परिचय

नाम:-  श्रीमती सुषमा मुनीन्द्र
जन्म तिथि व स्थानः-  05 अक्टूबर, 1959.  रीवा (मध्य प्रदेश)
शिक्षा:-  विज्ञान स्नातक
पारिवारिक जानकारी:  पिता– स्व. देवी प्रसाद पाण्डे (जिला व सत्र न्यायाधीश)
माता– स्व. केसर पाण्डे.   पति- श्री मुनीन्द्र मिश्र.
संतान- बेटा हर्षद, बेटी कामायनी.
अभिरुचि क्षेत्रः–  लेखन, पठन, बागवानी.
कार्यक्षेत्र:-  स्वतंत्र लेखन.
विशेष अनुभव:-  लेखन के क्षेत्र में लगभग 35 वर्ष का अनुभव.
विशेष कार्य वर्तमान:-  लेखन सतत जारी है। भविष्य में जारी रखने का प्रयास रहेगा।
लेखकीय कर्म:-  कतई याद नहीं वह कौन सा दिन, कौन सी तिथि थी जब कागज कलम लिया  और कुछ लिखा। याद है पहली कहानी ‘घर’ लिखी जो ‘सरिता’ पत्रिका में 1982 में छपी। तब से लगभग 365 कहानियाँ, लगभग 50 हास्य व्यंग्य, लगभग 50 आलेख, 02 उपन्यास, लगभग 100 समीक्षायें, कुछ यात्रा वृतांत संस्मरण और आकाशवाणी रीवा के लिये 12 नाटक लिखे हैं।
विशेष:-      (1)   कहानियों का मराठी, मलयालम, कन्नड़, तेलुगू, उड़िया, उर्दू, पंजाबी, अॅंग्रेजी, गुजराती, असमिया आदि भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
(2)   लगभग 30 कहानियाँ प्रतिनिधि कहानी संग्रहों में संकलित।
(3)   उपन्यास ‘छोटी सी आशा’ व कथा संग्रह ‘विलोम’ का डॉ. सुशीला दूबे के द्वारा मराठी भाषा में अनुवाद। इसी उपन्यास का असमिया अनुवाद डॉ. मीनाक्षी गोस्वामी ने किया है।
(4)   व्यक्तित्व:- कृतित्व पर लगभग 10 शोध कार्य।
(5)   गणित, सरपंचिन, दर्द ही जिसकी दास्तां रही, शुभ सात कदम कहानियों का मंचन।
(6)   कई स्थानों पर कहानी पाठ।
प्रकाशन:-  उपन्यास  –    (1)   छोटी-सी आशा।
(2)   गृहस्थी।
कहानी संग्रह – (1)   मेरी बिटिया। (2)   नुक्कड़ नाटक।
(3) महिमा मण्डित। (4) मृत्युगंध।
(5) अस्तित्व। (6) अन्तिम प्रहर का स्वप्न।
(7)   ऑन लाइन रोमांस। (8) विलोम।
(9)   जसोदा एक्सप्रेस। (10) शानदार शख्सियत।
(11)  अपना ख्याल रखना। (12)  प्रेम संबंधों की कहानियाँ।
(13)  न नजर बुरी न मुँह काला।

पुरस्कार:-    (1)   मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय गजानन माधव मुक्ति बोध पुरस्कार।
(2)   मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का प्रादेशिक सुभद्रा कुमारी चैहान पुरस्कार।
(3)   प्रकाश रानी हरकावत पुरस्कार (म.प्र.)।
(4)   गायत्री कथा पुरस्कार (म.प्र.)।
(5)   निर्मल साहित्य पुरस्कार (म.प्र.)।
(6)   रत्नकांत साहित्य पुरस्कार (म.प्र.)।
(7)   परिधि साहित्य सम्मान (म.प्र.)।
(8)   विन्ध्य शिखर सम्मान (म.प्र.)।
(9)   उच्च कल्प साहित्य सम्मान (म.प्र.)।
(10)  कमलेश्वर साहित्य पुरस्कार, अलीगढ़।
(11)  प्रेमचन्द्र (हंस) कथा सम्मान, दिल्ली।
(12)  हीरालाल शुक्ल पुरस्कार, जयपुर।
(13)  राधेश्याम चितलांगिया पुरस्कार, लखनऊ।
(14)  विन्ध्य गौरव सम्मान सहित कई क्षेत्रीय सम्मान।
लेखन की अन्य भावी जानकारी:- दो उपन्यास अधूरे हैं जिन्हें पूरा करना है।
सम्पर्क:- द्वारा श्री एम. के. मिश्र, एडवोकेट, जीवन विहार अपार्टमेन्ट्स, फ्लैट नं.- 7, द्वितीय तल, महेश्वरी स्वीट्स के पीछे, रीवा रोड, सतना (म.प्र.)-485001.मो: 08269895950.

