मोहल्ले की वास्तविक कहानियों से परिपूर्ण है “मेरे मोहल्ले के लोग”

“मेरे मोहल्ले के लोग” कहानी संग्रह हेतु श्री सतीश सरदानाजी को बहुत-बहुत बधाई, शुभकामनाएँ. 11 कहानियों और 152 पेजों की इस पुस्तक का प्रकाशन बोधि प्रकाशन, जयपुर ने आकर्षक रंगीन आवरण में मूल्य ₹ 150 रखकर किया है. इस पुस्तक की भूमिका श्रीमती रोहिणी अग्रवाल ने लिखी है. भूमिका सुंदर, स्पष्ट और क्लिष्ट हिंदी की चाशनी में डूबी है परन्तु अंग्रेजी के अनेक शब्दों के प्रयोग से इसकी महत्ता कम हो जाती है. वरीय लेखिका हैं कुछ ख़ास विचार उचित नहीं तथापि अंग्रेजी के कम शब्दों का उपयोग ज्यादा प्रभावशाली होता.

सरदानाजी की कहानियों में ज्यादा आडंबर नहीं होता. इनकी कहानियाँ अपने आसपास की होती हैं. इस पुस्तक को पढ़ते इनकी पहले की पुस्तक ‘रोजमर्रे की कहानियाँ’ की याद आती है. सीधी रेखा के कथ्य के साथ ठीक ठाक शिल्प में लिपटी ये कहानियाँ दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के नजदीक के क्षेत्रों की स्थानीय बोली, भाषा, जीवनशैली को जीवंत करतीं हैं. इन्हें पारिवारिक कहानियों में महारत हासिल है हालाँकि इसबार इन्होंने इन कहानियों में कुछ वयस्क शब्दों का भी प्रयोग किया है जो संवादों के बीच छुप जाते हैं. लेखक आम जीवन में एक सामान्य परिवार में घटित होने वाली सूक्ष्म भावनात्मक बातों को अपने शब्दों से इसप्रकार विस्तार देते हैं कि पाठक को अपने पड़ोस की कथा लगने लगती है. इनकी कहानियों में वास्तविक बातें ज्यादा और कल्पना कम होतीं हैं. वैसे भी यथार्थ कल्पना पर भारी पड़ता ही है.

अब कहानी पर आऊँ. पहली कहानी ‘अपना जीवन’ बहुत ही मार्मिक कहानी है जिसमें एक परिवार का मुखिया बीमार होता है तो उसके इलाज के लिए पत्नी बहुत परेशान होकर भी इलाज करवाती है. पति के ऑपरेशन के तत्काल बाद अचानक पत्नी बीमार होती है और पता चलता है कि पत्नी का लीवर खराब हो गया है, स्थिति बहुत नाजुक है. जल्द ही पत्नी का देहांत हो जाता है और बच्चे ननिहाल चले जाते हैं. पति अकेले लखनऊ में नौकरी करने रुक जाता है. बाद में पुत्र और पुत्री अपनी पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय से करते हैं. पुत्री गुड़गांव में नौकरी करने लगती है. व्यक्ति दूसरा विवाह सौतेली माँ अच्छी नहीं होगी की धारणा से नहीं करता है. वहीं बच्चे अपने जीवन में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि पिता का ख्याल नहीं रहता और पिता की तबीयत दिनों दिन बाहर के खाने और भूखे रह जाने की वजह से बिगड़ने लगती है. पिता को बाद में इस बात का अफसोस होता है कि अगर उन्होंने दूसरी शादी कर ली होती तो शायद आज अकेलापन ना होता क्योंकि बच्चे उनको एटीएम मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझते. ऐसा अपने समाज में अनेक उदाहरण हैं. अनेक ऐसी कहानियाँ आए दिन सुनने को मिलती हैं. आज के बच्चे पूर्ण रूप से व्यावसायिक भाव से सोचते हैं. भावनात्मक लगाव दिनों दिन घट रहा है. इस कहानी का उद्येश्य भी इन्हीं दोनों बातों को स्पष्ट करना था और लेखक स्थापित करने में बिलकुल सफल हैं.

दूसरी कहानी ‘चोट और वोट’ में ग्रामीण राजनीति और राजनीति में एक दूसरे के प्रति रोष, ईर्ष्या से संबंधित कहानी है, मन लगा रहता है. तीसरी कहानी ‘भूली दास्तान’ भी ठीक-ठाक कहानी है.

