“दर्जन भर प्रश्न” में आज छत्तीसगढ़ के साहित्यकार श्री संजीव बख्शी

व्यक्ति परिचय:-

नामश्री संजीव बख्शी.

जन्म तिथि– 25 दिसंबर, सन 1952.

शिक्षा– गणित में एमएससी.

प्राथमिक शिक्षा – प्राथमिक शिक्षा खैरागढ़ छत्तीसगढ़ में.

पारिवारिक जानकारी

पत्नी- श्रीमती वीणा, पुत्र- श्री विनीत, पुत्री- सुश्री श्वेता, पुत्रवधू- श्रीमती नेहा, दो पोतियाँ- आर्वी और आर्ची.

साहित्य वाचस्पति डॉक्टर पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी इनके ग्रैंड अंकल (चचेरे दादा) थे. उनका सामिप्य इन्हें मिला.

अभिरुचि– साहित्यिक रुचि के अलावा संगीत में रुचि.

कार्यक्षेत्र– छत्तीसगढ़ राज्य के प्रशासनिक अधिकारी के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हुए संयुक्त सचिव के पद पर से सेवानिवृत्त. बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों और अन्य आदिवासी अंचलों में कार्य करने का विशेष अनुभव.

वर्तमान लेखन और भविष्य की रूपरेखा– ‘भूलन कांदा’ उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद श्री के एस राम एवं श्रीमती उमा राम ने किया है. इसका प्रकाशन नोशन प्रेस, चेन्नई से हो रहा है. इसके अतिरिक्त ‘किताब घर’ से एक कहानी संग्रह का प्रकाशन होना है. इस समय वे एक संस्मरण ‘केशव कहि न जाई का कहिये’ के नाम से लिख रहे हैं जिसमें उनकी नौकरी के संस्मरण शामिल है। इस वर्ष के अंत तक प्रकाशित होने की सम्भावना है.

लेखकीय कर्म का प्रारम्भ

इन्होने कविताएँ लिखना तो वर्ष 1975 में ही प्रारंभ कर दिया था परन्तु इनका प्रकाशन वर्ष 1992 के बाद ही प्रारंभ हुआ. कविताओं के बाद 2012 में ‘भूलन कांदा’ उपन्यास ‘अंतिका प्रकाशन’ से आया. उसके बाद कुछ कहानियाँ भी लिखी. दूसरा उपन्यास ‘खैरागढ़ नांदगांव’ आया.

पुरस्कार या अन्य उपलब्धि की जानकारी

कविता संग्रह ‘सफेद से कुछ ही दूरी पर पीला रहता था’ पर पाटण, गुजरात से सम्मान और ‘छत्तीसगढ़ विभूति अलंकरण सम्मान 2012’.

उपन्यास ‘भूलन कांदा’ के लिए ‘प्रेमचंद सम्मान 2012’ बांदा, उत्तर प्रदेश से और ‘ठाकुर पूरन सिंह स्मृति सूत्र सम्मान 2002’.

‘हेमचंद्राचार्य साहित्य श्री अलंकरण सम्मान 2010-2011’, हेमचंद्राचार्य ज्ञानपीठ, पाटण, गुजरात से.

सम्पर्क/ पता/ फोन नम्बर– R 5, अवंती विहार कॉलोनी, सेक्टर-2, रायपुर, छत्तीसगढ़, पिन- 492006. मोबाईल- 9981874114.

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“दर्जन भर प्रश्न”

श्री संजीव बख्शी से विभूति बी. झा के “दर्जन भर प्रश्न” और श्री बख्शी के उत्तर-

विभूति बी झा– नमस्कार. सर्वप्रथम आपको आपकी पुस्तक #भूलन कांदा’ और ‘खैरागढ़ नांदगांव’ के लिए बधाई, शुभकामनायें. ‘भूलन कांदा’ का अंग्रेजी अनुवाद आ रहा इसके लिए भी शुभकामनाएँ.

