आज रश्मि रविजाजी की लिखी  “काँच के शामियाने” उपन्यास को पढ़कर समाप्त किया। इस उपन्यास को हिंद युग्म पब्लिकेशन ने मूल्य रुपये 140 रखकर प्रकाशित किया है।
सर्वप्रथम इस उपन्यास के लिए मैं रश्मि रविजाजी को बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ। उन्होंने एक औरत के संघर्ष की कहानी को, एक ज्वलंत प्रश्न को उपन्यास के माध्यम से समाज के सामने रखा है। एक औरत सम्मिलित परिवार वाले ससुराल में सभी के द्वारा पसन्द ना किये जाने को सह लेगी लेकिन यदि पति ही गलत व्यवहार करे तो कैसे झेलेगी? आनंद बख़्शी का लिखा अमर प्रेम फ़िल्म का गाना याद आता है कि ‘चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये, सावन जो आग लगाये तो उसे कौन बुझाये।’
यह उपन्यास एक बिहारी परिवार के स्थानीय भाषा में कहे गये संवादों के बीच यथार्थ का चित्रण है।
एक महिला पूरे ससुराल और खासकर अपने पति के दुर्व्यवहार से परेशान होकर ठोस निर्णय लेते हुए अपने तीन छोटे बच्चों के साथ घर से निकलती है। अपने मायके का सहयोग लेती है। हर  मुश्किल से जूझते, प्रत्येक समस्या से लड़ते अपने तीनों बच्चों को पढ़ा लिखा कर जीवन में सफल बनाती है और स्वयं भी सफल होती है।
कहानी फ़िल्म के फ्लैश बैक की तरह साहित्य में राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने की खबर पर बधाइयों से शुरू होती है। अब नायिका को अपना अभी तक का बीता जीवन याद आता है।
 कथा नायिका ‘जया’ की कहानी है जिसे कविताएँ लिखने और साहित्य से बहुत लगाव है। बी ए में अध्ययनरत जया अपने दो बड़े भाईयों और दो बहनों में सबसे छोटी और पूरे परिवार की चहेती है। दोनों भाई कहीं अन्यत्र काम करते हैं। बड़ी बहन और जीजा से भी सबके अच्छे संबंध हैं। एक सामान्य खुशहाल परिवार। अचानक उसके पिता की मृत्यु हो जाती है। वह अपनी माँ के साथ पिता के बनाये घर पर रहने आ जाती है। राजीव नाम का एक लड़का जया की सुन्दरता के पीछे पड़ जाता है कि मुझे तुमसे ब्याह करना है। यह उस लड़के को नहीं जानती और अभी विवाह करना नहीं चाहती क्योंकि इसे आगे पढ़ना है, खुद से कुछ बनना है। राजीव ज़िद कर अपनी माँ को जया की माँ के पास विवाह प्रस्ताव लेकर  भेजता है। अब जया का पूरा परिवार जया का विवाह अच्छा घर, क्लर्क की नौकरी, खुद चलकर आया रिश्ता और बिन पिता की बेटी का हवाला दे, मानसिक दवाब बना, यथासाध्य दहेज देकर राजीव से करवा देता है।
मूल संघर्ष की कथा अब प्रारम्भ होती है। बहुत ज्यादा दहेज की अपेक्षा में उसके साथ दुर्व्यवहार होता है। उसके मायके को गरीब और असहाय समझा जाता है। यहाँ तक तो शायद वह बर्दाश्त कर लेती लेकिन मूल समस्या परिवार के अन्य लोगों से ज्यादा उसके पति राजीव के व्यवहार से होती है। शुरू से ही उसका व्यवहार जया के प्रतिअपेक्षा के मुताबिक दहेज ना मिलने के कारण अच्छा नहीं था। फिर प्रेम कहाँ गया?  अपनी माँ को उसने क्यों भेजा था? प्रेम और दहेज दोनों साथ साथ?  विवाह के समय वो क्लर्क की नौकरी में था। अब उसने बीपीएससी( राज्य सेवा आयोग) कर लिया है। अब वो नयी हैसियत की नयी पत्नी चाहता है। उसका व्यवहार अपनी पत्नी के प्रति दिनों दिन क्रूर होता जाता है। घरेलू हिंसा के अनेक उदाहरण समाज में देखने को मिलते हैं जिसमें परिवार परेशान करता है और पति की मौन सहमति रहती है लेकिन इस कहानी में पति ही उसे बार-बार मारता- पीटता है और परिवार के लोग चुप रहते हैं, शायद डिप्टी कमिश्नर बनने का कमाल है। राजीव इतना कठोर है कि जब उसे अपनी पत्नी के गर्भवती होने की खबर मिलती है तो वह इस अंदाज में पत्नी को मारता है कि उसका होने