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दर्जन भर प्रश्‍न

श्रीमती सुषमा मुनीन्‍द्र से विभूति बी. झा के “दर्जन भर प्रश्‍न” और श्रीमती मुनीन्‍द्र के उत्‍तर:–

1 प्रश्‍न:– नमस्‍कार। सर्वप्रथम आपको आपकी अनेक पुस्‍तकों की सफलता की बधाई। शुभकामनायें। हाल की पुस्‍तक ‘इन्‍नर’ में छपी आपकी कहानी ‘बना रहे यह अहसास’ काफी चर्चित रही। पाठकों की इतनी अच्‍छी प्रतिक्रियाओं पर आप क्‍या कहेंगी ?
उत्‍तर:–   विभूति झाजी नमस्‍ते। आपका आभार कि आपने मुझे ‘दर्जन भर प्रश्न’ श्रृंखला के माध्‍यम से अपनी बात कहने का अवसर दिया। आपके द्वारा सम्‍पादित कथा संग्रह ‘इन्‍नर’ में मेरी कहानी ‘बना रहे यह अहसास’ को स्‍थान मिला यह मेरे लिये उपलब्धि है। कहानी को मिली पाठकों की सराहना ने मुझे ऊर्जा से भर दिया है। रचना का निष्‍पक्ष मूल्‍यांकन पाठकों के दरबार में ही होता है। यहाँ किसी किस्‍म का दबाव, मोह, चाटुकारिता नहीं होती। पाठकों की प्रतिक्रिया हम रचनाकारों के लिये बहुमूल्‍य होती है। मुझे रचना कर्म करते हुए बरस हो रहे हैं। बरसों का आकलन कहता है कि पाठक उस कहानी से अनायास जुड़ाव बना लेते हैं जो उनके जीवन के आस-पास होती है। मैं फंतासी, विभ्रम या हवा- हवाई विवरण न लिखकर उन परिदृश्‍यों को पाठकों के सम्‍मुख लाती हूँ जो समाज में व्‍याप्‍त हैं। वृद्धों को लेकर लोग असंवेदनशील होते जा रहे हैं। अक्‍सर तिरस्‍कृत–उपेक्षित वृद्ध अकेलेपन और एकांत में अंतिम साँस लेते हैं। मैं सकारात्‍मक भाव की पक्षधर हूँ इसलिये ‘बना रहे यह अहसास’ के पुत्र को अपनी असंवेदनशीलता का अहसास होता है और वह अम्‍मा को समीपता देने का मानस बना लेता है। मैं चाहती हूँ कि कहानी के माध्‍यम से ऐसा सामाजिक संदेश जाये कि लोगों कि मानसिकता में गुणात्‍मक परिवर्तन हो। ‘इन्‍नर’ के माध्‍यम से पाठकों तक मेरा संदेश पहुँचा, कहानी को महत्‍व मिला। यह मेरे लिये संतोष की बात है।

2 प्रश्‍न:-  आपके साहित्‍य के पसंदीदा रचनाकार कौन-कौन हैं ? आपका नाम किन साहित्‍यकारों के साथ लिया जाये ? आपकी क्‍या इच्‍छा है ?
उत्‍तर:-  हिंदी साहित्‍य में इतने श्रेष्‍ठ रचनाकार हुए हैं और हैं कि उन्‍हें कुछ नामों में समेटना कठिन है। मुझे रचना, रचनाकार से अधिक प्रभावित करती है। मेरा मानना है किसी भी रचनाकार की सभी रचनायें श्रेष्‍ठ नहीं होतीं। समान रूप से श्रेष्‍ठ, अच्‍छी, औसत, निम्‍न औसत होती हैं। रचनाकारों की एक गौरवशाली श्रृंखला है। प्रेमचंद, भीष्‍म साहनी, मन्‍नू भंडारी, विदेशी भूमि में बसे तेजेन्‍द्र शर्मा, हंसा दीप से लेकर युवतम श्रद्धा थवाईट तक सभी को मैं समान रूप से पढ़ती हूँ। मैं नहीं कह सकती मुझे किन रचनाकारों के समकक्ष रखा जाये पर कामना है इतने वर्षों से साहित्‍य साधना करती आ रही हूँ तो जब कहानीकारों का उल्‍लेख हो, मेरा नाम सम्मिलित किया जाये।

