्यकता पड़ती है तो लोग व्यावसायिक हो जाते हैं. बहुत ही अद्भुत कहानी है. तारीफ तो बनती है.
कथ्य और शिल्प की दृष्टिकोण से पूरी पुस्तक अच्छी है लेकिन मेरी अपेक्षा इससे और बेहतर की थी. कहानियाँ अलग-अलग मनोभाव से लिखी गयी हैं. कुल मिलाकर एक मिश्रित संग्रह ही कहूँगा. मूल्य रुपये 250 और डाक खर्च 40, यानी रुपये 290 की पुस्तक है. मेरे लिए तो यह पुस्तक पैसा वसूल है लेकिन 184 पेजों की पुस्तक अगर डाकखर्च सहित रुपये 200 तक आती तो शायद पाठक और ज्यादा होते. अनेक पाठक पुस्तक की ज्यादा कीमत के कारण भी पुस्तक नहीं खरीदते. मेरा मानना है कि पुस्तकों की कीमत एक रुपए प्रति पेज के आसपास अगर रहती है तो पाठक ज्यादा मिलते हैं. इसलिए बेस्टसेलर पुस्तक आपको लगभग इसी औसत की मिलेगी. प्रकाशक को इन बातों पर अवश्य विचार करना चाहिए.
दूसरी बात कि पूरी पुस्तक पढ़ने से यह पता लगता है कि लेखक इस बात से आश्वस्त हैं कि इस देश में मुस्लिम के साथ भेदभाव, दुराचार और शोषण होता है तो उनकी कहानियों में यह बातें बीच-बीच में उभर कर आतीं हैं कि वह मुस्लिम है इस वजह से उसके साथ अन्याय हो रहा है. एक कहानी में एक हिन्दू विधवा औरत का सम्बन्ध मुस्लिम से बतलाया गया है. वो अपने और बच्चों की खातिर इसके साथ सम्बन्ध बनाती है. हिन्दू पात्र भी रखा जा सकता था.
दूसरी कहानी संगतराश में लेखक लिखते हैं कि उसे बार-बार साक्षात्कार में मुस्लिम होने की वजह से नहीं चुना जाता था. उनके साथ भेदभाव होता है. इन सबकी आवश्यकता कहानी में नहीं थी. रचनाएँ काल्पनिक हैं और बीच से निकला जा सकता था. मेरा निजी मानना है कि अभी भी साक्षात्कारों में धर्म के नाम पर ऐसा वातावरण या भेदभाव नहीं है और इससे अल्प-संख्यकों के मन में हीन भावना या द्वेष की भावना पनपेगी. आज मेरे अनेक परिचित मुस्लिम मित्र अच्छी जगहों पर हैं. संवेदनशील मुद्दों पर लेखनी बहुत सतर्कता से चलनी चाहिए.
अंत में यही कहूँगा कि मैं सुभाषजी का प्रशंसक हूँ. इस पुस्तक की चार-पाँच साधारण और कमजोर कथाओं को छोड़ दें तो संकलन बढ़िया है. एक बार अवश्य पढ़ें. मुझे इनसे बहुत अपेक्षाएँ भी हैं. सुभाषजी को भविष्य हेतु शुभकामनाएँ.
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