“दर्जन भर प्रश्न” में पत्रकार और साहित्यकार श्रीमती गीताश्री
परिचय–
नाम– गीताश्री
जन्म तिथि व स्थान– 31 दिसम्बर, 1965. मुजफ्फरपुर (बिहार).
शिक्षा– एम. ए. (हिंदी साहित्य)
प्राथमिक शिक्षा– बिहार के विभिन्न सरकारी स्कूलों से.
पारिवारिक जानकारी– पति श्री अजीत अंजुम एवं एक पुत्री आहना सिंह.
अभिरुचि/क्षेत्र– संगीत, नृत्य, सिनेमा और पागलपन की हद तक यात्राएँ करना.
कार्यक्षेत्र-वर्त्तमान– स्वतंत्र लेखन एवं पत्रकारिता.
विशेष अनुभव–
लेखकीय कर्म:- कृतियाँ-
- प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह, वाणी प्रकाशन)
- स्वप्न, साजिश और स्त्री (कहानी संग्रह, सामयिक प्रकाशन)
- डाउनलोड होते हैं सपने (कहानी संग्रह, शिल्पायन प्रकाशन)
- लेडीज़ सर्कल (कहानी संग्रह) राजपाल एंड संस -2018.
- हसीनाबाद (उपन्यास, वाणी प्रकाशन) -2017.
- औरत की बोली (स्त्री विमर्श, सामयिक प्रकाशन)
- स्त्री आकांक्षा के मानचित्र (स्त्री विमर्श, सामयिक प्रकाशन)
- सपनों की मंडी (आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर आधारित शोध, वाणी प्रकाशन)
- भूतखेला (रहस्य रोमांच- कहानी संग्रह), वाणी प्रकाशन -2019.
- वाया मीडिया – एक रोमिंग कॉरेस्पोंडेड की डायरी (उपन्यास, वाणी प्रकाशन- 2019)
संपादित कृतियाँ:-
- नागपाश में स्त्री (स्त्री विमर्श)
- कल के क़लमकार (बाल कथा)
- स्त्री को पुकारते हैं स्वप्न (कहानी संग्रह)
- हिंदी सिनेमा: दुनिया से अलग दुनिया (सिनेमा)
- कथा रंगपूर्वी (कहानी संग्रह)
- तेईस लेखिकाएँ और राजेन्द्र यादव (व्यक्तित्व)
- रेखाएँ बोलती हैं (रेखा चित्र), शिवना प्रकाशन
- रेखाएँ बोलती हैं -2 (रेखा चित्र) शिवना प्रकाशन
- वारिसों की ज़ुबानी -2020 (संस्मरण, शिवना प्रकाशन)
पुरस्कार:–
- वर्ष 2008-09 में पत्रकारिता का सर्वोच्च पुरस्कार रामनाथ गोयनका, बेस्ट हिंदी जर्नलिस्ट ऑफ द इयर समेत अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त.
- राष्ट्रीय स्तर के पाँच मीडिया फैलोशिप और उसके तहत विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक विषयो पर गहन शोध.
- कथा साहित्य के लिए इला त्रिवेणी सम्मान-2013.
- सृजनगाथा अंतराष्ट्रीय सम्मान
- भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार.
- साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए बिहार सरकार की तरफ से बिहार गौरव सम्मान-2015.
- कुलदेवी परंपरा पर सीनियर फेलोशिप – वर्ष- 2016-2017, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार.
- कथा समग्र के लिए बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान- 2015.
- स्त्री विमर्श के लिए रमणिका गुप्ता फाउंडेशन सम्मान -2018.
- सृजन कुंज कथा सम्मान- 2019
- हसीनाबाद उपन्यास के लिए मध्य प्रदेश का शिवना कथा सम्मान-2019.
दो दशक से सक्रिय पत्रकारिता के बाद फ़िलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता और साहित्य लेखन.
संपर्क:– सी-1339, गौर ग्रीन एवेन्यू, अभय खंड- 2, इंदिरापुरम, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश. पिन- 201014. मोबाइल- 9818246059. ईमेल- [email protected]
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“दर्जन भर प्रश्न”
विभूति बी. झा के ‘दर्जन भर प्रश्न’ और श्रीमती गीताश्री के उत्तर–
विभूति बी झा:- नमस्कार. सर्वप्रथम आपको आपकी अनेक पुस्तकों की सफलता की बधाई, शुभकामनाएँ.