  1. पहला प्रश्न:- आपकी दोनों पुस्तक बहुत चर्चित रही. पढ़ने पर लगता है कि सामने छत्तीसगढ़ हो. दोनों पुस्तकों के बारे में आप क्या कहेंगे? पाठकों की इतनी अच्छी प्रतिक्रियाओं पर आपकी टिप्पणी?

श्री बख्शी के उत्तर– मेरा पहला उपन्यास ‘भूलन कांदा’ है जो अंतिका प्रकाशन से 2012 में आया. इसके पहले यह उपन्यास 2010 में बया पत्रिका में आया था जिसे पढ़कर काफी लोगों ने मुझे फोन किया. सबसे पहले फोन करने वालों में थे विष्णु खरे. उन्होंने आधे घंटे तक बात की थी और बिना रुके उसकी तारीफ करते रहे. कहते रहे, आप नहीं जानते कि आपने क्या कर दिया है. यह 29 सितम्बर, 2010 की बात है. उन्होंने कहा, ‘‘क्या आपके नावेल पर किसी की प्रतिक्रिया आई हैॽ आपने तो चकित कर दिया. आपको गाँव की इतनी गहराई से ज्ञान है. मैं समझता हूँ कि ऐसा नावेल नहीं आया है अब तक. गाँव को लेकर रेणु का मैला आंचल है, उसमें रूमानियत है. आपके नावेल में रियलिस्टिक गाँव है. बधाई हो आपको. मैं तो आपको कवि जानता था परन्तु आपने उपन्यास लिखकर चौंका दिया. कल से इस उपन्यास के बारे में लगातार सोच रहा हूँ. यह छत्तीसगढ़ के गाँव को लेकर पहला उपन्यास नहीं बल्कि देश में इस तरह का पहला उपन्यास कहूँगा. बिहार, उत्तरप्रदेश और दूसरे प्रदेश के लोग जो लिख रहे हैं उनमें गाँव को लेकर ऐसा काम कहीं नहीं हुआ है. एक-एक पात्रों को लेकर किया गया काम बहुत अच्छा है. इन सबके लिए सब ओर से अच्छी प्रतिक्रिया आएगी. आखिर भी इस नावेल का अच्छा किया है. रमेशर को आपने जिस हिसाब से प्रस्तुत किया है वह तो गजब का है. आखिर में जेल से छूट कर आने पर भकला का क्या हुआ, यह बताने के पहले नावेल समाप्त कर आपने पाठक को सोचने के लिए विषय दे दिया. यह भी अच्छा है.”

विष्णु खरे का यह विचार  मेरे लिए महत्वपूर्ण  है. भूलन कांदा पर एक फिल्म भी बनी ‘भूलन दी मेज’ जिसे रायपुर छत्तीसगढ़ के ही निर्माता निर्देशक मनोज वर्मा ने बनाई .जब मैं उपन्यास लिख रहा था, इस बीच मेरी मुलाकात मनोज वर्मा से हुई तो मैंने इसके विषय के बारे में बताया था तब ही उन्होंने कह दिया था कि मैं इस पर फिल्म बनाऊंगा. उन्होंने अच्छी फिल्म बनाई. अब यह फिल्म रिलीज होने को है शायद डिजिटल में भी रिलीज हो जिसे सभी लोग देख पायेंगे. देश विदेश में इस फिल्म को कई अवार्ड मिल चुके हैं. संगीत मोंटी शर्मा का है.

मेरा दूसरा उपन्यास ‘खैरागढ़ नांदगांव’ है. यह अपने आप में अलग तरह का उपन्यास है. जिसकी भूमिका सुप्रसिद्ध फिल्म पटकथा लेखक अशोक मिश्र ने लिखी है जिन्होंने श्याम बेनेगल के साथ काफी समय तक काम किया, ‘वेल डन अब्बा’ और ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ के लिए पटकथा लिखी. वे कहते हैं इस उपन्यास पर अच्छा नाटक तैयार किया जा सकता है. समय मिलेगा तो जरूर इस पर नाटक तैयार करना चाहेंगे. दोनों उपन्यासों पर अनेक शोध हुए हैं. भूलन कांदा का अंग्रेजी अनुवाद ‘के एस राम उमा राम’ ने किया है. नोशन प्रेस चेन्नई से यह छपकर आ रहा है. इसके कवर पृष्ठ पर एक पेंटिंग है जिसे प्रोफेसर संत कुमार श्रीवास्तव ने बनाई हैं. मूल पेंटिंग तो यूएसए की एक संस्था एसीईएस एरिया कोआपरेटिव एजुकेशनल सर्विसेस के पास उपलब्ध है. उन्होंने इसे कवर पृष्ठ के लिए उपलब्ध कराया. बहुत ही बेहतरीन पेंटिंग है. यह बस्तर हाट की पेंटिंग है. छपने के बाद जल्द ही उपन्यास अमेजान और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध हो जायेगा.

