“दर्जन भर प्रश्न” में हास्य कवि श्री अनिल चौबे, बनारस
व्यक्ति परिचय:-
नामः– डॉ. अनिल चौबे.
जन्म तिथि व स्थानः– 18 अक्टूबर 1976. गोपालगंज, बिहार.
शिक्षाः– बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी (भारत) से अपनी आचार्य (संस्कृत साहित्य में परास्नातक, 1998) और विद्यावारिधा (संस्कृत साहित्य, 2002 में पीएचडी) हासिल की.
पारिवारिक जानकारी:– पिता- श्री राम छबीला चौबे और माता श्रीमती सोना देवी.
अभिरुचि/क्षेत्रः– हास्य कविता.
संपर्क:- मोबाइल– 094159 97053. इमेल- [email protected]
इन्होंने भारत और विदेशों में अनेक कवि सम्मेलनों में भाग लिया है.
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दर्जन भर प्रश्न
डॉ. अनिल चौबे से विभूति बी. झा के “दर्जन भर प्रश्न” और श्री चौबे के उत्तर:-
विभूति बी. झा:– नमस्कार. सर्वप्रथम आपको अपने राज्य, देश का नाम ऊँचा करने हेतु बधाई, शुभकामनाएँ.
1.पहला प्रश्न:– आप मंच, रेडियो, टी.वी. से होते हुए लाइव शो के चहेते बन गये हैं. आज “अनिल चौबे” कवि सम्मेलनों में हास्य का पर्याय हैं. आपकी पंक्ति “नया नया टीवी जब घर में खरीदा गया, हाथ में रिमोट ले पसर गये बाबूजी, चार बजे भोर से ही धर्म की बात सुन, आस्था की नदी में उतर गये बाबूजी, वसन विहीन तन तरुणी को देख-देख, केश रंगवाकर सँवर गये बाबूजी, ई टीवी वी टीवी देखने के चक्कर में, ब्लड प्रेशर बढ़ा तो गुजर गये बाबूजी.” सुनकर लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते हैं. पूरी दुनियाँ में आपके प्रशंसक हैं. दर्शकों/ श्रोताओं की इतनी अच्छी प्रतिक्रियाओं पर आपकी टिप्पणी?
श्री चौबे के उत्तर– आदरणीय झाजी, बहुत- बहुत नमस्कार और इस चर्चा के लिए आपने मुझे चुना इसके लिए भी आपका बहुत- बहुत आभार, धन्यवाद. जब आदमी कोई भी रचना रचता है और उस पर प्रशंसकों की टिप्पणियाँ आती हैं, उनका जब प्रोत्साहन मिलता है, वे जब सुनने के लिए आतुर होते हैं तो हर रचनाकार को लगता है कि उसकी रचना सफल हुई और हम जिस दिशा में कदम उठाए थे हमारी दिशा सही जा रही है और बहुत खुशी होती है. कोई भी रचनाकार कविताएँ लिखता है और जब जन सामान्य में उसकी स्वीकृति मिलती है, उसकी स्वीकार्यता होती है तो उसे अच्छा लगता है और वैसे भी प्रशंसा ऐसा शब्द है जो हर व्यक्ति को अच्छा लगता है. तो इस तरह से हमारे भी श्रोता, हमारे भी दर्शक जब हमारी रचनाओं पर वाह-वाह करते हैं, हँसते हैं, ठहाके लगाते हैं, तालियाँ बजाते हैं तो मुझे भी बहुत खुशी होती है और यह आत्म संतोष होता है कि मैं अपने उद्देश्य में सफल हो रहा हूँ.
2.प्रश्न:- बनारस के चौबेजी साहित्य में? साहित्य की यात्रा कहाँ से प्रारम्भ हुई? चौबेजी हास्य कवि कैसे बने?
उत्तर:- मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में संस्कृत साहित्य का छात्र रहा. 14 सितंबर, 1996 को हिंदी दिवस के अवसर पर विश्वविद्यालय के मालवीय भवन परिसर में एक छात्र काव्य प्रतियोगिता का आयोजन हुआ था जिसमें अपने संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय से छात्र कवि के रूप में मैंने भाग लिया और कुछ रचनाओं का काव्य पाठ किया जो उपस्थित समुदाय को अच्छा लगा था. उसके निर्णायक बनारस के पंडित धर्मशील चतुर्वेदी और चकाचक बनारसी दो हास्य के श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार थे. मुझे भी पुरस्कार मिला, तब से उत्साह बढ़ने लगा और मैं रचनाएँ रचने लगा, धीरे-धीरे वहीँ से मंचीय यात्रा प्रारंभ हुई. साहित्य चूँकि मेरा विषय था तो शब्द की शक्तियाँ, अभिधा, लक्षणा, व्यंजना, ध्वनि यह सब हमने अपने अध्ययन काल में इन्हें पढ़ा है तो मुझे बहुत ज्यादा परेशानी नहीं हुई कविता को समझने में, कविता को लिखने में. अब आपका प्रश्न है कि मैं हास्य कवि कैसे बना? तो क्या है कि कोई भी कवि जन सामान्य के दर्द का समाजीकरण करता है और उसको कविता के रूप में पिरोता है. आज के भौतिकवादी युग में जहाँ व्यक्ति को तमाम विसंगतियाँ हैं, तमाम तनाव हैं, तमाम चिंताएँ हैं, उन चिंताओं से उनको मुक्त कराने के लिए विसंगतियों को परोसने पर उनको हँसी आती है और इस तरह से मैं धीरे-धीरे अपनी पैनी दृष्टि समाज की विसंगतियों पर गड़ाता गया, देखता गया और हास्य कविताएँ स्वतः स्फूर्त होती गयीं और मैं हास्य कवि होता गया.