- पहला प्रश्न:- आपकी स्त्री विमर्श की कहानियाँ बेमिसाल होती हैं. ‘लेडीज सर्कल’ हो, ‘सपनों की मंडी’ हो या ‘प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियाँ’ हो, आपकी रचनाएँ अलग-अलग पृष्ठभूमि की होती हैं. इनमें बहुत विविधताएँ हैं, एक रचनाकार की नहीं लगतीं. इतनी पुस्तकों की सफलताओं और पाठकों की इतनी अच्छी प्रतिक्रियाओं पर आपकी टिप्पणी?
श्रीमती गीताश्री के उत्तर– मेरा फील्ड वर्क रहा है. मैं कल्पना लोक में कम, सचमुच की दुनिया में ज्यादा भटकती हूँ. भिन्न-भिन्न प्रकार के समाजों, समुदायों और लोगों से पाला पड़ता रहा है. उनकी समस्याओं से साबका पड़ा है. उनके सुख-दुख को करीब से देखा, जाना है. मैं गाँव और शहर दोनों दुनिया को एक समान रूप से जानती हूँ. इसीलिए मेरी कहानियों में वैविध्य मिलेगा. मुझे पाठकों का बहुत स्नेह मिला है. बहुत अच्छी प्रतिक्रियाएँ मिली हैं. किताब कितनी सफल, ये तो मैं नहीं बता सकती, मगर पाठकों की प्रतिक्रियाओं ने मुझमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भर दिया है. मैं उनकी शुक्रगुजार हूँ कि वे मेरी रचनाओं पर खुल कर टिप्पणी करते हैं, मेरी कमियाँ भी बताते हैं और खूबियाँ भी. कोई रचनाकार सारी रचनाएँ बेहतर नहीं लिख सकता. पाठक ही उसे पसंद करते हैं, वे ही खारिज भी करते हैं. मुझे मेरे पाठक मिले हैं. कुछ तो कमिटेड हैं, जो मेरी हर किताब पढ़ते हैं. उन्हें इंतजार होता है मेरी किताबों का. कहीं न कहीं मैं उनकी बात करती हूँ. उनके मन को छूने में सफल हो जाती हूँ तभी वे खुल कर मुझे सराहते हैं. वरना, सराहने की उदारता आज एक दुर्लभ गुण है.
2. प्रश्न:- आपके साहित्य के पसंदीदा रचनाकार कौन-कौन हैं? आपका नाम किन साहित्यकारों के साथ लिया जाये? अपने को कहाँ देखना चाहतीं हैं? आपकी क्या इच्छा है?
उत्तर– मेरे कई पसंदीदा लेखक हैं. मंटो, इस्मत आपा, निर्मल वर्मा और फणीश्वरनाथ रेणु की दीवानी हूँ. कमलेश्वर और मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और हृषिकेश सुलभ मेरे पसंदीदा लेखक हैं.
लेखिकाओं में उषाकिरण खान, ममता कालिया, मृदुला गर्ग और नासिरा शर्मा का लेखन मुझे प्रिय है.
मैं रामवृक्ष बेनीपुरी और रेणु की परंपरा से जुड़ना चाहती हूँ. मुझे उनकी परंपरा का माना जाए. मैं अपने को लोक संवेदना की कथाकार के रूप में देखना चाहती हूँ. लोक-रिसर्चर हूँ मैं. खोए हुए, विस्मृत लोक पंरपराओं की शोधार्थी हूँ मैं. मैं स्त्री-मुक्ति की आकांक्षा से भरी हुई एक लेखिका के तौर पर पहचानी जाना चाहती हूँ.
- प्रश्न:- बिहार की एक महिला पत्रकारिता में और लेखन में साथ-साथ इतना सफल होती है. राज क्या है? और आप लेखन में कैसे आयीं?