3 प्रश्‍न:-  सुषमा जी साहित्‍यकार कैसे बनीं ? इस साहित्यिक यात्रा में कहाँ-कहाँ कौन से पड़ाव आये ? सुषमाजी के जीवन में लेखन का क्‍या स्‍थान है?
उत्‍तर:-   मेरे पास राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक प्रभामण्‍डल नहीं है, न ही मेरी पारिवारिक पृष्‍ठभूमि साहित्यिक–सांस्‍कृतिक है। मैं विज्ञान की विद्यार्थी रही हूँ। मैं चकित होती हूँ मेरा रुझान हिंदी साहित्‍य की ओर कैसे हो गया। शायद नियति निर्धारित करती है व्‍यक्ति को समाज में किस तरह स्‍थापित होना है। मेरे न्‍यायाधीश पिता का अनुशासन कड़ा था। वे अदालत की तरह घर में भी कठोर न्‍यायाधीश होते थे। शैक्षणिक संस्‍थान के अलावा कहीं आने-जाने की अनुमति नहीं थी। यह जरूर रहा कि घर में पराग, नंदन, धर्मयुग, साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान, कल्‍याण, अखंड ज्‍योति आदि पत्रिकायें मँगाई जाती थीं। मेरी अध्‍ययन में गहरी रुचि थी। कोर्स की किताबों के साथ पत्रिकायें भी दत्‍त चित्‍त होकर पढ़ती थी। सोचती हूँ उन्‍हीं दिनों निहायत गुप्‍त तरीके से मेरे भीतर रचनाकार तैयार हो रहा था। मैं टीचर बनना चाहती थी। आभास नहीं था साहित्‍यकार बनूँगी। अब याद नहीं कौन सी तिथि थी, कैसा जज्‍बा, कैसी स्‍फूर्ति कि माह दो माह के श्रम से कहानी ‘घर’ लिखी जो सरिता में छपी। रचनाकार अक्‍सर कविता से शुरू करते हैं। मैंने गद्य चुना। कविता लिखना कठिन लगता है। छोटे स्‍पेस में सटीक शब्‍द बैठाने पड़ते हैं कि उद्देश्‍य स्‍पष्‍ट हो जाये। शुरुआती छुटपुट लेखन आज जिस विकास पर पहुँच गया है, देखकर मैं हैरान होती हूँ। फेलियर भी खूब देखा। अधिकांश कहानियाँ सम्‍पादक के खेद सहित वापसी कर रही थीं। जनम अकारथ लगने लगा था। मूढ़ मगज से निकलीं वे अनगढ़ कहानियाँ जब कभी फाइल में दिख जाती हैं तो सम्‍पादकों को धन्‍यवाद देने की इच्‍छा होती है। यदि वे छप जातीं आज के मेरे रचना कर्म में धब्‍बे की तरह होतीं। कोई मेन्‍टोर नहीं जो कहानियों की त्रुटियाँ बताता। त्रुटियाँ समझने की मुझे तमीज नहीं थी। अपनी कहानी सर्वश्रेष्‍ठ लगती थी। जैसे-जैसे पुस्‍तकें पढ़ती गई, जानकार होती गई। यह भी लगा फेलियर से गुजरना चाहिये। वहीं से सफलता के रास्‍ते मिलते हैं। फेलियर बताते हैं कुछ हासिल करने के लिये कोशिश जारी रखनी होगी। फेलियर अभ्‍यास करने की आदत भी विकसित करते हैं। हमारे समाज में स्‍त्री और पुरुष के साथ भिन्‍न व्‍यवहार होता है। लक्ष्‍य तक पहुँचने के लिये पुरुषों को परिवार में अनुकूल वातावरण और प्रोत्‍साहन दिया जाता है। स्‍त्री के काम को स्‍वीकार तब मिलता है जब वह खुद को साबित कर दिखाती है। मेरे साथ यही हुआ। गृहस्‍थी के झबार, दो छोटे बच्‍चों की उपस्थिति के बीच चुराये गये समय में कागज-कलम थामना घर के लोगों को कुपित  करने जैसा था। परिजन हौसले तोड़ रहे थे कहानियाँ छप नहीं रही हैं तो मैं कागज काले न कर सम्‍पूर्ण ध्‍यान गृहस्‍थी में लगाऊँ। अब माना जाता है मैं कागज काले नहीं कर रही थी। वह जो था अभ्यास था। मेरा पूर्ण रूप से लेखन 2000 के आस-पास शुरू हुआ जब दोनों बच्‍चे स्‍कूल पास कर आगे की पढ़ाई के लिये बाहर चले गये। तब से लगभग 365 कहानियाँ लिख चुकी हूँ जो प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। अब तो मेरे जीवन में लेखन का सर्वोपरि स्‍थान है। सारी खुदाई एक तरफ, मेरा लेखन एक तरफ। यह मुझे मानसिक स्‍तर पर स्‍वस्‍थ, बौद्धिक स्‍तर पर सक्रिय रखता है। एक पंक्ति में कहूँ तो लेखन में मुक्ति और मोक्ष देखती हूँ।

