दर्जन भर प्रश्न” और श्रीमती सिनीवाली के उत्तर

परिचय:-
नाम- सिनीवाली
शिक्षा – स्नातकोत्तर (मनोविज्ञान में), सुंदरवती महिला महाविद्यालय, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय. रेडियो प्रसारण में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
पारिवारिक जानकारी :- पिता- डॉ अंजनी कुमार राय, अवकाश प्राप्त प्रोफेसर (हिंदी), टी एन बी कॉलेज, भागलपुर.
पति- वरिष्ठ पत्रकार.
दादा- आचार्य शिवबालक राय, आलोचना जगत में दिनकर जी की रचनाओं के प्रथम आलोचक
दादाजी की पुस्तकें और योगदान-

  1. दिनकर, साहित्य के सिद्धांत और कुरुक्षेत्र
  2. कालिदास के सौन्दर्य सिद्धांत और कुरुक्षेत्र
  3. काव्य में सौंदर्य और उदात्त तत्व
  4. वाल्मीकि रामायण :काव्यानुशीलन
  5. मानस का रुपविज्ञान एवं मौलिकता
  6. भक्ति काव्य का सौंदर्य शास्त्र

शिक्षा के प्रचार-प्रसार में योगदान, साहेबगंज कालेज (झारखंड) के निर्माण में योगदान
सिद्धू कानू, बड़हरवा कालेज के निर्माण में योगदान, कई विद्यालयों के निर्माण में योगदान
वीर कुंवर सिंह जयंती का प्रारंभ.
कार्यक्षेत्र– स्वतंत्र लेखन.
लेखन की अन्य जानकारी- “हंस अकेला रोया” कहानी संग्रह 2016 में प्रकाशित.
“गुलाबी नदी की मछलियाँ” 2021 में प्रकाशित,
सगुनिया काकी की खरी खरी व्यंग्य संग्रह नोटनल पर उपलब्ध,
ग्रामीण कहानियों पर केंद्रित एक कहानी संग्रह का संपादन (शीघ्र प्रकाशित)
वर्तमान में उपन्यास लेखन
सम्पर्क- [email protected]

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दर्जन भर प्रश्न

श्रीमती सिनीवाली से माधुरी विभूति झा के “दर्जन भर प्रश्न” और श्रीमती सिनीवाली के उत्तर:-

  1. प्रश्न:-नमस्कार। सर्वप्रथम आपको आपकी दोनों पुस्तकों “हंस अकेला रोया” और “गुलाबी नदी की मछलियाँ” की सफलता की बधाई, शुभकामनायें। आपकी कहानी ‘इत्रदान’ काफी चर्चित रही. पाठकों की इतनी अच्छी प्रतिक्रियाओं पर आप क्या कहेंगी?

उत्तर:- माधुरी विभूति झाजी, आपका हार्दिक धन्यवाद। आपने मुझे इस साक्षात्कार के माध्यम से अपनी बात कहने का अवसर दिया। पाठकों की प्रतिक्रियाएँ रचनाकार को प्रेरित करती हैं। इत्रदान’ कहानी अवली’ में प्रकाशित हुई। जहाँ तक मैं समझती हूँ, पाठक उस रचना से अधिक निकटता महसूस करते हैं जिसमें उनका जीवन स्पंदित होता है। मेरी अधिकतर कहानियाँ किसान एवं ग्रामीण जीवन को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। हमारे देश का बड़ा हिस्सा अब भी कृषि एवं गाँव से किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ है, इसलिए उन्हें इत्रदान’ कहानी अपनी सी लगी।
पाठकों की प्रतिक्रियाएँ निष्पक्ष होती हैं जो लेखक में नयी ऊर्जा का संचार करता है। अवली के माध्यम से मेरी कहानी को बड़ा पाठक वर्ग मिला। यह मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। मैं अवली के संपादक विभूतिजी को हार्दिक धन्यवाद देती हूँ।

  1. प्रश्न: – आपके साहित्य के पसंदीदा रचनाकार कौन-कौन हैं? आपका नाम किन साहित्यकारों के साथ लिया जाए? आपकी क्या इच्छा है?