उत्तर– लेखन और पत्रकारिता साथ-साथ नही चल पाती. दोनों अलग विधा है. अलग काम है. कुछ लोग दोनों कर लेते हैं. वे बड़े काबिल लोग हैं. मैं भी कर रही हूँ लेकिन मुझे एक को दबाना पड़ता है. एक छूटता है तो दूसरा उभरता है. लेखन अभी जोरों पर है. पत्रकारिता धीमे-धीमे चल रही है. स्वतंत्र पत्रकारिता कर रही हूँ तो सुविधा है. जब तक नौकरी में थी, लेखन धीमा था. मुझे एक को चुनना पड़ा जिसमें खुद को पूरी तरह झोंक सकूँ, सो लेखन में झोंक दिया. सफलता का पता नहीं. बहुत भ्रामक चीज है. मैं बस काम कर रही हूँ… मेहनत और ईमानदारी से. लेखन में जीरो से शुरुआत करनी पड़ी. बहुत चुनौतियाँ थीं. अभी भी हैं. मेरी राहें आसान नहीं. बहुत भीड़ है यहाँ. मुझे अपनी पहचान बनानी थी. पत्रकारिता में मैं उच्च पद पर थी. वहाँ मेरी साख थी, पहचान थी. सब छोड़ कर नये इलाके में आना पड़ा. यहाँ कोई मददगार नहीं. समय लगा. अभी भी संघर्ष कम नहीं. मैं चुनौतियाँ लेती हूँ. आनंद आता है. पीछे नहीं हटती. न घबराती हूँ. इसलिए लेखन में डिगी नहीं. बिहार की होने के कारण निर्भयता और मेहनत मेरा स्वभाविक गुण है. चुनौती लेने की आदत जन्मजात.
4. प्रश्न :- महिला विमर्श पर आपकी अनेक रचनाएँ हैं. महिला विमर्श के नाम पर आजकल क्या कुछ नहीं लिखा जा रहा. विरह, दर्द, यौन शोषण, धोखा और असंतोष को लेखन का श्रोत मानती हैं? महिला विमर्श में स्नेह, प्रेम, त्याग और परोपकार का स्थान नहीं है?
उत्तर :- ऐसा क्या लिखा जा रहा है जिससे आपको ये सवाल पूछना पड़ रहा है. आपका संकेत किस ओर है? स्त्री-विमर्श की अवधारणा से ही कुछ लोगों को घनघोर समस्या है. उन्हें या तो इसकी समझ नहीं या उन्हें इस विचार से ही घृणा करते हैं, जो स्त्री-मुक्ति की बात करे, जो समाज में गैरबराबरी खत्म करने की बात करे, जो समान अवसर की बात करे. स्त्री को स्वतंत्र इकाई के रूप में देखे जाने की बात करे. विरह अब रीतिकालीन शब्द है. दर्द है असली कारण, जो स्त्री के शोषण से उपजता है. समाज में स्त्री की जो दोयम जगह है, उससे स्त्री समुदाय में गहरा असंतोष है. उसे विश्वास के बदले धोखा मिला है. स्त्री को हमेशा सेक्स-ऑब्जेक्ट की तरह देखा गया. इसीलिए उस पर पहरे बिठाए गए. वह हमेशा कैद में रही. जबकि स्त्री इससे इतर भी बहुत कुछ है.
मेरे लेखन का मूल स्वर यही है, अपने लेखन के जरिए मैं स्त्री के पक्ष में खड़ी होती हूँ. स्त्री विमर्श में आप स्नेह, प्रेम, त्याग, परोपकार कैसे ढूँढ रहे हैं. ये ही स्त्री का मूल स्वभाव है और इसी ने उसे कैदी बनाया है. सारे परोपकार का, त्याग का ठेका औरतों को क्यों देना चाहता है समाज. अगर ये सारी चीजें इतनी शानदार हैं, बेहतर मनुष्य बनाती हैं तो मेरा आग्रह है कि थोड़ा पुरुष भी इन्हें अपना ले, बेहतर मनुष्य बन जाए और स्त्री को बराबर का हक दे. लोग कहेंगे कि अब तो बराबरी मिल गई. स्त्री-पुरुष दोनों को बराबर के मौके मिल रहे हैं. तो पूछना चाहूँगी कि क्या संपत्ति का बंटवारा बराबर-बराबर हो रहा है? पुश्तैनी जमीनों पर अभी भी बेटों का मालिकाना हक है. कानून सिर्फ पिता की अर्जित संपत्ति में बेटी के हक को मान्यता देता है. अभी न्याय बाकी है. स्त्री को संपत्ति में बराबर का हक मिलने तक लड़ाई जारी रहेगी.
- प्रश्न :- उत्तम कृति और बेस्ट सेलर पुस्तकें, दोनों को एक मानती हैं या भिन्न? बाज़ार में आने से पूर्व बेस्ट सेलर बनी पुस्तक को बाद में पाठक नकार भी देते हैं. लेखक की उत्तम कृति को पाठक पसंद नहीं करते. ऐसे में लेखक को क्या करना चाहिए?