4 प्रश्‍न:- आपकी कहानियों के ज्‍यादातर पात्र ग्रामीण क्षेत्र की महिलायें, उनकी सोच, रहन-सहन से सम्‍बंधित होते हैं। आपकी कहानियों के पात्र अमीर नहीं होते। क्‍या आप दर्द, धोखा, बुजुर्ग और असंतोष को लेखन का स्‍त्रोत मानती हैं या सामाजिक सरोकारों को? आपकी दृष्टि में काल्‍पनिक कथा और वास्‍तविक जीवन में घटित कथाओं में ज्‍यादा प्रभावशाली क्‍या है ?
उत्‍तर:-   मैं ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं, उनकी सोच, रहन-सहन, बुजुर्ग, दर्द, धोखा, असंतोष को नहीं सामाजिक सरोकारों को लेखन का स्‍त्रोत मानती हूँ। मेरी कहानियों में बुजुर्ग या ग्रामीण महिलायें विषयगत रूप में आती हैं। सामाजिक सरोकार में सभी वर्ग, वर्ण, समूह समाहित हैं। सामाजिक सरोकार के अनुसार कहानी, पात्र, संवाद तैयार होते हैं। ये पात्र चाहे जंजाल में उलझी ग्रामीण महिलायें हों या दर्द में जीते बुजुर्ग या धोखा खाये हुये युवा या असन्‍तुष्‍ट आम जन। यदि कथानक में जरूरत है तो अमीर पात्र भी होते हैं। मेरे चारो तरफ चूँकि आम जन अधिक हैं, तो कहानी का आधार यही बनते हैं। मैं सतना जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहर में रहती हूँ। यद्यपि यहाँ फैशन, बाजारवाद, उत्‍तर आधुनिकता, भूमण्‍डलीकरण पैठ बनाता जा रहा है। प्रत्‍येक स्‍थान की अपनी संस्‍कृति, सोच, चलन होता है। मैं कस्‍बे और गाँव से भी जुड़ी हूँ अत: वहाँ का समाज मेरी कहानियों में स्‍वाभाविक तौर पर दर्ज होता है। छोटे शहर के अधिसंख्‍यक लोग मध्‍यम बल्कि निम्‍न मध्‍यम वर्ग के होते हैं। मैं इन्‍हीं के बीच से कथानक उठाती हूँ। हम सब एक ही काल खण्‍ड में रह रहे हैं पर हमारा वास्‍तविक समय वह है जिससे हम क्रॉंस होते हैं। यह समय हमारे अनुभव और अनुभूति का हिस्‍सा बन जाता है। इस हिस्‍से के आधार पर कहानी तैयार होती है। मेरी कहानियों का धरातल वास्‍तविक जीवन से बनता है। बिना यथार्थ के कहानी नहीं लिखी जा सकती। कल्‍पना भी नहीं की जा सकती। कल्‍पना यथार्थ से प्रस्‍फुटित होती है। जो हमने नहीं देखा वह हमारे लिये कल्‍पनातीत है। मैं कहानी में यथार्थ के साथ जरूरत मुताबिक कल्‍पना, तर्क, वातावरण का प्रयोग करती हूँ कि कहानी सपाट बयानी न लगे बल्कि उसे कहानी की हैसियत मिले। कई कहानियों पर पाठकों की प्रतिक्रिया मिलती है कि यह उनके आस-पास की कहानी है। ‘हंस’ में छपी मेरी कहानी ‘विजेता’ में विवाहित चिकित्‍सक और उसकी रेग्‍यूलर महिला (विवाहित) पेशेन्‍ट एक-दूसरे की ओर आकृष्‍ट हैं। ग्‍वालियर के एक अपरिचित चिकित्‍सक का पत्र आया यह उनकी कहानी है। स्‍पष्‍ट है यथार्थ पर आधारित कहानियाँ जीवन के करीब होती हैं। काल्‍पनिक कथा रोमांच, सम्‍मोहन, जिज्ञासा देती हो पर यहाँ अतिवाद, भ्रम, छल ही मिलेगा।

