काव्य संग्रह “समय वाचाल है” रचयिता श्री देवांशु कुमार झा पर:-
मैं बताना चाहता हूँ कि अपने विद्यार्थी जीवन में अनेक कविताओं की किताबें (हरिवंश राय बच्चन से लेकर हास्य कवि अशोक चक्रधर तक) मैंने खरीदकर पढ़ीं हैं. कुछ वर्ष पहले बड़े शायरों की लिखी कुछ ग़ज़लों की किताबें भी खरीद कर पढ़ीं. सैकड़ों पुस्तकें लोहे की अधनंगी चार महल की क्यारियों में इस आस में रखकर अपने स्थानांतरण पर साथ लिए फिरता हूँ कि मेरी अगली पीढ़ी कभी तो पलट कर देखेंगी मगर कोई उम्मीद नहीं दिखती. कांच से दिखती “राग दरबारी” को दिखाकर बेटे ने पौन साइज़ के पेंट पहने अपने क्रिकेटिया मित्र को एक दिन बताया था कि इस आलमारी की सभी किताबें पापा की हैं, मैं नहीं खोलता. उसी क्षण अनेक जगह से चटक गया था मैं. लेकिन इस उम्मीद में हूँ कि कभी तो पलट कर देखेगा. हाल के दिनों में कोई कविता संग्रह नहीं खरीदी. लोग इसे पैसे की बर्बादी, पूरी समझ में आती नहीं, पढ़कर कौन टेंसन ले कहने लगे हैं और इसे आजकल अच्छी नज़रों से भी नहीं देखी जाती. बहुत दिनों के बाद कविता संग्रह खरीद कर पढ़ी है. कोई अपना जब लिखता है तो गर्व से पढ़ना आत्मीय सुख देता है, ये कोई और नहीं समझ सकता.
काव्य संग्रह “ समय वाचाल है” अभी समाप्त किया है. कथ्य और शिल्प की दृष्टि से पूरे काव्य संग्रह को देखने से लगता है कि अलग अलग मनः स्थिति में लिखी गयी यह पत्थर की एक ऐसी इमारत है जिसमें किसी गिलावा का प्रयोग नहीं है सिर्फ अलग अलग कोण, रंग, आकार के शिलाओं को एक के ऊपर एक रखकर बनाई गयी है. पढ़ते हुए अलग अलग मनः स्थिति बनती है. कभी गाँव, स्कूल, माँ और अचानक राजनीति, देशभक्ति. कुल मिलाकर एक ऐसी माला जिसमें मोगरा के फूल से लेकर धतूरा तक हैं. कुछ शब्द मेरी समझ से परे हैं और मैंने समझने का प्रयास भी नहीं किया कारण कि मैं टेंसन लेकर पढ़ना नहीं चाहता. कुछेक रचना जो ग्राम्य जीवन की हैं दिल को बहुत छूती हैं. फिल्मी भाषा में कहूं तो इसमें एक्शन, ड्रामा, फाइट, आर्ट फिल्म की झलक है परन्तु रोमांस नगण्य है. लोग हर जगह यही खोजते हैं. मुझे आजतक ये समझ में नहीं आया कि “लौलिता” को किस बात के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था. शायद मैं अज्ञानी हूँ.
“समय वाचाल है” में निजी जीवन को केंद्र में रखकर लिखी गयी अनेक कवितायेँ हैं जैसे “घर”, “गाँव”, “पाठशाला”, “लट्टू का डूबना” इत्यादि. ये कवितायेँ उन सभी के आँखों के सामने साक्षात चलचित्र की तरह दिख सकती हैं जिन्होंने इनके (लेखक के) साथ अपना बचपन बिताया है. पुस्तक को दूसरी बार पलट कर ढूंढ रहा था कि कहीं गुल्ली, बम्पिटटो, कपड़े के गेंद वाली क्रिकेट, आर्केस्ट्रा का गाना, नाटक और और और कुछ मिल जाये. पहली पुस्तक में ही सब कुछ. नहीं इतनी उम्मीद ज्यादती होगी. आगे आयेगा बहुत कुछ जो अभी नहीं आया है. शीर्षक “निर्वासित पिता” में जब लिखते हैं “मेरे पिता न उन रद्दियों को छोड़ना चाहते थे न कभी अपना घर” तेज़ टीस मारती हैं. “मां नाहक परेशान होती हैं” बूढ़ी मां के स्वभाव की अनमोल प्रस्तुति है. अनेक बार पढ़ने को जी चाहता है. “शहीद की नेत्रहीन विधवा” जहाँ दिल को छूतीं हैं वहीँ पत्रकारिता को रौंदती टी आर पी की रेस पर करारा प्रहार हैं ये पंक्तियाँ “फिर पत्रकार दौड़ेगा दूर दराज का गाँव, ठूस देगा शहीद के बाप के मुंह में माइक”. सौ कविताओं का पहला काव्य संग्रह या यूं कहूं कि पहले ही मैच में शतक मार दिया है तो ज्यादा नहीं होगा.
मेरी नजर में जिन लोगों ने अपना बचपन गाँव में बिताया है उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिये. मैं पुनः बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं देता हूँ.