सर्वप्रथम पुस्तक “रिश्तों की कड़वाहट” के लिए लेखक डॉक्टर प्रदीप उपाध्यायजी को बधाई और शुभकामनाएँ। पुस्तक का प्रकाशन रवीना प्रकाशन ने आकर्षक कवर देकर हार्ड कवर में मूल्य 300 रुपये रखकर किया है।
मैं उपाध्यायजी को सम सामयिक व्यंग्य के लिए ही जानता हूँ। मेरा पसंदीदा विषय हास्य व्यंग्य रहा है। श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी जब मन तब पढ़ते रहता हूँ। उनके बाद कोई उस स्थान को भर नहीं पाया लेकिन उस रास्ते में उपाध्यायजी अवश्य चल रहे हैं। मैं अक्सर अखबार में इनकी रचनाओं को खोजकर पढ़ता हूँ। मैंने पहली बार कहानी संग्रह के क्षेत्र में जब इनका नाम देखा तो प्रकाशक के पास पैसे भेज बुकिंग की। अनेक अनुरोध के बाद, बहुत दिनों के बाद प्रकाशक महोदय ने कृपा की और पुस्तक मिली। मैं किसी प्रकाशक के खिलाफ कभी कुछ नहीं लिखता क्योंकि कौन जाने कल मेरी पुस्तक उस प्रकाशन से निकल आये। वैसे मेरी इच्छा है कि कभी मौका मिले तो इंक प्रकाशन से मेरी कोई पुस्तक आये। इंक प्रकाशन का नाम मुझे बहुत अच्छा लगता है जबकि मुझे इस प्रकाशन की कोई बात नहीं मालूम।
अब पुस्तक पर आऊँ।
रिश्तों की कड़वाहट में कुल 13 कहानियाँ हैं। कहानियों में बहुत सस्पेंस और हिंसा नहीं है बल्कि नामानुसार रिश्तों की ही बात है। एक लेखक की आप अनेक रचना पढ़ते हैं तो आपको कहीं ना कहीं एक तरह की बात दूसरी जगह मिलने लगेगी। एक व्यंग्यकार जब कहानी लिखता है तो मैं इस उम्मीद में पढ़ता गया कि अब व्यंग्य आयेगा लेकिन आश्चर्य कि कहीं ऐसा नहीं लगा कि लेखक व्यंग्यकार हैं। यह सफलता है। मतलब जिस विधा में लिख रहे हैं उसी में डूबे हैं।
कहानी ‘आस’ पीढ़ी के बदलने पर बदली सोच को दर्शाती है। कहानी ‘अंतिम दायित्व’ और ‘रूक जाना नहीं’ आपको चिंतन के लिए मजबूर करेंगी। आपको लगेगा कि आपके जीवन की बात है। कथ्य और शिल्प दोनों सधा हुआ। पीढ़ियों के बीच का रिक्त स्थान इस पुस्तक की शक्ति है। ज्यादा कहानियों में इसकी झलक है। ‘रिश्तों की कड़वाहट’ में बुजुर्गों की पीड़ा और ‘अकेलापन’ कहानी में विधवा जीवन का अकेलापन आपको कहानी का दर्शक बना देता है। लगता है कि सबकुछ आँखों के सामने घटित हो रहा। पुस्तक की अन्य कहानियाँ जैसे संतोष, वापसी की प्रतीक्षा, बंधुआ मुक्ति और बड़े बाबू भी एक बार अवश्य पठनीय है। कुल मिलाकर छोटी छोटी कहानियों का यह संग्रह एक बार अवश्य पढ़ें। कम से कम 12 कहानियाँ और होनी चाहिए थी। ऐसी पुस्तक को इतनी जल्दी समाप्त नहीं होनी चाहिए थी।
मेरा तो मन नहीं भरा।
पूरी पुस्तक में कहानियाँ मात्र 57 पेजों में ही है। हार्ड कवर होने के बावजूद मेरी नजर में मूल्य 300 रुपये ज्यादा है। ज्यादा मूल्य होने से भी बहुत लोग पुस्तक नहीं खरीदते। इस पर प्रकाशक अवश्य विचार करें।

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.