उत्तर:- कई बेस्ट सेलर किताबें बहुत अच्छी होती हैं. इसके कई उदाहरण हैं. नाम नहीं लेना चाहती. नाम लेने न लेने के कई खतरे हैं. और मैं फिलहाल विवाद को आमंत्रित नहीं करना चाहती. बेस्ट सेलर पुस्तक को पाठक ही बेस्ट सेलर बनाते हैं. वो भला कैसे नकारेंगे. उनके कारण ही वे बिकती हैं. आलोचक भले नकार दें. साहित्य में शुद्धता के आग्रही भले नकार दें.
उनको लगता है कि नयी वाली हिंदी और उसके लेखक साहित्य का अहित कर रहे हैं. शुद्ध हिंदी को इनसे खतरा है. यह डर व्यर्थ है. नयी वाली हिंदी के पास अपने ठोस तर्क हैं, कारण हैं. वे बेहद सफल हैं. युवाओं की किताबें हाथों हाथ ली जाती हैं. धड़ल्ले से बिकती हैं. उनका पाठक वर्ग अलग है. उसने अपने लिए पाठक तलाशे, नये पाठक जोड़े. जो हिंदी से छिटक कर दूर चला गया था, वैसे पाठक लौट आये हिंदी की ओर. मानना पड़ेगा हमें. बेस्ट सेलर किताबें सारी अच्छी हो, ये जरूरी नहीं. कई बार शोर में औसत किताबें भी खूब लोकप्रिय होती हैं. लेखक अब प्रचार करता है, बेचता है किताबें. बिकने में मदद करता है. सोशल मीडिया पर ये नजारा आम है जहाँ कई लेखक अपनी किताब का लिंक डालते हैं, दोस्तों से उसे खरीदने का आग्रह करते हैं. ऐसा करने में हर्ज नहीं. किताबों की सूचना, उसकी प्राप्ति की सूचना पाठकों तक पहुंचनी चाहिए. लेखक खुद पहुंचा रहा है तो इसमें बुरा क्या है. किताबें होती ही हैं पाठकों के लिए. उत्तम कृति का फैसला कौन करेगा. कैसे तय होता है कि ये उत्तम कृति है. क्लासिक किताबों की बात छोड़ दें. वे भी कालांतर में उत्तम करार दी जा रही हैं. जो आज लिखा जा रहा है, उसकी गुणवत्ता का टेस्ट आज नहीं होगा. पचास साल बाद, समय की कसौटी पर कसी जाएगी किताबें, लेखक दोनों. जो हर युग में प्रासंगिक होगा, जो जन पक्षधर साहित्य लिखा जाएगा वो टिका रहेगा. अभी तो सही-सही मूल्यांकन मुश्किल है. हालाँकि कुछ आलोचक आज भी किसी-किसी कृति को उत्तम करार दे देते हैं. देखते हैं, समय की शिला पर वे कितना निशान छोड़ती हैं.
- प्रश्न:- ग्रामीण या छोटे स्थानों के रचनाकारों के लिए आपका क्या संदेश होगा? प्रकाशक या अच्छी पत्रिकाएँ इन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं देतीं. ऐसे में रचनाकार निराश होते हैं. नयी पीढ़ी के रचनाकारों, नये रचनाकारों को आप क्या सलाह देंगीं?
उत्तर– ग्रामीण रचनाकार खूब छप रहे. कई लेखक गाँव में रहते हैं. कितने नाम गिनाऊं. वहीं से बैठ कर खूब लिख रहे. उनकी पहचान बन गई है. बढ़िया लिख रहे हैं. बल्कि जिन कहानियों को, जिस संवेदना की तलाश में हम शहरी लोगों को गाँवों में चल कर जाना पड़ता है, वे लेखक वहीं डट कर बैठे हैं, उनकी कथा कह रहे हैं. पत्रिका छापती हैं. रचना में दम होगा तो क्यों न छापेंगी. कुछ रचनाएँ बेदम भी तो होती हैं. नयी पीढ़ी के लेखक बहुत प्रतिभाशाली हैं. वे भविष्य के बड़े लेखक हैं. उनकी शुरुआत बहुत संभावनाएँ जगा रही है. हम उम्मीद से देखते हैं उन्हें. उन्हें सलाह क्या दे सकती हूँ. खुद पर लागू करती हूँ कि रचना के सरोकार गहरे होने चाहिए, एक विजन के साथ. विजन, रचना की आत्मा है. प्राण है. रसूल हमजातोव ने युवा लेखकों को सीख देते हुए एक प्रसिद्ध उक्ति कही थी.
