काव्य संग्रह “समय वाचाल है” के लिए श्री देवांशु को बहुत शुभकामनाएँ. इस पुस्तक का प्रकाशन रंगीन कवर में ‘प्रभात प्रकाशन’ ने मूल्य रुपये 200/- रखकर किया है. मेरा मानना है कि कविता के पाठक बहुत हैं, शायद कहानी से ज्यादा लेकिन मुफ्त के पाठक ज्यादा हैं. कविता संग्रह खरीदने वाले बहुत कम हैं. अधिकतर कवि किसी को खरीदकर पढ़ना नहीं चाहते. उन्हें लगता है कि कुछ दिनों बाद स्वयं कवि पुस्तक उन्हें भेंट करेंगे. परन्तु कुछ कविता संग्रह आप खरीद सकते हैं. देवांशुजी की रचनाओं को आप खरीदने वाली श्रेणी में रखें. इनकी खासियत यह है कि एक बार आपने इन्हें पढ़ लिया तो भविष्य में आप स्वतः इन्हें खोजकर पढ़ेंगे. इनकी अनेक रचनाएँ फेसबुक पर भी हैं और बहुत चर्चित हैं. यह इनकी लेखनी और स्पष्टता का कमाल है. ‘समय वाचाल है’ इनकी पहली पुस्तक थी. इनकी दो पुस्तकें ‘आवारा बादल’ निबंध संग्रह और ‘पग बढ़ा रही धरती’ कविता संग्रह और 2019 में आयीं.
अब इस काव्य संग्रह पर आऊँ.
कथ्य और शिल्प की दृष्टि से इस संग्रह को देखने से लगता है कि अलग-अलग मनः स्थिति में लिखी गयी यह पत्थर की एक ऐसी इमारत है जिसमें किसी गिलावा का प्रयोग नहीं है, सिर्फ अलग-अलग कोण, रंग, आकार के शिलाओं को एक के ऊपर एक रखकर बनायी गयी है. पढ़ते हुए भी अलग-अलग मनः स्थिति बनती है. कभी गाँव, कभी स्कूल, कभी माँ और अचानक राजनीति, देशभक्ति. कुल मिलाकर एक ऐसी माला जिसमें मोगरा के फूल से लेकर धतूरा तक हैं. हिन्दी के कुछ क्लिष्ट शब्दों का भी प्रयोग है जो देवांशुजी की सामान्य लेखनी है परन्तु मुझ जैसे पाठकों के लिए पुरानी हिन्दी की याद दिलाती है. इनकी रचनाओं में नयी वाली बोलचाल की हिन्दी नहीं बल्कि पुरानी वाली हिन्दी का आभास होता है. कुछेक ग्राम्य जीवन की रचनाएँ दिल को बहुत छूतीं हैं. फिल्मी भाषा में कहूँ तो इसमें एक्शन, ड्रामा, फाइट और आर्ट फिल्म की झलक है परन्तु रोमांस नगण्य है. बहुत लोग हर जगह यही खोजते हैं. मुझे आजतक ये भी समझ में नहीं आया कि “लौलिता” को किस बात के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था. शायद मैं अज्ञानी हूँ. “समय वाचाल है” में निजी जीवन को केंद्र में रखकर लिखी गयी अनेक कवितायेँ हैं, जैसे “घर”, “गाँव”, “पाठशाला”, “लट्टू का डूबना” इत्यादि. ये कवितायेँ उन सभी के आँखों के सामने साक्षात चलचित्र की तरह दिख सकती हैं जिन्होंने इनके (लेखक के) साथ अपना बचपन बिताया है. पुस्तक को दूसरी बार पलट कर ढूँढ रहा था कि कहीं गुल्ली, बम्पिटटो, कपड़े के गेंद वाली क्रिकेट, आर्केस्ट्रा का गाना, नाटक और, और कुछ मिल जाये. पहली पुस्तक में ही सब कुछ. नहीं, इतनी उम्मीद ज्यादती होगी. आगे आयेगा बहुत कुछ जो अभी नहीं आया है. कुछ पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी बन पड़ी है जो दुबारा पढ़ने को मजबूर करती हैं.
शीर्षक “निर्वासित पिता” में जब लिखते हैं “मेरे पिता न उन रद्दियों को छोड़ना चाहते थे न कभी अपना घर” तेज़ टीस मारती हैं.
“माँ नाहक परेशान होती हैं” बूढ़ी माँ के स्वभाव की अनमोल प्रस्तुति है. अनेक बार पढ़ने को जी चाहता है.
“शहीद की नेत्रहीन विधवा” जहाँ दिल को छूतीं हैं वहीँ पत्रकारिता को रौंदती टी आर पी की रेस पर करारा प्रहार हैं ये पंक्तियाँ “फिर पत्रकार दौड़ेगा दूर दराज का गाँव, ठूस देगा शहीद के बाप के मुंह में माइक.”
सौ कविताओं का पहला काव्य संग्रह या यूँ कहूँ कि पहले ही मैच में शतक मार दिया है तो ज्यादा नहीं होगा.
मेरी नजर में जिन लोगों ने अपना बचपन गाँव में बिताया है उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिये. कुल मिलाकर एक अच्छी कविता संग्रह है. मैं पुनः बहुत-बहुत बधाई और भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ.
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