शादी तो नहीं हो सकी’ कहानी में लेखक ने एक नया अद्भुत प्रयोग किया है. ऐसा प्रयोग मैंने हिंदी गद्य में अभी तक नहीं देखा था. इस कहानी का अंत लेखक ने तीन प्रकार से किया है और वे पाठक पर छोड़ते हैं. पाठक तीनों अंत पढ़कर विचारें से कौन सा अंत उचित है. तीनों अंतों का विस्तृत वर्णन है. यह प्रयोग अच्छा लगा और कहानी भी अच्छी बनी है.

पेरने’ कहानी एक जाति विशेष की कहानी है जिनकी महिलाएँ वेश्यावृत्ति करके अपना जीवन चलातीं हैं. उसी में से एक महिला अपने इकलौते बेटे को सिर्फ अपने बल पर पालती है और बाद में एक परिचित पंडितजी को अनुभव होता है कि शायद यह पुत्र उनका है तो वह अपना पुत्र वापस माँगने आ जाते हैं. महिला कहती है कि आप शादीशुदा हैं, पत्नी और बच्चे हैं आप अपने जीवन में उनके साथ खुश रहें. मैंने अपना पूरा जीवन इस बच्चे को दिया है अब मेरे जीवन के आसरे को मत छीनें. इसे मैं पढ़ा लिखाकर अच्छा आदमी बनाऊँगी. इलाके के सम्भ्रान्त और पंडितजी जैसे लोगों का चरित्र चित्रण के साथ इस महिला की पीढ़ियों की दीनता, विवशता, सरकार की मदद और मजबूरी का विश्लेषण कहानी को गंभीरता की ओर ले जाती है.

‘भर्ती’ कहानी में एक मुस्लिम युवक फौज में भर्ती होने वाला होता है तो उसकी नियुक्ति की चिट्ठी जब डाकिया लाता है तो डाकिए को उसका परिवार ₹ 50 उपहार देना चाहता है. वह पहले तो मुस्लिम परिवार होने के कारण लेने से मना करता है लेकिन आग्रह पर रख लेता है. अब सोचता है कि इस देश का क्या होगा जिस देश में पाकिस्तानी फौज में भर्ती हो जायेंगे. इस कहानी का मूल उद्देश्य हिंदुओं के मन में मुस्लिमों के प्रति घृणा और भेदभाव का भाव आ गया है, यही जताना है. डाकिया मुस्लिम युवक को अविश्वास के भाव में देश का दुश्मन पाकिस्तानी तक समझ लेता है. ऐसी सोच और ऐसे लोगों पर गहरा प्रहार है. अच्छी कहानी है.

‘सरदारजी’ कहानी में एक 90 साल के बुजुर्ग हैं जिनका खुद का बनाया हुआ तीन मंजिला घर है लेकिन उन्हें भूतल का एक कमरा रहने को नहीं मिल रहा. बच्चों ने पूरे घर पर अपना हक़ जमा रखा है. इनकी पुत्री भाइयों से बनाव रखने के चक्कर में इन्हें समझाने आती है कि आप घर छोड़ वृद्धाश्रम में रहने चले जायें. सरदारजी भूतल के एक कमरे में रहने को ही लक्ष्य बनाये हुए हैं. जब परिवार को पता चलता है कि इनके पास पेंशन से बचाए हुए बहुत पैसे हैं तो बहुत मुश्किल से एक बेटे- बहू ने इन्हें रसोई से सटा भूतल का एक कमरा पोती के प्रयास से दिया है. कहानी एक बुजुर्ग के साथ व्यवहार की कथा है जो दिनों तक मस्तिष्क में घूमेंगी.
पुस्तक की शेष कहानियाँ भी रोचक हैं.

कमी की बात करूँ तो इस पुस्तक में वर्तनी की और व्याकरण सम्बंधित त्रुटियाँ बहुत हैं. पढ़ने से ही लग जाता है कि इस पुस्तक की प्रूफ रीडिंग नहीं हुई है. उम्मीद है कि अगली आवृत्ति में इसे दूर कर लिया जायेगा.

कुल मिलाकर कहानियाँ निश्चित रूप से पढ़ने योग्य हैं और पाठक किसी भी कहानी के अंत का अनुमान पहले नहीं कर सकता. एक बात जो मैंने ऊपर कही है कि एक कहानी का तीन अंत का विकल्प इन्होंने अलग-अलग दिया है, पाठक अपनी मर्जी से कोई एक अंत चुन ले. यह एक नया और अद्भुत प्रयोग लगा. मैं श्री सतीश सरदानाजी को पुनः बहुत-बहुत बधाई देता हूँ और शुभकामनाएँ देता हूँ.

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बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.