“यह मत कहो- मुझे विषय दो
यह मत कहो- मुझे आँखें दो.“
रसूल आँख नहीं दृष्टि की बात करते हैं. दृष्टि और आँख में फर्क होना चाहिए. रचना के लिए आँख नहीं, दृष्टि की आवश्यकता होती है. यह दृष्टि बनी रहे. यही कामना है. यह सलाह मेरे लिए भी उतनी ही जरूरी है जितनी सबके लिए.
- प्रश्न:– आपकी दृष्टि में लेखन में अश्लील गालियों का हू-ब-हू प्रयोग, खासकर महिला रिश्तों को तार-तार करने वाली गालियाँ और यौन सम्बन्धों की चर्चा की क्या सीमा होनी चाहिए? साहित्यकार अभी हिंसा और यौन संबंधों वाली रचनाओं की ओर उमड़ पड़े हैं? क्या इसे आप आज सफलता की सीढ़ी मानती हैं?
उत्तर:– मेरे मानने न मानने से क्या होता है. मैं लेखन में डिक्टेट करना पसंद नहीं करती. जिसे जो समझ में आता है, लिखे. सबकी अपनी समझ और विवेक है. मुझे पसंद नहीं है तो मैं नहीं पढ़ूँगी. साहित्य में आप सेंसरशिप की बात नहीं कर सकते. सिनेमा, वेब सीरीज और साहित्य में अंतर है. खल चरित्र को दर्शाएंगे तो उसके मुँह से गालियाँ ही झरेंगी, फूल नहीं. मैं एक स्त्री होने के नाते, अपनी कहानियों में गालियों से बचती हूँ. कभी जरूरी हुआ तो संकेत भर देकर छोड़ देती हूँ. स्त्री का अपमान करने वाली गालियाँ तो मैं बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाती. जीवन में भी नहीं सुन सकती. मेरे सामने कोई बोले तो घोर आपत्ति जताती हूँ. हर स्त्री को ऐसी गालियों का विरोध करना चाहिए. चाहे उसके घर का पुरुष ही क्यों न ऐसी गालियाँ बोलता हो. क्रोधित पुरुष स्त्री के प्रति हिंसक होता है और दूसरे पुरुष पर क्रोधित होकर उसकी माँ, बहन को गाली देता है, उस पुरुष को नहीं. ये सामंती मानसिकता है जो स्त्री के प्रति हिंसा से भरा हुआ है.
साहित्य में गालियों का इस्तेमाल कई बड़े लेखकों ने किया है. वो परिवेश, पात्र, काल के अनुसार प्रसंगवश आए हैं. सायास नहीं लाए गए हैं.
अब बात यौन संबंधों के वर्णन की. देखिए, साहित्य में कोई शॉर्ट कट नहीं होता. ये बात मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूँ. यहाँ समय सिद्ध होना पड़ता है. यौन संबंधों पर इसलिए नहीं लिखा जा रहा कि सफलता मिलेगी. साहित्य में सफलता सिनेमा की तरह नहीं मिलती. कोई लेखक ये सोच कर नहीं लिखता कि कोई हिट फार्मूला है, इस पर लिख कर हिट हुआ जा सकता है. कथा में प्रसंगवश कोई दृश्य आता है, इसका मतलब नहीं कि वही कथा का अभीष्ट है.
- प्रश्न:- सोशल मीडिया का लेखन और लेखक पर क्या प्रभाव पड़ा है? ऑनलाइन और लाइव आना कहाँ तक हितकारी है? आपको क्या लगता है कि मोबाईल युग आने से हिन्दी में पाठकों की संख्या घटी है? आज लोग घर में भी हिन्दी में बात करना पसंद नहीं करते, ऐसे में आपको हिन्दी साहित्य का भविष्य क्या लगता है?