उत्तर:- आपके एक प्रश्न में दो प्रश्न सन्निहित हैं। पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए मैं कहूँगी कि मुझे जितनी वाल्मीकि और कालिदास की रचनाएँ प्रिय हैं, उतने ही प्रिय मुझे गालिब हैं। दिनकर, रेणु, प्रेमचंद, आशापूर्णा देवी, शरदचंद, दोस्तोवस्की आदि कई नाम मुझे प्रिय हैं। कुछ नामों को लेना बेहद मुश्किल है। मैं नये और पुराने सभी रचनाकारों को पढ़ती हूँ।
दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए मैं यह कहना चाहूँगी कि यह पाठकों के ऊपर निर्भर करता है वे लेखक को किस नाम के साथ रखना पसंद करते हैं। जहाँ तक मेरी इच्छा की बात है, मैं सिनीवाली बनना ही पसंद करूँगी‌।

  1. प्रश्न:- सिनीवालीजी साहित्यकार कैसे बनीं?  इस साहित्यिक यात्रा में कहाँ-कहाँ कौन से पड़ाव आये? सिनीवालीजी के जीवन में लेखन का क्या स्थान है?

उत्तर:- मेरा पारिवारिक माहौल साहित्यिक रहा है।  दादाजी एवं पिताजी के पठन-पाठन से जुड़े होने के कारण साहित्य से स्वाभाविक लगाव हुआ। उनके रचना कर्म को बहुत नजदीक से देखा तथा सीखा। परंतु उस समय मुझे यह नहीं पता था कि मैं भविष्य में लेखिका बनूँगी। हाँ ऐसा जरूर है कि मेरे भीतर शुरू से ही ऐसा कुछ था जो मुझे नौकरी की समय सीमा में बंधने से रोकता था। मेरा मन कहता था कि मेरा समय किसी अन्य कार्यों के लिए है। लेकिन वह काम क्या होगा, यह बहुत अधिक स्पष्ट नहीं था। कभी लेखक बनने का ख्याल आता भी था तो थोड़ी देर में गायब हो जाता था। लेकिन मैं एक बेचैनी के साथ अनवरत जूझती रही।
शादी के बाद एक घटना ने मुझे लेखन से जोड़ दिया। एक बार जब मैं गाँव में थी, लगातार कई दिनों तक बारिश होती रही और खलिहान में ही फसलें सड़ गईं जो बस कुछ दिनों में तैयार होकर किसानों के घर जाने वाली थीं। ठीक यही घटना मैंने स्कूल के दिनों में भी अपने गाँव में देखी थी। किसानों की इस पीड़ा ने मुझे लेखन से जोड़ दिया इसलिए मेरे लेखन के केंद्र में अधिकतर किसान तथा ग्रामीण समाज होता है। हालाँकि, मैंने शहरी जीवन पर भी कहानियाँ लिखी हैं लेकिन अभी मैं जिस उपन्यास पर काम कर रही हूँ, मैंने अभी तक जो लिखा है, वह उससे बिल्कुल अलग अंदाज का होगा।
जहाँ तक पड़ाव की बात है तो मैं मानती हूँ कि अभी तो यात्रा शुरू ही हुई है।
“आसमां बड़ा है, धरती भी कुछ कम नहीं।
नन्हें पाँव मेरे, हौसलों पर सवार हैं।”
यह यात्रा जारी रहे, यही कामना है। लेखन का मेरे जीवन में क्या स्थान है, इस प्रश्न का उत्तर प्रारंभ में दिए गए उत्तर से ही स्पष्ट है।

  1. प्रश्न:-आपकी कहानियों के ज्यादातर पात्र ग्रामीण क्षेत्र की महिलायें, उनकी सोच, रहन-सहन से संबंधित होते हैं। आपकी कहानियों के पात्र अमीर नहीं होते। क्या आप दर्द, धोखा, बुजुर्ग और असंतोष को लेखन का स्रोत मानती हैं या सामाजिक सरोकारों को? आपकी दृष्टि में काल्पनिक कथा और वास्तविक जीवन में घटित कथाओं में ज्यादा प्रभावशाली क्या है?

उत्तर:- किसी शांत तालाब में पत्थर फेंकें तो तरंग उठती है। वही स्थिति समाज की है। जब कोई घटना घटती है तो वह समाज को उद्वेलित करती है। यह उद्वेलन किसको, कहाँ तक, किस स्तर तक उद्दिपित करता है, वह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। लेखक अपने समय और समाज से अपने पात्रों को जन्म देता है। सामाजिक सरोकारों को मैं लेखन का स्रोत मानती हूँ। जहाँ तक काल्पनिक कथा और वास्तविक घटनाओं- दोनों में कौन अधिक प्रभावशाली है। इस संबंध में अपना-अपना दृष्टिकोण हो सकता है। देवकी नंदन खत्री का उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ और कालिदास का ‘मेघदूत’ कल्पना का श्रेष्ठ उदाहरण है तो प्रेमचंद, निराला की रचनाएँ हमारे समाज का यथार्थ हैं। दोनों का अपनी-अपनी जगह महत्व है। अंततोगत्वा बात कलम की धार की है कि वह पाठक को किस तरह और कहाँ तक प्रभावित और उद्वेलित करती है।

  1. प्रश्न:- साहित्य समाज का आईना होता है।अनेक रचनाकार समस्या उभार देना ही कथा की इतिश्री मानते हैं। उनके अनुसार रचनाकार समाज सुधारक नहीं होते हैं। आपकी दृष्टि में कहानी के द्वारा सिर्फ एक समस्या समाज को बता देना काफी है या फिर कहानी में उसके निवारण की ओर इशारा करना भी आवश्यक मानती हैं? कथा का मूल भाव क्या हो?