वाला बच्चा ना बचे। जया सब सहती रहती है। असह्य होने पर जया बीच बीच में पुलिस की मदद भी लेती है। पुलिस के सामने पूरा परिवार अच्छा व्यवहार करता है और पीछे बहुत बुरा। शारीरिक और मानसिक दुःख झेलते जया दो पुत्र और एक पुत्री की माँ बन जाती है। बच्चों के प्रति राजीव का हिंसक और गलत व्यवहार उसे घर छोड़ने पर मजबूर कर देता है। वो मायके की मदद से स्वतंत्र जीवन जीने लगती है। कानूनी मदद ले राजीव से गुजारा भी लेती है। जहाँ जहाँ वो काम करती है वहाँ राजीव उसकी नौकरी समाप्त करवा बहुत परेशान करता रहता है। अनेक जगह काम कर, कविताएँ लिख, राजीव से गुजारा भत्ता ले, जैसे तैसे  एक दिन वो अपने तीनों बच्चों को लायक बनाती है। कविताओं से लगाव उसे शुरू से था। जया की रचनाओं का संग्रह प्रकाशित होता है और उसे इसके लिये राष्ट्रीय पुरस्कार मिलता है। कहानी एक सुखद अंत पर समाप्त होती है। पाठक यह जानना चाहता है कि राजीव का क्या हुआ। अंत में राजीव जया को तंज अंदाज में कहता है कि आज जया जो भी है वह उसके (राजीव के) परेशान करने की वजह से है। निर्लज्जता की पराकाष्ठा है।
पूरी कहानी के संवाद यथार्थ लगते हैं। आज भी अनेक जया अपने समाज में हैं। हाल ही में मेरे मित्र Sarvesh Singh  सर्वेशजी ने पटना का एक वीडियो  फेसबुक पर पोस्ट किया था जिसमें पिता बेरहमी से अपनी पुत्री को मारता है।
जया के संघर्ष, उड़ते उपहास और अपमान सहते हुए अपने बच्चों का पालन पोषण करने का चित्रण बहुत ही उम्दा है। लोगों के ताने कि सुन्दर है, पति से पैसे लेती है, पति साथ नहीं रहता, कुछ करना नहीं पड़ता, सुनकर भी जेवर बेच- बेच कर अपने बच्चों का भविष्य बनाना अनेक महिलाओं के लिये सीख है। जया ने इतनी मुसीबतों के बावजूद हिम्मत नहीं हारी। जया जैसी महिलाओं के इस जज्बे को सलाम करना चाहिए।
मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में एक आई ए एस की पत्नी को खुली जिप्सी पर अस्सी की स्पीड में पटना के बेली रोड पर  गाड़ी चलाते देखा है। उन्तीस दिनों की मौज जो हर कोई जीना चाहे लेकिन एक तीसवें दिन साहेब इतनी कृपा बरसाते कि चेहरे और बदन पर पड़े स्याह निशान सब कुछ बयां कर देते।
प्यार की रौशनाई में लहू का आलिंगन मदहोश नहीं खामोश कर देता है।
यह उपन्यास भी आपको खामोश और सोचने पर विवश कर देगा। असत्य पर सत्य की संघर्षपूर्ण विजय है। रविजाजी को मैं इस बात के लिये धन्यवाद देता हूँ कि इस पुस्तक में गालियों का प्रयोग बिल्कुल नहीं है। प्रत्येक प्रताड़ना में आसानी से अश्लील गाली ठूँसने का पूरा स्थान रहते हुए भी शालीनता से  कथा आगे बढ़ती है। अनेक संवाद आपके दिल को छू लेंगे। जया जब पहली बार माँ बनने वाली होती है तो लेखिका के लिखने का अंदाज देखें।
‘एक दिन इसी घृणारूपी कीच में एक कोंपल खिलने का आभास हुआ और मन आह्लाद से भर गया।’
कुल मिलाकर एक बढ़िया उपन्यास पूरे परिवार को पढ़ने योग्य है।
मेरी नजर में एक नकारात्मक पहलू भी है। पूरी दुनियाँ में बिहारी सबसे मेहनती और दिमागवाले माने जाते हैं लेकिन इन्हें बहुत जल्द हिंसक होनेवाला प्राणी भी माना जाता है। अनेक जगह बिहारी को बात बात में झगड़ा करने वाला, हत्यारा, फिरौती माँगने वाला, नियम तोड़कर जीने वाला माना जाता है। साहित्य समाज का आईना होता है। यह पुस्तक इस मिथक को और समृद्ध करती है तथापि पुस्तक बहुत ही मेहनत, सूझबूझ और जीवन की बारीकियों को उभारते हुए एक बड़ी समस्या का समाधान सहित वर्णन कर लिखी गयी है अतः ताली तो बनती ही है।
आप इसी तरह लिखती रहें। बहुत बहुत धन्यवाद।

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.