सोमा आनंद गुप्ताजी की लिखी “भावों का चितेरा” कविता संग्रह में उन्होंने अलग-अलग विषयों पर बेबाकी से अपनी राय रखी है। इस पुस्तक में 65 कविताएँ हैं और सभी कविताएँ अलग-अलग विधा की हैं। माँ, बहन, मौसी, घर, समाज, देश, कारगिल युद्ध, सैनिक, युवा, पर्यावरण और आपसी संबंधों के साथ ज्यादातर प्रेम की कविताएँ हैं। मुझे लगता है कि कवयित्री के मन में जिस दिन जो भाव आया उसे शब्दों में पिरो दिया। पढ़ने में कविताएँ अच्छी बन पड़ी हैं हालाँकि अनेक जगह कुछ हिन्दी और उर्दू शब्दों का प्रयोग अनुपयुक्त है। कविता सोचने मात्र से लोग अपेक्षा करने लगते हैं कि जिसमें क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग हो या ऐसे शब्द जो आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त नहीं होते हैं उनसे ही कविताएं लिखी जा सकती हैं या बहुत भारी शब्द जिसके लिए आपको डिक्शनरी खोलना पड़े, के प्रयोग से ही अच्छी कविता होगी। ऐसा नहीं है। मैं कहूँगा कि उन्होंने अपनी रचनाओं को इस संग्रह में सामान्य रूप में रखा है, बिना किसी लाग-लपेट के या बिना किसी व्याकरणीय व्यवस्था के। पुस्तक का नाम बहुत ही सटीक है ‘भावों का चितेरा’। जिस दिन जो भाव मन में आया उसको उन्होंने कलमबंद कर दिया। रचनाएँ शुद्धि और अशुद्धि के बीच आपको नहीं उलझाती हैं, आगे बढ़ा ले जाती हैं। पुस्तक की शुरुआत तो कहीं से होगी। मैं इस पुस्तक के लिए सोमा आनंद गुप्ताजी को बधाई देता हूँ।
कुछ कविताएँ आपके हृदयतल को छू लेंगी और आप उन पंक्तियों को पुनः पढ़ना चाहेंगे। ऐसी कुछ पंक्तियों को मैं आपके सामने रख रहा हूँ।
पुस्तक की सबसे पहली लाइन कमाल की है-
“जिंदगी को कुछ इस तरह आसान किया मैंने,
कुछ से मांगी माफी कुछ को माफ किया मैंने।”
एक जगह वह लिखती हैं
‘ईश्वर की यह रचना अजीब है,
कोई अमीर तो कोई गरीब है,
यह कुछ और नहीं,
बस अपना अपना नसीब है।’
भिखारी कविता में लिखती हैं कि
‘मन में शोर समंदर सा है,
बोझ ह्रदय पर गिरी सा भारी,
तीन पहिए की टूटी गाड़ी,
चला रहा था एक भिखारी।’
फुहार कविता में पति-पत्नी के संबंधों पर बहुत ही सुंदर कविता है। नायिका कहती है कि
“बैठी दर्पण के सामने अपनी बिखरी छटा संवारने,
कजरा, गजरा, कंगना और बिंदिया से,
किया सोलह श्रृंगार।
क्योंकि बूंदों की प्यासी, सूनी धरती पर,
बरसने वाली थी रिमझिम फुहार।”
क्या लिखूँ कविता में वे लिखती हैं-
‘सोच रही हूँ कुछ लिखूँ पर क्या लिखूँ
कैसे लिखूँ, खुद को लिखूँ तुमको लिखूं?’
रिश्तों पर उनकी यथार्थ पंक्तियाँ देखें कि
‘अपनेपन का दंभ सर्वदा मैं भरती रही,
मेरे अपने हैं सब इस भ्रम में पलती रही।’
जिंदगी कविता में लिखती हैं कि
‘मौकापरस्त हैं लोग इस निढ़ाल सी जिंदगी के,
खुद परेशान हैं जिंदगी,
इस बेजान सी जिंदगी से।’
सैनिक की पत्नी कविता में वह सैनिक की पत्नी का मनोभाव इस प्रकार लिखती हैं।
“मैं सैनिक की पत्नी, उम्मीदों और आकांक्षाओं की,
तज लाल चुनर घर पर आई,
बन प्रेरणास्रोत अपने प्रिय का,
साथ दे हिम्मत बढ़ाई तुम मान हो,
अभिमान हो, इस मातृभूमि की शान हो,
अडिग रहना प्रिय अपने कर्म पथ पर,
विचलित न होना कि,
हूँ अकेली मैं घर पर।”
हमारी जिंदगी के बारे में उन्होंने दोहरी जिंदगी कविता में चार लाइनें लिखी हैं।
“अक्स अपना जब देखती अब आईने में,
बदली बदली सी नजर आने लगी हूँ मैं,
सफर लंबा है तय किया औरों के लिए,
अब अपने सफर पर चलना चाहती हूँ मैं।”
एक विक्षिप्त महिला के बारे में उनके शब्द –
‘आज देखी एक नारी, फटी पुरानी मैली साड़ी,
चिथड़ों से झाँकती थी, बेबस लज्जा बेचारी।”
दर्पण कविता में उनकी पंक्तियाँ देखें कि
‘मैं दर्पण छाया हूँ तेरी,
नारी तन सी काया मेरी,
रूप कठोर ऊपर से मेरा,
मुझ में निहित अस्तित्व है तेरा।’
दर्पण ने अपनी तुलना नारी से की है।
युवा वर्ग पर मंजिल कविता में वे लिखती हैं कि
‘पूरा करना है अधूरा सपना,
सफर लंबा है तय करना,
रुकावटें चाहे जितनी भी हो बाधाओं से नहीं डरना।’
इस पुस्तक का प्रकाशन सन्मति पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने किया है। पुस्तक का मूल्य ₹150 है। कुल मिलाकर मेरी नजर में यह कविता संग्रह वाकई भावों का चितेरा है और सोमा आनंद जी बधाई के पात्र हैं।

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.