समीक्षा- “क्षण भर का स्पर्श” कविता संग्रह- श्रीमती सुनीता डी. प्रसाद
“क्षण भर का स्पर्श” का आनन्द देती प्रेम कविताएँ

सर्वप्रथम “क्षण भर का स्पर्श” कविता संग्रह हेतु श्रीमती सुनीता डी. प्रसाद को बहुत-बहुत बधाई, शुभकामनाएँ. 46 कविताओं से सुसज्जित 88 पृष्ठों की इस पुस्तक को बोधि प्रकाशन, जयपुर ने बहुत ही आकर्षक आवरण में उचित मूल्य ₹ 120 रखकर प्रकाशित किया है. इस पुस्तक में कविताएँ और कुछ क्षणिकाएँ भी हैं. मैं सुनीताजी की कविताओं को फेसबुक पर पढ़ता हूँ, प्रभावित होता हूँ. फेसबुक से ही इस पुस्तक की जानकारी मिली. पुस्तक मंगवायी तो अपनी राय दे रहा.

“क्षण भर का स्पर्श” नाम से ही स्पष्ट है कि प्रेम केंद्रित कविताएँ हैं. इनकी कुछ पंक्तियाँ बेहद ही शालीनता से गंभीर बातें कहती हैं. इनकी कविताओं में हिंदी के आसान, अच्छे और कम प्रयोग होने वाले कुछ सुंदर शब्दों का संयोजन है. कुछ कविताएँ मेरी नजर में ऐसी हैं जो आपको बीच भंवर में ले जाकर छोड़ देती हैं. अब आपको तय करना है कि आप प्रेम के किस पथ पर, किस गली में हैं. चिंतन में राह स्वतः खोजें. प्रेम की परिभाषा अब तक अपूर्ण, सम्पूर्ण, बहुकेन्द्रित है. विद्वानों ने इतने प्रकारों और खाँचों में प्रेम को रखा है कि आप एक दिशा में चल ही नहीं पायेंगे. कोई त्याग कहता है तो कोई प्राप्ति की उम्मीद में जीता है. छल- निश्छल, अनेक वर्णन हैं. इनकी पुस्तक की कविताएँ और क्षणिकाएँ भी नयी वाली बोलचाल की हिन्दी में नहीं बल्कि मूल हिन्दी की मानक पुस्तकों में से एक लगती है. हाँ, कुछ अनुत्तरित प्रश्न अवश्य हैं. प्रेम, भावना, संवेदना, आवेग, पहाड़, नदी और प्रकृति इनकी कविताओं के मूल तत्व हैं.
इनकी कुछ मनोहारी पंक्तियों को देखें.
“शेष है कविताएँ” शीर्षक में लिखती हैं कि
“शेष हैं कविताएँ क्योंकि
संवेदनाएँ अभी अशेष हैं.
रूप बदलेगा…
शब्दों पर भावों का भार लटकेगा…
बहेंगे रक्त से जब कवि के अश्रु
तब कहीं जाकर…
समुद्र का क्षार कुछ घटेगा.
शेष हैं कविताएँ क्योंकि
अभिव्यक्तियाँ अभी अशेष हैं…
स्वप्न टूटेंगे…
पलकों पर अनिद्रा का भार बढ़ेगा
खंडित सपनों के बोझ से जब कवि थकेगा
तब कहीं जाकर भू-धरों का गुरुत्व
धरा पर कुछ घटेगा.”
एक अन्य “मिलना चाहूँगी” शीर्षक कविता में लिखती हैं कि
“अपने मिलने के क्रम में
मैं सबसे पहले मिलना चाहूँगी
प्रेम पर लिखने वाले कवियों से
ताकि साक्ष्य बन सकूँ
उनकी कविताओं से
प्रस्फुटित होते अथाह प्रेम
और अनिश्चित एकाकीपन की…
फिर मैं मिलना चाहूँगी
नित रसोई पकाती उन स्त्रियों से
ताकि चूम सकूँ…
रोज एक नयी कविता कहते
उनके खुरदुरे हाथों को
जो बिखेर देते हैं, अपने स्वाद से
एक मुस्कान, अपनों के चेहरों पर…”
इनकी क्षणिकाओं पर भी अच्छी पकड़ है. “संग्रहण” क्षणिका में लिखती हैं कि
“मैंने चाहा प्रेम को करना
संगृहित…
और फिर
लिख डालीं तुम पर
कविताएँ…
‘अनेक’…”
आगे “श्रद्धांजलि” क्षणिका में लिखती हैं
“हमदोनों के मध्य
बढ़ता ‘मौन’…
है हमारी ओर से
हमारे प्रेम को
एक…
‘विनम्र श्रद्धांजलि’…”
प्रेम को जब कविता के साँचे में डालती हैं तो “प्रेमिकाएँ” शीर्षक कविता में लिखती हैं कि
“कविताओं को कभी
गौर से देखना…
उनमें दिखेंगी तुम्हें
प्रतीक्षारत प्रेमिकाएँ.
प्रेमिकाएँ…
जिन्होंने
सहर्ष स्वीकार किया
शब्दों में उतरकर
आजीवन कारावास…
और फिर वे हो गयीं
सदा के लिए
किसी कवि की
कविताएँ…”