5 प्रश्‍न:- साहित्‍य समाज का आईना होता है। अनेक रचनाकार समस्‍या उभार देना ही कथा की इतिश्री मानते हैं। उनके अनुसार रचनाकार समाज सुधारक नहीं होते हैं। आपकी दृष्टि में कहानी के द्वारा सिर्फ एक समस्‍या समाज को बता देना काफी है या फिर कहानी में उसके निवारण की ओर इशारा करना भी आवश्‍यक मानती हैं ? कथा का मूल भाव क्‍या हो ?
उत्‍तर:- सच है कि साहित्‍य समाज का आईना होता है। साहित्‍य को समाज की मशाल कहा गया है। मेरा मानना है रचनाकार घोषित रूप से समाज सुधारक नहीं होते फिर भी होते हैं। समाज को दिशा, मार्ग दर्शन, सकारात्‍मक भाव, सार्थक उद्देश्‍य, स्‍वस्‍थ विचार, धनात्‍मक वृत्ति देते हैं। अपने समय और समाज को पन्‍नों में अंकित करते हैं। अंकित सूचनायें उन पीढि़यों तक पहुँचती हैं जो वर्तमान में मौजूद नहीं हैं। कहानी में समस्‍या का समाधान होना चाहिये। इधर की कहानियों में समस्‍या को उभारा जाता है, निवारण नहीं होता पर यह चिंता का विषय नहीं है। कहानी में वर्णित स्थितियाँ समाधान न बतायें पर पाठकों को सतर्क करती हैं समाज में जो विपरीत, नकारात्‍मक, हिंसक, द्वेषपूर्ण स्थिति-परिस्थिति मन: स्थिति बन रही है उससे बचें। आमजन स्थिति को अक्‍सर सतही तौर पर देखते हैं। रचनाकार स्थिति के भीतर के पेंच, परत को विश्‍लेषित कर स्थिति के उस रूप को दृश्‍य पर लाते हैं जिससे आम जन परिचित नहीं हैं। ये स्थितियाँ विकल्‍प या राह ढूँढ़ने में पाठकों की सहायता करती हैं। समाज में जो अकल्‍पनीय, चौंकाने वाली, विद्रूप स्थितियाँ बन रही हैं उनसे बचने और जूझने के लिये मानसिक रूप से तैयार रहने का संदेश देती हैं। समय के साथ कहानी का स्‍वरूप काफी बदल गया है। अब पहले की तरह आदर्श और नैतिकता पर जोर देने वाली कहानियाँ नहीं लिखी जा रही हैं। कहानी कई स्‍तर पर विकसित हो रही हैं। प्रस्‍तुतिकरण, भाषा, शिल्‍प, व्‍याकरण के स्‍तर पर नानाविध प्रयोग करते हुये कहानी ने बहुत प्रगति की है। कथा का मूल भाव आज भी सकारात्‍मक-सामाजिक संदेश देना ही है।

6 प्रश्‍न:- साहित्‍यकार अभी गाली, हिंसा और यौन संबंधों की रचनाओं की ओर उमड़ पड़े हैं। आपकी दृष्टि में लेखन में अश्‍लील गालियों का हू-ब-हू प्रयोग, हिंसा और यौन संबंधों की चर्चाओं की क्‍या सीमा होनी चाहिये?
उत्‍तर:- हम संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। जैसे-जैसे सामाजिक, पारिवारिक, नैतिक मूल्‍यों का क्षरण हो रहा है समाज हिंसक और अभद्र होता जा रहा है। मनुष्‍य में पाशविक वृत्ति बढ़ रही है। विरोध की वृत्ति इतनी बढ़ती जा रही है कि उन मुद्दों का भी विरोध होने लगा है जिनका समर्थन करना चाहिये। इन कारणों से वास्‍तविक जीवन, फिल्‍म, साहित्‍य, खबर प्रत्‍येक क्षेत्र में उग्रता और खुलापन आता जा रहा है। साहित्‍य में अश्‍लील गालियों, हिंसा, यौन विवरण का प्रयोग बढ़ रहा है। महिला रचनाकार भी पीछे नहीं हैं। वर्जनायें लुभाती हैं। ऐसा साहित्‍य ध्‍यान आकृष्‍ट करता है। पाठक वह पढ़ना चाहते हैं जो सामान्‍य जीवन से हट कर है। गाली, हिंसा, यौन संबंधों के खुले विवरण से कहानी एकाएक चर्चा में आ जाती है। मेरा मानना है ऐसी चर्चा पानी का बुलबुला होती है जो तेजी से सतह पर आकर तेजी से बैठ जाता है। मैं उग्रता और खुलेपन को असामाजिक मानती हूँ। बात को संकेत में या अतिरंजित किये बिना भी स्‍पष्‍ट किया जा सकता है। प्रबुद्ध पाठक संकेत को समझते हैं। मेरी कहानियों में समाज के नकारात्‍मक पक्ष आते हैं पर मैं पात्रों को मर्यादा का उल्‍लंघन करने की छूट नहीं देती। जो कहना चाहती हूँ पाठक समझ लेते हैं बल्कि सराहना करते हैं मैं अपनी कहानियों को विकृत नहीं होने देती। अब तो मेरी पहचान ही सामाजिक-पारिवारिक मूल्‍यों की रचनाकार के रूप में होने लगी है। उग्रता और खुलेपन से समाज में गलत असर जाता है। गोपन को देख-सुन-पढ़ कर किशोर उम्र से पहले वयस्‍क और परिपक्‍व हो रहे हैं। हिंसा और बलात्‍कार के तरीके ढूँढ़ रहे हैं। साहित्‍य का अर्थ और प्रयोजन है– सबका हित। यह प्रयोजन याद रखना चाहिये। जो रचेगा वह बचेगा।

