सिर्फ मन की बातें ही हैं “कुछ अधूरी बातें मन की” कविता संग्रह में

सर्वप्रथम “कुछ अधूरी बातें मन की” कविता संग्रह हेतु श्री मनीष मूंदड़ाजी को बहुत-बहुत बधाई, शुभकामनाएँ. 108 शुभ संख्या की कविताओं के इस संग्रह का प्रकाशन मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल ने मूल्य रुपये 195 रखकर किया है. पुस्तक के प्रारंभ में ख्याति प्राप्त कवि डॉ. कुमार विश्वास बहुत सच कहते हैं कि “जो व्यक्ति बाहर जितना अधिक ध्वनित होता है, उसके अंदर का मौन उतना ही अधिक मुखर होता है. वह मौन अक्सर उन जगजाहिर ध्वनियों में सम्मिलित होकर बाहर आ नहीं पाता.” भूमिका में कवि मनीषजी स्वयं कहते हैं कि “मेरा मन मेरा दोस्त है, मेरा सारथी. मैं अमूमन रोज मन से बातें करता रहता हूँ. मन की सुनता हूँ और मन भी मेरा बखूबी साथ देता है. कुछ अधूरी बातें मन की लेकर आपके सामने आया हूँ.”
अर्थात मन की अधूरी बातें इन कविताओं में हैं. इन्होंने अपनी भावना, अनुभव और अनुभूति को सहज, सरल और समृद्ध शब्दों में रखी है. अनेक कवि प्रयोग में कम आने वाले कठिन हिंदी के शब्दों का उपयोग कविताओं में करते हैं परन्तु इनकी कविताओं में ऐसा नहीं है. शब्दों का संतुलन और कहने का अभिप्राय दोनों यथास्थान है. एक दूसरे पर भारी पड़ने की स्थिति नहीं है इसलिए कविताएँ एक प्रवाह में हैं. इन्होंने अपने बिताये समय को देखकर, अनुभव से जो बातें कही हैं, वे ज्यादा प्रभावशाली बन पड़ी हैं. इनकी कविताओं में तीक्ष्णता भी है और पैनापन भी. कभी कभी लगता है कि सामने बातें हो रहीं हों. बातें मन को छूतीं हैं और सोचने को विवश करती हैं. यही कविता की सार्थकता भी है. कवि के कहने का भाव अगर पाठक तक पहुँच जाये तो रचना सफल हुई. कुछ पंक्तियों को देखें तो बात स्पष्ट हो जायेगी.

पहली कविता ‘प्रेरणा’ सोचने को विवश करती है. कवि लिखते हैं कि
“जीवन के इस प्रवाह में
प्रेरणा का अभाव सा है
वैसे तो जीने के लिए निरंतर चल रही हैं साँसें
पर मानो इस जीवन में खुशियों का दुष्प्रभाव सा है
झुलसा हुआ है अब ये मन
धूल-धूसरित हुआ ये तन
किसी अपनत्व को ढूँढ़ता लगातार
अब मानो, जैसे थक से चुके हैं मेरे सारे विचार.”

पाठक मंत्रमुग्ध हो जाता है जब ‘गुमनाम खत’ कविता में कहते हैं कि
“अपने किराये के कमरे का सामान समेटते हुए
आज शाम
तुम्हारे कुछ पुराने खत मिले
वो गुमनाम खत
जो तुमने किसी और के लिए लिखे थे
मेरे कमरे में बैठकर
मेरे सामने
मुझसे बातें करते हुए
मन में फिर से वही सवाल उठ आये
किसके लिए थे ये खत?
क्यूँ किसी का नाम ना होता था इन पर?
क्यूँ मेरे पास रख छोड़ जाते थे तुम?
आज भी मेरा मन यह सोच रहा है
कहीं ये मेरे लिए तो नहीं थे?”

जीवन के अनुभव को कवि अलग दृष्टि से देखता है. ‘मतलब’ कविता में लिखते हैं कि
“रोशनी का असल मतलब
अब समझ में आ रहा है
जब, दिन बस अब ढलने को है..
साथ चलने का असल मतलब
अब समझ में आ रहा है
जब, साथ बस अब छूटने को है
जिंदगी का असल मतलब
अब समझ में आ रहा है
जब, जिंदगी बस अब खत्म होने को है.”

कवि हाथ की लकीरों में भी संभावनाएँ देखता है. ‘हाथ की लकीरें’ कविता में लिखते हैं
“हमेशा मैं अपने हाथों की लकीरों को देखता
और उनसे पूछता
मेरे भाग्य की रेखाएँ कैसी हैं
क्या मैं वह सब कुछ कर पाऊँगा
जो मैं सपनों में देखता हूँ
लकीरें खामोश मुझे देखतीं
मैं हर वक्त नयी संभावनाओं को उनमें तलाशता.”

कुछ पंक्तियाँ सामान्य हैं लेकिन सुन्दर भाव मन को छू लेते हैं. ‘दृश्यम’ कविता में लिखते हैं कि
“प्रकृति के चिलमन से
छलकती रोशनी
कितना मनोरम ये दृश्य
कितना आत्मीय ये सौंदर्य
नयनाभिराम!
आओ, आँखों से अपने अंदर उतारें
उल्हासित
प्रह्लादित
स्फुटित हो जाएँ.”

कभी कवि निढ़ाल हो जाता है तो ‘जाने क्यों’ कविता में कहता है-
“अब शामें कहाँ ढलती हैं…
बस रात के एकल सफर का आगाज होता है
अब रातों को नींद कहाँ आती है
बस सुबह का इंतजार होता है

कभी कवि स्वतः को देखकर क्या कहता है यह ‘तमाशा’ कविता कहती है. इसमें लिखते हैं कि
“मेरी गुरबत का तमाशा बना
मैं खुद को
तलाशता हूँ.
मेरी खुशियों का अलाव बना
मैं खुद को तलाशता हूँ
मेरी उड़ानों के पर काट कर
मैं खुद को तलाशता हूँ
मेरी आँखों को नम कर
मैं खुद को तलाशता हूँ
क्यूँ तलाशता हूँ
नहीं खबर मुझे
पर मैं खुद को तलाशता हूँ.”

कुल मिलाकर एक साफ़ और साफगोई से मन की बातें कही गयीं हैं. पुस्तक पठनीय है. इस कविता संग्रह के लिए मैं मनीष मूंदड़ाजी को पुनः बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ.

***

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.