उत्तर:- सोशल मीडिया ने लेखकों को मंच दिया है. पत्र-पत्रिकाओं से लौट कर आने वाली रचनाओं को मंच और पाठक दोनों मिले. हरेक तरह की रचनाएँ सोशल मीडिया पर उपलब्ध है. संपादकों की मेहरबानी से मुक्ति मिली. लेखक-पाठक आमने सामने हैं. संवाद हो रहा है. अच्छा, खराब सब लेखन खप रहा है. कोरोना काल ने लाइव को स्थापित कर दिया. वाचिक परंपरा का यह बेहतर रूप है. पहले सभागारों में बैठ कर सुनते थे, अब लाइव सुनते हैं वक्ताओं को. अच्छा लगता है. जिसका उपयोगी, ज्ञानवर्द्धक लगता है, उसे सुनते हैं, जो व्यर्थ का प्रलाप करते हैं, उन्हें छोड़ कर हम आगे बढ़ जाते हैं. यह आजादी तो है न.
हिंदी के पाठक बढ़े हैं. ऐसा नहीं होता तो किताबें बेस्ट सेलर कैसे होतीं. प्रकाशक किताबें क्यों छापते. इन दिनों नये-नये प्रकाशक आ रहे हैं जो खूब किताबें छापते हैं. किताबें बिक रही हैं तभी तो वे छाप रहे हैं. कौन अपना पैसा लुटाएगा. बाजार बना है हिंदी का. मोबाइल ने सबको तकनीक से लैस करके एक किस्म की सुविधा दी है, मुक्ति दी है. यह जरूर है कि तकनीक ने लोगों को बेलिहाज भी कर दिया है. इसके फायदे, नुकसान दोनों है.
9. प्रश्न:- महिला रचनाकारों में अभी अचानक आकर कम समय में साहित्य में छा जाने, पुरस्कार पाने की इच्छा प्रबलता से आयी है, कवयित्रियों की तो बाढ़ सी आ गयी है. साहित्य में सफलता का कोई शॉर्ट कट है? आपका इसपर क्या विचार है?
उत्तर:– मैंने एक सवाल के जवाब में कहा है कि साहित्य में सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता. लंबी यात्रा है. निंरतरता जरूरी. धैर्य जरूरी. कवयित्रियों की ही नहीं, कथाकारों की भी बाढ़ आई हुई है. सोशल मीडिया ने भीड़ में बढ़ोतरी कर दी. सबको लगता है वो लेखक हैं. पोस्ट लिखने वाले लोग भी लेखक से कम नहीं. सोशल मीडिया पर लाइक, फोलोअर्स, कमेंट ने सबको भ्रमित कर दिया है. उन्हें सेलिब्रिटी बनने का अहसास होता है. मुगालते में हैं लोग. गुणवत्ता की परख मुश्किल है. इसीलिए समय पर छोड़ना बेहतर. समय की कसौटी पर कसे जाएंगे लेखक, कृतियाँ. सौ साल बाद आज कई लेखक अचानक प्रासंगिक हो गए हैं. उनकी चर्चा हो रही है. उन्हें अपने समय में कुछ हासिल न हुआ. कई वरिष्ठ लेखक तो अभी भी मूल्यांकन डिजर्व करते हैं. कौन करे? किसे पड़ी है. थैंक्सलेस है हिंदी सहित्य की दुनिया. लिखो और भूल जाओ कि जमाना कभी इसकी कद्र भी करेगा. उम्मीद बेकार है. साहित्य में जीते जी कुछ हासिल नहीं होता है. इस उम्मीद से कोई न लिखे.
10. प्रश्न:- आप मानती हैं कि साहित्य में भी गुटबाजी, किसी को नीचा या ऊपर कराने का, जुगाड़ का खेल होता है? प्रकाशक या पुरस्कार इन बातों से प्रभावित होते हैं?
उत्तर:- मुझे इन बातों से कभी पाला नहीं पड़ा है. मैं वैसे भी साहित्य जगत में अभी तक आउटसाइडर ही हूँ. भीतर बहुत प्रवेश नहीं कर पाई हूँ. ज्यादा धंसना भी नहीं चाहती. बहुत बेनकाब होंगे चेहरे तो तकलीफ होगी. प्रकाशक जरूर ग्लैमर के पीछे भागते हैं. प्रकाशक नाम के पीछे भागते हैं. जिनका नाम थोड़ा हो जाए, या जिसके पीछे ग्लैमर हो. लेखक बड़े पद पर हो तो और अच्छा. गुटबाजी के बारे में सुना है. मेरा मानना है कि औसत लोगों को गुट बनाने की जरूरत पड़ती है, अपने प्रमोशन के लिए. मेहनती, ईमानदार, सच्चा लेखक ये सब नहीं चाहता, उसे तो बस लिखने की मोहलत, फुर्सत और सुविधा मिल जाए. जैसे किसी लेखिका को उसके घर में एक कोना मिल जाए जहाँ वह बैठ कर चैन से लिख सके. एक सच्चे लेखक के लिए पाठकों का प्यार ही पुरस्कार है.