7 प्रश्‍न:-  आजकल हिंदी भाषी भी हिंदी में बात करना पसंद नहीं करते। हिंदी पुस्‍तक खरीदना नहीं चाहते। क्‍या आप मानते हैं कि हिंदी में पाठक कम हुये हैं और हिंदी भाषा का अस्तित्‍व संकट में है?
उत्‍तर:- इंटरनेट, कम्‍प्‍यूटर के शुरुआती दौर में मुझे लगा था हिंदी भाषा का अस्तित्‍व संकट में है। लगता था हिंदी बोलचाल में भले ही प्रयुक्‍त हो लिखी रोमन में जायेगी। इस तरह देवनागरी हिंदी लिपि चलन से बाहर हो जायेगी। अब मेरा मानना है हिंदी का प्रभाव बढ़ रहा है। इंटरनेट पर हिंदी के फोंट विकसित करने की जरूरत महसूस हुई। हिंदी के तमाम फोंट उपलब्‍ध हैं। जो भाषा रोजगार दिलाने में सहायक है उसका महत्‍व स्‍वत: बढ़ जाता है। अँग्रेजी को रोजगार दिलाने की प्रतिश्रुति माना जाता है इसलिये यह लोगों की पहली पसंद बनी हुई है। इधर हिंदी कारोबार की भाषा बन रही है। भारत में बाजार की बहुत सम्‍भावना है। देशी-विदेशी कम्‍पनियाँ भारत की ओर आकृष्‍ट हैं। यहाँ कारोबार करने के लिये इन्‍हें हिंदी की जरूरत है। मैं भूटान, अंडमान्‍स, उत्‍तर-पूर्व जहाँ भी गई लोगों को हिंदी का प्रयोग करते देखा। हिंदी, हिंदी भाषी पर्यटकों से सम्‍पर्क करने में सहायक है। कारोबार बढ़ता है। ‘आजकल हिंदी भाषी भी हिंदी में बात करना पसंद नहीं करते’ मैं आपके इस कथन से सहमत हूँ। अँग्रेजी भाषा को शान, अभिजात, बुद्धिमत्‍ता का प्रतीक माना जाता है। अँग्रेजी बोलने वाले को हम उच्‍च शिक्षित मानते हैं भले ही वह स्‍कूल पास ही हो। हिंदी बोलने में लोगों को हीनता का बोध होता है कि वे पिछड़े और कम बुद्धिमान माने जायेंगे। इस प्रयास में तमाम लोग अशुद्ध अँग्रेजी बोल कर परिहास का पात्र बनते हैं। हिंदी साहित्‍य के पाठकों की संख्‍या कम हुई है यह पूरा सच नहीं है। अपनी कहानियों पर मिलने वाले पत्र, फोन कॉंल, मेल, एस.एम.एस. मुझे बताते हैं कि हिंदी के पाठक बहुत हैं। वे पुस्‍तकें पढ़ना चाहते हैं पर मूल्‍य अधिक होता है। अब उचित मूल्‍य पर पेपर बैक्‍स पुस्‍तकें आ रही हैं। अमेजॉंन आदि पर उपलब्‍ध हैं पर पुस्‍तकें कैसे प्राप्‍त करें अधिकतर पाठक नहीं जानते। नये-नये प्रकाशक अस्तित्‍व में आ रहे हैं इससे स्‍पष्‍ट होता है प्रकाशन के व्‍यवसाय में हानि नहीं है। प्रकाशकों को चाहिये पत्र-पत्रिकाओं के माध्‍यम से पुस्‍तकों का प्रचार-प्रसार करें। स्‍टॉंल में विक्रय के लिये रखें। जो पाठक प्रकाशकों से सीधे खरीदना चाहते हैं उन्‍हें कम मूल्‍य में उपलब्‍ध करायें। हिंदी साहित्‍य के पाठक कम होने का एक कारण शिक्षा है। शहरी विद्यार्थी अँग्रेजी माध्‍यम से पढ़ते हैं। उनकी रुचि अँग्रेजी पुस्‍तकों में होती है। गाँव, कस्‍बों में शिक्षा का स्‍तर इतना खराब है कि यहाँ के बारहवीं उत्‍तीर्ण विद्यार्थी मात्रायें ठीक से नहीं लगा पाते, हिंदी साहित्‍य कैसे पढ़ेंगे? शिक्षा के स्‍तर पर सुधार जरूरी है।