  1. प्रश्न:- आपके पसंदीदा रचनाकार कौन-कौन हैं? आपका नाम किन साहित्यकारों के साथ लिया जाये? आपकी क्या इच्छा है?

उत्तर पसंदीदा रचनाकार तो बहुत हैं. सबका नाम दें तो काफी समय लग जाएगा, आजकल जो लिख रहे हैं उनमें से कुछ का नाम दे पाऊंगा. इस उम्र में भी विनोद कुमार शुक्लजी काफी सक्रिय हैं और अच्छा लिख रहे हैं. वे मेरे पसंदीदा हैं. नरेश सक्सेना, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल, विजय कुमार, अरुण कमल मेरे प्रिय हैं. उन्हें पढ़ना, कुछ सीखना होता है. तरुण भटनागर बहुत अच्छी कहानियाँ और उपन्यास लिख रहे हैं उनकी लिखने की शैली मुझे बहुत अच्छी लगती है. सिनीवाली शर्मा अच्छी लिख रही है. छत्तीसगढ़ की बीजापुर से पूनम विश्वकर्मा अच्छी कविताएँ लिख रही हैं. मेरे अनेक समकालीन मित्र बहुत अच्छी कविताएँ, कहानियाँ और उपन्यास लिख रहे हैं. सबकी अपनी अपनी विशेषताएँ होती हैं, किसी साहित्यकार के साथ नाम लिया जाए, यह मैं कैसे कहूँ?

  1. प्रश्न:पुराने रचनाकारों की कृति और आजकल नये रचनाकारों की ‘नयी वाली हिन्दी’ में लिखी कृति को देखकर आपको हिन्दी साहित्य का क्या भविष्य लगता है? पाठक अपने को दो पाटों के बीच फँसा देखता है. आपकी राय क्या है?

उत्तर– समय के साथ-साथ परिवर्तन आता है. वैसे ही साहित्य में भी भाषा शैली विषय को लेकर अनेक परिवर्तन आए हैं. हमें लिखे जा रहे श्रेष्ठ साहित्य को लेकर बात करनी चाहिए. परिवर्तन बहुत अच्छा है और पढ़ने योग्य है. वैसे इस समय काफी लिखा जा रहा है, बहुत कुछ कूड़ा करकट भी इसमें शामिल है इसलिए पढ़ने के लिए पाठक को सजग होकर चुनाव करना होगा और अपनी राय बनानी होगी. भविष्य को लेकर मैं आशान्वित हूं.

  1. प्रश्न:नये रचनाकारों, ग्रामीण, छोटे स्थानों के रचनाकारों को जो अच्छा लिखते परन्तु संसाधन नहीं होने के कारण प्रकाशक गंभीरता से नहीं लेते, उनको आप क्या सलाह देंगे?

उत्तर:– जो अच्छा लेखन कर रहे हैं, श्रेष्ठ लेखन कर रहे हैं, उनके लिए कोई दिक्कत नहीं है. साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं वहाँ वे लगातार छपते हैं और प्रकाशकों के ध्यान में भी आते हैं, जिससे उन्हें कोई दिक्कत नहीं आती. जैसे मैंने बताया कि इस समय काफी कुछ लिखा जा रहा है. कुछ भी लिखने के बाद लोग यह चाहते हैं कि वह प्रकाशित हो तो उन्हें जरूर दिक्कत होती है और यह स्वभाविक है. वरिष्ठ लेखकों की भी एक जवाबदारी बनती है कि यदि कोई लेखक श्रेष्ठ रचना कर रहा हो, अच्छा लिख रहा हो, इसके बावजूद कोई प्रकाशक ध्यान नहीं दे रहे हैं तो वे उनकी मदद करें और प्रकाशकों से उनका परिचय करवावाएँ. यदि ऐसा होता है तो अवश्य ही कुछ दिक्कतें दूर हो जाएंगी. पूर्व के काल में ऐसा हुआ करता था और कई नये लेखक बाद में स्थापित लेखक हुए.