- प्रश्न:- यात्रा करना आपको पसंद है. पागलपन की हद तक आप यात्राएं करना चाहतीं हैं. देश-विदेश घूमती हैं. प्रतिभाशाली ‘बिहारी’ शब्द को अनेक जगहों पर हेय दृष्टि से देखा जाता है. ऐसे में क्या आपको कभी, कहीं लगा कि आपको बिहारी मानकर आपके साथ कमतर व्यवहार हुआ?
उत्तर– मुझे यात्राओं का जुनून है. पिछले कुछ महीने से क़ैद हूँ. पाँवों में सनसनी होने लगी है. कदम बाहर निकलना चाहते. मैं बहुत रेस्ट पसंद इंसान नहीं हूँ. रेस्टलेस रहना चाहती हूँ. मैं तो ट्रैवल राइटर बनना चाहती थी. घूमती रहूँ, लिखती रहूँ. कोई छापता रहे. अलग नज़र से दुनिया को देखूँ. यात्राएँ हम सिर्फ़ जगहों की नहीं, काल की भी करते हैं. मैं जगहों की आत्मा ढूँढना चाहती हूँ. मुझे उनके इतिहास से लगाव है. प्रकृति का सान्निध्य ललक जगाता है. मैं कई बार सोचती हूँ- वहीं कहीं बस जाऊँ. मैं स्त्री होने के नाते कम घूमी हूँ. बंदिशों में रही हमेशा. इसलिए भी जब अपने पाँव पर खड़ी हुई तो सबसे पहले दुनिया देखने की इच्छा पूरी की. जितना संभव हो सका, घूमी हूँ और घूमने की आकांक्षा रखती हूँ. मेरी यात्रा, मुझे ख़ुद को खोजने में मदद भी करती है. कोलाहल से दूर, अपने संग होना बेहद जरुरी होता है. जहाँ आप खुद को सुन सकें.
मैं जब शुरु में दिल्ली आई थी तब मुझे बहुत चिढ़ाते थे लोग- उच्चारण को लेकर. मेरा बिहारी टोन अभी तक है. मैं तुरंत पहचान में आ जाती हूँ. पहले झिझक होती थी, अब यही मेरी पहचान है. कमतर व्यवहार बिहारी समझ कर नहीं, स्त्री समझ कर अवश्य हुआ है. स्त्रियों के साथ वैसे भी दोयम दर्जे का व्यवहार होता है. अब मैं इन सबसे पार जा चुकी हूँ. मुझे फ़र्क़ पड़ना बंद हो चुका है. आप मज़ाक़ उड़ाएँ, कमतर समझें… ये आपकी समझ और आपकी योग्यता.
मैं चुनौतियों, झंझावातों से जूझ कर निर्मित एक स्त्री हूँ. जिसे अब किसी जगनिंदा या हिक़ारत से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. मैं एक ठोस उपस्थिति हूँ इस दुनिया में.
12. प्रश्न:- पुराने रचनाकारों की कृति और आजकल नये रचनाकारों की ‘नयी वाली हिन्दी’ में लिखी कृति को देखकर आपको हिन्दी साहित्य का क्या भविष्य लगता है? आप आज के हिन्दी रचनाकारों में पाँच ऐसे रचनाकारों के नाम बतायें जिनकी पुस्तक या रचनाओं से आप प्रभावित हैं या आपको भविष्य में उनसे हिन्दी साहित्य में अपेक्षा है?
उत्तर– इस सवाल का जवाब मैं ऊपर दे चुकी हूँ. आप पाँच रचनाकारों के नाम पूछ रहे हैं…. मेरे लिए मुश्किल है ये चयन. कई हैं. पाँच ही क्यों. कवि और कथाकार दोनों हैं इसमें, जिनसे मैं बहुत प्रभावित हूँ. वे इसी तरह लिखते रहे तो काफी आगे जाएंगे. नाम रहने दें. नाम के खतरे हैं. मैंने ऊपर ही कहा है.
विभूति बी. झा:- बहुत बहुत धन्यवाद. आपके आगे के रचनाक्रम की शुभकामनाएँ.
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श्रीमती गीताश्री की कुछ पुस्तकें:–