8 प्रश्‍न  –  नये रचनाकार, ग्रामीण क्षेत्र के रचनाकारों को प्रकाशक प्रकाशित नहीं करना चाहते। अपनी पूँजी लगाकार पुस्‍तक प्रकाशित करवाने की परम्‍परा सी चल रही है। ऐसे में नयी पीढ़ी के रचनाकारों को आप क्‍या सलाह देंगी ?
उत्‍तर:-   यह सच है कि प्रकाशक नये या ग्रामीण क्षेत्र के रचनाकारों की पुस्‍तकें प्रकाशित नहीं करना चाहते। कुछ ख्‍यातिलब्‍ध रचनाकारों को छोड़ दें तो स्‍थापित रचनाकारों को भी प्रकाशक मात्र पाँच या ग्‍यारह लेख‍कीय प्रति देते हैं। अधिक चाहिये तो कुछ प्रतिशत की छूट के साथ लेखक को पुस्‍तकें खरीदनी पड़ती हैं। यह एक तरह से अपनी पूँजी लगाने जैसा ही है। यह स्थिति रचनाकार को हताश करती है पर लेखन ऐसी लत है कि कागज-कलम थामे बिना रहा नहीं जाता। दिमाग विचारों से आपूरित रहता है। विचारों को कागज पर उतार कर ही संतोष मिलता है। नई पीढ़ी के रचनाकार अति उत्‍साहित हैं। दस-पन्‍द्रह कहानियाँ लिख कर कहानी संग्रह छपवाने के लिये लालायित होने लगते हैं। मेरी सौ से अधिक कहानियाँ हो गई थीं तब 1997 में मायाराम सुरजन फाउण्‍डेशन के सौजन्‍य से पहला कहानी संग्रह ‘मेरी बिटिया’ प्रकाशित हुआ था। फाउण्‍डेशन ने ही भोपाल में विमोचन कराया था। बेहतर होगा नये रचनाकार लेखन को प्रमुखता देते हुये साहित्‍य जगह में अपनी पहचान, प्रभाव बनायें फिर पुस्‍तक प्रकाशन की ओर अग्रसर हों।

9 प्रश्‍न:- साहित्‍य जीवन, यापन का साधन नहीं रह गया है। साहित्‍य में अपना जीवन यापन का भविष्‍य देख रहे नये रचनाकारों को आप क्‍या मशवरा देंगी ?
उत्‍तर:-   हिंदी साहित्‍य जीवन यापन का साधन कभी नहीं रहा। प्रेमचंद, निराला, शैलेश मटियानी के अभाव हम जानते हैं जबकि ये उच्‍च कोटि के रचनाकार रहे हैं। साहित्‍य से उपार्जन नहीं होता। आजीविका के लिये रचनाकार भिन्‍न क्षेत्रों में काम करते हैं। दिन का प्रमुख समय कार्य क्षेत्र में लगाने के कारण रचनाशीलता प्रभावित होती है। यदि वे अपना पूरा समय, श्रम, रचनात्‍मक क्षमता लेखन में लगा पायें तो साहित्‍य जगत को अधिक समृद्ध कर सकते हैं। अफसोस, हिंदी साहित्‍य से जीवन यापन सम्‍भव नहीं है। संतोष यह है रचनाकार को पहचान, नाम, यश मिलता है। नये रचनाकार अपनी रचनाशीलता का भरपूर प्रयोग कर साहित्‍य जगत को समृद्ध करें पर स्‍पष्‍टत: समझ लें साहित्‍य जीवन यापन का साधन नहीं बन सकता।