उत्तर-  मैं आपके इस सवाल का जवाब चेखव की पंक्तियों से देना चाहूँगी।
अन्ना कारेनिना के बारे में उन्होंने लिखा था —
“आप यह माँग करने में सही हैं कि एक कलाकार को अपने काम के लिए बुद्धिमान रवैया रखना चाहिए, लेकिन आप दो बातों को भ्रमित करते हैं।
एक – समस्या को हल करना,  दूसरा – समस्या को सही तरीके से बताना।“
यह केवल दूसरा है जो कलाकार के लिए अनिवार्य है। अन्ना कारेनिना में एक भी समस्या हल नहीं होती लेकिन वह आपको पूरी तरह से संतुष्ट करते हैं क्योंकि उसमें सभी समस्याएँ सही बतायी गई हैं‌।
साहित्य समाज का आईना होता है तो साहित्य समाज का मशाल भी है।
लेखक पाठक की चेतना एवं संवेदना को जागृत कर निर्णय की स्थिति में ला सकता है। वह लेखन के माध्यम से पाठक को उद्वेलित करता है‌। निर्णय पाठक स्वयं लेने के लिए स्वतंत्र होते हैं। हाँ यदि लेखक समाधान भी देता है तो स्वागत योग्य है। यह कोई फॉर्मूला नहीं है कि हर रचना में समस्या का समाधान हो ही। कहानी की डिमांड क्या है, इस पर भी निर्भर करता है। कई बार समाधान नहीं देना अथवा संकेत देना भर भी समाधान ही होता है।

  1. साहित्यकार अभी गाली, हिंसा और यौन संबंधों की रचनाओं की ओर उमड़ पड़े हैं। आपकी दृष्टि में लेखन में अश्लील गालियों का हू-ब-हू प्रयोग, हिंसा और यौन संबंधों की चर्चाओं की सीमा क्या होनी चाहिए?

उत्तर-  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर लंबे समय से विमर्श चलता आ रहा है। एक वर्ग सीमा पसंद करता है तो दूसरा वर्ग नहीं करता है। शब्द जल एवं वायु की भाँति प्रवाहित होते हैं। लेखक आज जो लिख रहे हैं, वह आने वाली पीढ़ी के लिए भी है। वे अपनी भावी पीढ़ी को क्या और कैसा देना चाहते हैं, अलग-अलग राय हो सकती है। मेरा मानना है कि रचना ऐसी होनी चाहिए कि समाज में सभी पीढ़ी और सभी तबके के पाठक पढ़ सकें। कहानी की आवश्यकता है तो यौन संबंधों, गाली का प्रयोग करना ही पड़ेगा। लेकिन साहित्य में कोई भी बात कलात्मक ढंग से कही जाय तो बेहतर। कुछ शब्दों में मैं अपनी बात कहूँ तो जुबां खुली भी न थी और बात भी कर ली।’

  1. प्रश्न:-आजकल हिंदी भाषी भी हिंदी में बात करना पसंद नहीं करते। हिंदी पुस्तक खरीदना नहीं चाहते। क्या आप मानती हैं कि हिंदी में पाठक कम हुए हैं और हिंदी भाषा का अस्तित्व संकट में है?

उत्तर:- अंग्रेजी भाषा का प्रभाव तो है ही क्योंकि अंग्रेजी विश्व की भाषा है। भारत में यह अब भी शासन की मुख्य भाषा प्रतीत होती है। परंतु जनसंख्या के हिसाब से हिंदी का दायरा इतना व्यापक है कि हिंदी के अस्तित्व पर संकट का सवाल ही नहीं उठता। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के कारण भी पाठकों की संख्या में अच्छी वृद्धि हुई है। छोटे-छोटे गाँव कस्बों से लेकर विदेशों में हिंदी साहित्य पहुँच रहा है। नये- नये प्रकाशक आ रहे हैं। यदि किताबें नहीं बिकतीं तो प्रकाशकों की संख्या में वृद्धि क्यों होती?