“सत्य मरता नहीं” शीर्षक कविता की सुदृढ़ता देखें कि
“सत्य की देह दबा दी जाती है
अंधकार में कहीं.
गुजरने वालों को
दुर्गंध तो आती है
पर साहस नहीं.
वे नाक पर रखकर रूमाल
गुजर जाते हैं
होकर एकदम अनजान
क्योंकि उन्हें
लौटना होता है घर
और वे मानते भी हैं कि
सत्य कभी मरता नहीं…
जीत सदैव सत्य की ही होती है.
पर…
जो जीवित है, वही सत्य है.
और जो मृत, वह झूठ.
क्योंकि
मुर्दे बोलते नहीं.
तो जो बोलते नहीं
वे जीवित हैं क्या?
निःसंदेह…
सत्य कभी मरता नहीं
मार दिया जाता है.”
जीवन के बारे में “रास्ते” शीर्षक कविता में लिखती हैं कि
“जो रास्ते
आगे की ओर
बढ़ जाते हैं…
वे बिना मोड़ लिए
वापस नहीं लौट पाते.”
इसी में आगे लिखती हैं कि
“संकरे रास्ते
चौड़े रास्तों में
आसानी से मिल गये.
चौड़े रास्ते
संकरे रास्तों में फँसकर
दम तोड़ गये.”
“जीवंत रहने की शर्त” कविता में लिखती हैं कि
“जब तक हम रचते रहते हैं
बचे रहते हैं जीते जी मरने से…
नदियों ने बसायी अनेक सभ्यताएँ
और इनके मध्य
वे बहती रहीं अनवरत
गढ़ती रहीं नित नयी सभ्यताएँ
तभी हर सभ्यता की वे मौन साक्षी रहीं…
आग से स्वाहा हुए जंगलों में
बारिशों ने फिर से फूँक दिया जीवन
खिला दी राख में कोंपल
विनाश और सृजन के मध्य
बारिश ने जीवित रखीं जीवन की संभावनाएँ
और स्वयं भी बनी रही सजीव संग इनके…
सागर रहकर भी खारा, बाँटता रहा मीठा
वह बिना रुके रचता रहा मेल
और स्वयं को जीवित रखा
बारिशों में, नदियों में
और हिमाद्रियों में…”
सुनीताजी इस पुस्तक के प्रारंभ में ही अपने बारे में लिखती हैं कि
“मेरे परिचय में कुछ विशेष नहीं
मैं पथिक हूँ, कविता मेरी यात्रा,
जब तक जीयूँगी, कविता ही कहूँगी,
जब मरूँगी, कविता मुझे कहेगी…”
तथापि, कहीं-कहीं इनकी बातों से मैं सहमत नहीं हूँ. मेरी असहमति की पंक्तियाँ देखें.
“प्रेम” शीर्षक कविता में लिखती हैं कि
“प्रेम…
संसार में किया जाने वाला
सबसे महान और लोकप्रिय व्यवसाय रहा…
यह भी कभी
एकतरफा नहीं चला…”
मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ. मेरी इन दोनों शब्दों से आपत्ति है, लोकप्रिय व्यवसाय रहा और एक तरफा से तो घोर आपत्ति है. यदि व्यवसाय को व्यंग्य में स्वीकार भी कर लें, याद करें गाना ‘मोहब्बत अब तिजारत बन गयी है, तिजारत अब मोहब्बत बन गयी है’ (सिनेमा-अर्पण) तब भी एकतरफा प्रेम के मीरा से लेकर अनेक उदाहरण हैं.
यह इनकी पहली पुस्तक है लेकिन इनकी समृद्ध रचनाओं से लगता नहीं कि यह इनकी पहली पुस्तक होगी. प्रकाशक ने भी बहुत बढ़िया तरीके से कविताओं की पंक्तियों को सजाया है. प्रेम केंद्रित कविताएँ हैं लेकिन कहीं भी प्रेम की अंतिम स्थिति, पूर्ण स्थिति नहीं दिखती है. कुल मिलाकर एक बढ़िया संकलन है. मैं व्हाट्सअप के अनेक समूहों में हूँ जिसमें कविताओं के नाम पर दिन भर कचरा फटकन गिरते रहता है और अनेक बार मुँह कसैला हो जाता है, न चाहते हुए पढ़ना पड़ता है. ऐसे में इनकी कविताओं में कुछ तो बात है. ये कविताएँ वास्तव में ‘क्षण भर का स्पर्श’ जैसा आनन्द अवश्य देते हैं. ऐसे ही लिखती रहें. मैं पुनः इन्हें बहुत बधाई और भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ.
यहाँ की अन्य साहित्यिक गतिविधियों, आने वाली पुस्तकों की जानकारी के लिए बने रहें www.bibhutibjha.com पर.
धन्यवाद.
– भारद्वाज.

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.