  1. प्रश्न:अभी जो पुस्तक बाज़ार में आने से पहले बेस्ट सेलर होती है, बाद में पाठक उसे नकार देते हैं. बेस्ट सेलर पुस्तक और उत्तम कृति दोनों को आप क्या मानते हैं? पुस्तक बाज़ार के अनुसार लिखी जा रही?

उत्तर– सोशल मीडिया और प्रचार-प्रसार के माध्यम से कई बार ऐसा होता है कि लेखक अपनी किताब को बेस्ट सेलर के रूप में प्रचारित करने लगते हैं. आपका कहना सही है यदि कृति उत्तम है तब ही लोग उसे पसंद करेंगे अन्यथा बाजार में आते ही असलियत का पता लग जाता है. बाजार के अनुसार लिखी जा रही किताबें लेखकों के बीच टिकती नहीं.

  1. प्रश्न:- लेखक की अतिप्रिय कृति को कभी पाठक पसंद नहीं करते. लेखक पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? ऐसी स्थिति में आपके अनुसार लेखक को क्या करना चाहिए?

उत्तर:- कभी-कभी ऐसा होता है कि लेखक की अति प्रिय किताबों को पाठक पसंद नहीं करते. इस समय लेखक को कुछ इंतजार करना चाहिए. समीक्षकों पर भी यह काफी कुछ निर्भर करता है. श्रेष्ठ पुस्तकों को उन्हें सामने लाना चाहिए. ऐसा भी होता है कि लेखक आत्ममुग्धता में अपनी खराब रचना को भी अति प्रिय मानते हैं और चाहते हैं कि पाठक उसे पसंद करें. पाठकों के लिए यहाँ परेशानी होती है.

  1. प्रश्न:आपकी दृष्टि में लेखन में अश्लील गालियों का हूबहू प्रयोग और यौन सम्बन्धों की चर्चा की क्या सीमा होनी चाहिए? साहित्यकार अभी हिंसा और यौन संबंधों वाली रचनाओं की ओर उमड़ पड़े हैं? क्या इसे आप सफलता की सीढ़ी मानते हैं?

उत्तर:- मैं मानता हूं कि सीमा होनी चाहिए. लेखक को स्वयं अपने लिए एक सीमा बनानी चाहिए. अतिरेक कभी भी ठीक नहीं माना जाता और खुलापन मर्यादा के भीतर होनी चाहिए. यह कतई सफलता की सीढ़ी नहीं है. कम से कम मैं तो इसे नहीं मानता.

  1. प्रश्न:- साहित्य समाज का आईना कहलाता है. साहित्य में काल्पनिक की अपेक्षा यथार्थ लेखन ज्यादा सफल होता है जबकि सिनेमा में यथार्थ से ज्यादा काल्पनिक? आज का लेखन सिनेमा से प्रभावित है? आप क्या मानते हैं?

उत्तर:– साहित्य में भी काल्पनिक और यथार्थ का मिश्रण हुआ करता है. काल्पनिक होना कोई बुरा नहीं है. यह भविष्य के लिए रास्ता भी दिखाती है इसलिए साहित्य में काल्पनिक और यथार्थ दोनों की जरूरत होती है. जहाँ तक सिनेमा की बात है साहित्य सिनेमा से प्रभावित है ऐसी कोई बात नहीं है. साहित्य अपनी जगह है और सिनेमा अपनी जगह है.

  1. प्रश्न:आजकल हिन्दी भाषी भी हिन्दी में बात करना पसंद नहीं करते. क्या आप मानते हैं कि हिन्दी भाषा का अस्तित्व संकट में है?