  1. प्रश्न:- आजकल प्रकाशक नए रचनाकारों, ग्रामीण क्षेत्र के रचनाकारों को प्रकाशित नहीं करना चाहते। अपनी पूँजी लगाकर पुस्तक प्रकाशित करवाने की परंपरा सी चल रही है ऐसे में नयी पीढ़ी के रचनाकारों को आप क्या सलाह देंगी?

उत्तर:- साहित्य संसार का यह कड़वा सच है कि रेणुजी को भी ‘मैला आँचल’ छपवाने के लिए जेवर गिरवी रखना पड़ा था। ऐसा भी होता है, प्रकाशक तब तक ध्यान नहीं देते जब तक कि लेखक के पास लेखन के अतिरिक्त अन्य योग्यता जैसे पद अथवा पुस्तक बिकवाने की  योग्यता अथवा चर्चा में बने रहने का गुर नहीं आता। प्रगाढ़ संबंध भी मायने रखते हैं लेकिन इसमें घबराने की बात नहीं है। यदि कोई लगन, मेहनत और धीरज से अपना काम करता है तो धीरे-धीरे काम को पहचान मिलने लगती है और प्रकाशक भी मिलने लगते हैं। हाँ, पहचान बनाने में समय तो लगता ही है।

  1. प्रश्न:- साहित्य जीवन यापन का साधन नहीं रह गया है। साहित्य में अपना जीवन यापन का भविष्य देख रहे नये रचनाकारों को आप क्या सलाह देंगी?

उत्तर:-  प्राचीन समय में भी आप देखें तो साहित्यकार राज पोषित होते थे। हालाँकि, आज के दौर में भी कई लोग हैं जो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं और बहुत हद तक आर्थिक उपार्जन भी कर रहे हैं। परंतु कितना विरोधाभासी है कि जो साहित्य मनुष्य को मनुष्य बनाता है, जीवन का अर्थ समझाता है, वही साहित्य जीवन यापन का साधन नहीं बन पाता। जो लेखक कड़ी मेहनत करते हैं, उन्हें मेहनताना के नाम पर इतना भी नहीं मिलता है कि वह निश्चिंत होकर लेखन कर सके। परंतु दूसरा पक्ष यह भी है कि पहले से स्थिति बेहतर हुई है। आशा करती हूँ आने वाले समय में रचनाकार निश्चिंत होकर रचना धर्म निभा सकेंगे।

  1. प्रश्न:-महिला रचनाकारों में अभी अचानक साहित्य में छा जाने, पुरस्कार पाने की इच्छा प्रबलता से आई है‌। महिला रचनाकार अपनी आलोचना या रचनाओं की कमतर समीक्षा बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। झगड़ा करने, दुश्मन मानने लगती हैं? आपके इस पर क्या विचार हैं?

उत्तर:-  मैं इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं हूँ कि सिर्फ महिला रचनाकारों में ही रातों-रात छा जाने अथवा पुरस्कार पाने की इच्छा प्रबल हुई है। बारीकी से देखने पर बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है।
यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह सफलता का शार्ट कट खोजता रहता है। यह बात भी बिल्कुल सही है कि चर्चा या पुरस्कार लेखक या किसी को भी प्रोत्साहित करता है। लेकिन लेखन रातों- रात छा जाने का नाम नहीं है। यह अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। जब किसी लेखक की रचना कमजोर होगी तो लेखक किसी भी तरह से पाठकों के बीच जगह नहीं बना सकता क्योंकि रचना और पाठक के बीच स्वयं लेखक के लिए भी जगह नहीं होती‌। हाँ ‘असहिष्णुता’ का प्रकोप यहाँ भी है। सोशल मीडिया के कारण यह बहुतायत में दृष्टिगोचर हो रहा है।

  1. प्रश्न:-आप मानती हैं कि साहित्य में भी गुटबाजी, किसी को ऊपर या नीचे कराने का जुगाड़ का खेल होता है? दिया जाने वाला पुरस्कार इन बातों से प्रभावित होता है?

 उत्तर:-  हाँ.

  1. प्रश्न:-वर्तमान के ऐसे पाँच हिंदी साहित्य के रचनाकारों के नाम बताएँ जिनसे आपको भविष्य में साहित्य के क्षेत्र में कुछ उम्मीदें हैं?

उत्तर:- मैं अभी साहित्य में स्वयं को उस स्थान पर नहीं पाती हूँ कि मैं किसी के भविष्य का आकलन कर सकूँ। हाँ, इतना जरूर है कि कई जगमगाते नाम हैं।

माधुरी विभूति झा:– बहुत-बहुत धन्‍यवाद। आपको भविष्‍य की अशेष शुभकामनायें।
श्रीमती सिनीवाली:– मुझे अपने विचार व्‍यक्‍त करने का अवसर मिला, आभार।

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बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.