10 प्रश्‍न  –  महिला रचनाकारों में अभी अचानक साहित्‍य में छा जाने पुरस्‍कार पाने की इच्‍छा प्रबलता से आई है। महिला रचनाकार अपनी आलोचना या रचनाओं की कमतर समीक्षा बर्दाश्‍त नहीं कर पा रही हैं। क्‍या ये रचनाकार के लिये सही है ? आपका इस पर क्‍या विचार है ?
उत्‍तर:-   साहित्‍य में इधर यह वृत्ति बढ़ रही है पर इसे महिला रचनाकारों के संदर्भ में नहीं रचनाकारों के संदर्भ में देखा जाना चाहिये। रचनाकार जल्‍दी से जल्‍दी नाम, यश, पुरस्‍कार पा लेना चाहते हैं। आलोचना या रचनाओं की कमतर समीक्षा को ईमानदारी और सहजता से ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं। त्रुटियों  को इंगित करना स्‍वस्‍थ निष्‍पक्ष आलोचना है, रचनाकार इसे सकारात्‍मक भाव से स्‍वीकार करें तो अपनी रचनाओं में परिष्‍कार ला सकते हैं। यदि आलोचक दबाववश मुँहदेखी लिखते हैं तो यह रचनाकार का ही नहीं साहित्‍य का भी नुकसान है। आलोचना कठिन विधा है। रचनाकार के मंतव्‍य को समझकर अपने मंतव्‍य के औचित्‍य को सिद्धकर आलोचना लिखी जाती है। आलोचना में दुराभाव या पूर्वाग्रह नहीं होनी चाहिये। कई बार देखने में आता है कि सामान्‍य कहानी का महिमा मंडन कर कालजयी सिद्ध कर दिया जाता है जबकि अच्‍छी कहानी की चर्चा नहीं होती, ऐसे में अच्‍छी रचनायें अचर्चित रह जाती हैं, रचनाकार अल्‍पज्ञात।

11 प्रश्‍न  –  आप मानती हैं कि साहित्‍य में भी गुटबाजी, किसी को ऊपर या नीचा कराने का जुगाड़ का खेल होता है ? दिया जाने वाला पुरस्‍कार इन बातों से प्रभावित होता है ?
उत्‍तर:   सुनने में आता है गुटबाजी, किसी को नीचा या ऊपर कराने का जुगाड़ जैसे खेल साहित्‍य में होते हैं। दिये जाने वाले पुरस्‍कार इन स्थितियों से प्रभावित होते हैं लेकिन सही काम को भी महत्‍व और सम्‍मान मिलता है। जब मैंने ‘इन्‍नर’ के लिये ‘बना रहे यह अहसास’ कहानी भेजी आपसे परिचित नहीं थी। आज भी प्रत्‍यक्षत: परिचित नहीं हूँ। चयन का आधार रचना थी। आपको कहानी अच्‍छी लगी। आपने चयन किया। मेरी बात पाठकों तक पहुँची। सराहना मिली। साहित्‍य ही नहीं तमाम क्षेत्र में व्‍यवस्‍था के समानान्‍तर दूसरी व्‍यवस्‍था बना ली जाती है पर मूल व्‍यवस्‍था पूरी तरह खत्‍म नहीं होती है। जो भी जुगाड़ चल रहे हों अच्‍छी रचना को स्‍वीकार मिलता है। मैं बरसों से अपने एकांत में साहित्‍य साधना कर रही हूँ। सतना से बाहर कार्यक्रमों में बहुत कम गई हूँ लेकिन लगभग सभी स्‍तरीय पत्रिकाओं में मेरी कहानियाँ छपती हैं। कुछ पुरस्‍कार भी मिले हैं। मेरा मानना है समाज के प्रति आम जन की अपेक्षा रचनाकारों का दायित्‍व अधिक है। रचनाकार मार्गदर्शन का काम करते हैं। उन्‍हें चाहिये कि सत्‍य लिखें, संतुलित लिखें, वास्‍तविक और प्रामाणिक लिखें कि पाठक भ्रम, छल, अतिरंजना का भाजन न बनें।

12 प्रश्‍न:-  वर्तमान के ऐसे पाँच हिंदी साहित्‍य के रचनाकारों के नाम बतायें जिनसे आपको भविष्‍य में साहित्‍य के क्षेत्र में कुछ उम्‍मीदे हैं।
उत्‍तर:-   दर्जन भर प्रश्‍न में यह सबसे कठिन प्रश्‍न है। इस समय चार पीढि़यों के रचनाकार सक्रिय हैं। आयु और अनुभव के आधार पर अपनी रचनाशीलता का बेहतर उपयोग कर रहे हैं। महिला रचनाकारों की संख्‍या संतोषजनक है। इतने अधिक, इतने उत्‍कृष्‍ट रचनाकारों में पॉंच नाम चुनना मेरी क्षमता में नहीं है। एकाएक पचास से अधिक नाम याद आ रहे हैं फिर भी संजीव, ऊषा किरण खान, मधु कांकरिया, तेजेन्‍द्र शर्मा, चित्रा मुद्गल मेरे प्रिय रचनाकार हैं। इन्‍होंने साहित्‍य जगत को अपना बेस्‍ट दिया है।

विभूति बी झा:– बहुत-बहुत धन्‍यवाद। आपको भविष्‍य की अशेष शुभकामनायें।

श्रीमती सुषमा मुनीन्‍द्र:– मुझे अपने विचार व्‍यक्‍त करने का अवसर मिला, आभार।

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बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.