उत्तर: सभी भाषाएं अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं. हिंदी भाषी यदि कोई अन्य भाषा में बात करना चाहे, यह कोई बुरी बात नहीं है. उसे हिंदी भाषा पर गर्व होना चाहिए. हिंदी में बात करते हुए उसे गर्व होना चाहिए. यह जरूरी है. अन्य भाषाओं का वह प्रयोग करें इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. भाषाओं के प्रयोग से हिंदी का अस्तित्व संकट में आ जाएगा, ऐसा कुछ नहीं है.

  1. प्रश्न:आप मानते हैं कि साहित्य में भी गुटबाजी, किसी को नीचा या ऊपर कराने का, जुगाड़ का खेल होता है? दिया जाने वाला पुरस्कार भी इन बातों से प्रभावित होता है?

उत्तर: यह हर स्तर पर होता है. गुटबाजी कहाँ नहीं है, साहित्य में भी है. सच्चे साहित्यकारों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है. साहित्य को लेकर जो पुरस्कार सम्मान किए जा रहे हैं, उसके बारे में मुझे कुछ कहना है. फ़ूहड़-फ़ूहड़ कार्यक्रमों के लिए लोग समाज से काफी पैसे इकट्ठे कर लेते हैं और लाखों रुपए खर्च कर देते हैं जबकि साहित्य में पुरस्कार के नाम पर शाल, श्रीफल से ही काम चलाना होता है. कुछ रुपए जिसे सम्मानजनक नहीं कहा जा सकता, देकर साहित्यकारों का सम्मान किया जाता है. बाजार में हर वस्तुओं की कीमत बढ़ी है, कर्मचारियों के वेतन हैं या मजदूरों की मजदूरी, सब में इजाफा हुआ है, बस साहित्यकार रह गए हैं. उनकी सम्मान राशि कोई निर्धारित नहीं है. शीर्ष के सम्मान के लिए भी राशि में बढ़ोतरी होनी चाहिए. इस सब के ठीक होने के लिए ना तो सरकार ध्यान देगी और ना ही जनता. साहित्यकारों को कुछ तय करना चाहिए.

  1. प्रश्न:सोशल मिडिया का लेखन और लेखक पर क्या प्रभाव पड़ा है? ऑनलाइन और लाइव आना कहाँ तक हितकारी है? मोबाईल युग आने से हिन्दी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है?

उत्तर– सोशल मीडिया का लेखन और लेखक पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है, बल्कि साहित्य का इससे प्रचार प्रसार ही हुआ है. सोशल मीडिया का और अच्छा उपयोग किया जा सकता है. लेखक को सतर्क होना चाहिए और अपना श्रेष्ठ ही सोशल मीडिया पर डालना चाहिए. ऑनलाइन या लाइव में आना यह अच्छी बात है इससे लोगों को लाभ ही हुआ है.

  1. प्रश्न:साहित्य जीवन यापन का साधन नहीं रह गया है. साहित्य में अपना भविष्य तलाश रहे नयी पीढ़ी के रचनाकारों, नये रचनाकारों के बारे में आपके क्या विचार हैं? आप उन्हें क्या सलाह देंगे?

उत्तर– साहित्यकार एकजुट हों, संगठित हों और समाज और सरकार को बताएं कि उनके लिए वे जरूरी हैं. नये रचनाकार अपनी रचनाओं के लिए सतर्क और सजग हों. अभ्यास की रचनाओं को अलग रखें, उनका प्रकाशन ना करवाएं. उन पर काम किया जाए. जब योग्य हो जाये तभी उसका प्रकाशन किया जाए. मलयजी कहते हैं की साँस लेने की तरह कविताएँ लिखो लेकिन उन्हें अलग रख दो और निर्मम होकर उसमें श्रेष्ठ का चयन करो. शेष कविताओं को खारिज कर दो.

विभूति बी. झा बहुत बहुत धन्यवाद. आपको आने वाली पुस्तकों हेतु शुभकामनाएँ.

इनकी पुस्तकें:-

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बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.