सर्वप्रथम मैं प्रांजल सक्सेनाजी को “महानपुर के नेता” पुस्तक हेतु बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ। पुस्तक को आकर्षक कवर में हिंदयुग्म प्रकाशन ने मूल्य ₹175 या $10 रखकर प्रकाशित किया है।  एक शांतिप्रिय, खुशहाल गाँव राजनीति में पड़कर अपना सब नष्ट कर लेता है। इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने राजनीति में चुनाव जीतने के लिए जितने भी हथकंडे अपनाए जाते हैं उन सभी हथकंडों को बहुत ही हास्य तरीके से विस्तार में बताकर  व्यंग्य किया है। पुस्तक को बहुत ही गंभीरता से पढ़ने पर ही  अंदर के व्यंग्य या तंज को समझा जा सकता है। सामान्य रूप से पढ़ने पर आपको नीरस लगेगा। पुस्तक का विस्तार ही इसकी सबसे बड़ी खामी है। आगे क्या हुआ जानने के लिए पाठक उत्सुक है लेकिन पात्र को संवाद करने की जल्दी नहीं है। प्रत्येक चार पेज बाद एक नया पात्र आ जाता है। इतने पात्र हो जाते हैं कि  पाठक के लिए याद रखना मुश्किल हो जाता है। लेखक के लिए भी 288 पेज का  उपन्यास लिखना बहुत आसान नहीं रहा होगा। इस पुस्तक में एक महानपुर गाँव की कहानी है जो वाकई महान है।  गाँव में सत्य, भाईचारा,  इमानदारी और आपसी मेलजोल का वातावरण है। चुनाव में जाने को ग्रामीण तैयार नहीं हैं लेकिन धीरे धीरे प्रधान बनने की चाहत में अनेक नयी चीजें की जातीं हैं। वो सब काम जो चुनाव के समय होता है जैसे- निजी लाभ का लालच, झूठे वादे, धर्म की राजनीति, जातिवाद इत्यादि उगाए जाते हैं। नामांकन भरने से लेकर रिजल्ट आने तक की गतिविधियों का व्यापक वर्णन है।  रेडियो, साइकिल की लालच, नशा कराना, कभी पूरा नहीं होने वाले चुनावी वायदे, एक दूसरे को धोखा देना और चुनाव से एक दिन पहले नाच दिखाना यानी वोटर को लुभाने का हर प्रयास दोनों प्रत्यशियों द्वारा किया जाता है। अंतिम दिन फैसला अनायास ऐसा कुछ अलग आ जाता है जो पाठक कभी सोच ही नहीं सकता। कहानी का अंत रोचक है। वर्णन का तरीका ठीक है लेकिन कथा की गति इतनी धीमी है कि पाठक बोर होने लगता है। और बेहतर शिल्प की अपेक्षा थी। पुस्तक में कुछ बातें साहित्यिक दृष्टि से अच्छी दिखती हैं लेकिन ये इतनी दूर -दूर हैं कि पाठक भूल  जाता है। 288 पेज के बदले अगर 144 पेज में यह पुस्तक होती तो बेहतर होता। सघनता का अभाव बहुत खलता है। मूल्य भी जब विदेश में 10 डॉलर है तो भारतीयों के लिए कम होनी चाहिये थी। ऐसा भी नहीं है कि पुस्तक में सब खराब ही है। लेखक पात्र का चरित्र और आचरण स्थापित करने में सफल है। पुस्तक पढ़ते वक्त बार बार आपको श्रीलाल शुक्लजी की ‘राग दरबारी’ की याद आयेगी। कुछ पंक्तियाँ भी अपनी जगह पर अच्छी बन पड़ी हैं। जैसे-  ‘पंक्चर टायर में कितनी भी हवा फूँको वो बाहर की ओर ही भागेगी।’ ‘झमरुआ को संगीत से इतना लगाव था कि उसे पता ही नहीं चला कि कब बिन बिहाए ही गाँव के बच्चे उसे ताऊ कहने लगे।”जब वादे पूरे नहीं होते तब जनता में असंतोष की वृद्धि होती है। असंतोष से नए नेता पैदा होते हैं और इस प्रकार राजनीति का यह क्रम चलता रहता है।” प्रेम की बातों पर झेप जाना आम भारतीय संस्कृति है जिसका विकराल रूप गाँव में दिखता है।” पत्नी के हाथ का हलवा जिसे मिल जाए समझो उसकी जिंदगी तर जाए।’ ‘आदमी तो भैंसों का गोबर उठाने तक से रह गया क्योंकि गोबर वाले हाथों से कान में उँगली कोई करेगा नहीं।” ‘वे बैलगाड़ी से वैसे ही सहज थे जैसे कि बुढ़ापा आने पर व्यक्ति सफेद बालों से सहज होता है।” उसने एक दिन पूर्व अनाप-शनाप खाया था जिसका साक्ष्य वह शौचालय था जिसमें उसने शौच की हैट्रिक बनाई थी।’  ‘नामांकन प्रपत्र लेने वाले अधिकारी ने  नेता से माला उतारने को कहा ताकि फोटो से चेहरे का मिलान कर सके।’ यह पुस्तक एक बार अवश्य पढ़ें।लेखक के पास बहुत साहित्य है। आगे की पुस्तक में दिखेगी, ऐसी अपेक्षा है। अंत में सक्सेनाजी को पुनः बधाई और भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ।

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.