3.प्रश्न:- आपके साहित्य के पसंदीदा रचनाकार कौन-कौन हैं? आपका नाम किन हास्य कवियों, साहित्यकारों के साथ लिया जाये? आपकी क्या इच्छा है?
उत्तर:- मेरे पसंदीदा साहित्यकार हरिशंकर परसाईजी, शरद जोशीजी हैं. मैं इनसे बहुत प्रभावित हूं, इनको मैंने बहुत पढ़ा है, ये हमारे पसंदीदा साहित्यकार हैं. मानस पटल में पाकिस्तान के एक लेखक हैं मुस्ताक युसूफी साहब, लतीफ घोंघी, रविंद्र त्यागी ये नाम हमारे लिए बहुत ही पूजनीय और आदरणीय नाम हैं, ये हमारे पसंदीदा साहित्यकार हैं. कवि सम्मेलनों में महाकवि पंडित चंद्रशेखर मिश्र, ओम प्रकाश आदित्य, अल्हड़ बीकानेरी हमारे आदर्श रहे हैं. आपका इस प्रश्न के अंदर एक और प्रश्न है कि मेरा नाम किन साहित्यकारों के साथ लिया जाए? मेरा नाम मेरे नाम के साथ ही लिया जाए. ये महान लोग हैं इनसे हमारी कोई तुलना नहीं है. यह हमारे आदर्श हैं. इनके साथ यदि हमारा नाम लिया जाता है तो यह हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात होगी और मेरा कई जन्मों का पुण्य उदय होगा जो महान साहित्यकारों की श्रेणी में या इनकी जो सूची है उसमें सबसे नीचे भी यदि हमारा नाम लिया जाए तो हमारे लिए गौरव की बात होगी लेकिन मन कहीं यह भी कहता है कि हमारा नाम हमारे नाम के साथ ही लिया जाए.
4.प्रश्न:- आपकी कविताएँ श्रोताओं से सीधा संवाद करती हैं. आप जब कहते हैं कि ‘मेरे खानदान के वयो बुजुर्ग दादा बोले, प्रतिदिन गंगा में नहाना चाहता हूँ मैं, बाकी बचे जीवन को भोले की शरण जाके राम राम जपके गँवाना चाहता हूँ मैं, जैसे तैसे बीत गयी ये जवानी, आसाराम सा बुढ़ापा ना बिताना चाहता हूँ मैं, और मेरी अंतिम इच्छा है कि एक बार, राधे माँ को गोद में उठाना चाहता हूँ मैं” तो लोग लोटपोट हो जाते हैं. अपने ऊपर का व्यंग्य सबसे उत्तम माना जाता है. ये व्यंग्य स्वतः आपके मन में आते हैं या सामने के श्रोताओं की माँग के अनुसार रचनाओं को ढ़ालते हैं.
उत्तर:- देखिये, हास्य और उपहास में अंतर है. आदमी जब सामने के श्रोताओं की माँग को या उसको देखकर रचेगा तो वह हास्य ना होकर हास्यास्पद होगा. अपने ऊपर हँसना और अपने ऊपर घटित स्थितियों का वर्णन उनको शब्द देकर करना, उनको शब्द चित्र बनाकर हँसाना बड़ी बात होती है. जैसा आपने कहा कि हास्य वही श्रेष्ठ होता है जो खुद पर हँसा जाए तो खुद को तमाशा बनाना बड़ा कठिन काम है और अपने पर हास्य उत्पन्न करके लोगों को हँसाना और कठिन होता है. हम नेता पर व्यंग्य करते हैं तो नेता को बुरा भी लग सकता है. देखिये, दोनों चीज की हँसी और हँसने में थोड़ा सा अंतर है. एक बच्चा हँसता है तो हँसी निश्चल होती है, एक महिला की जो मुस्कुराहट है वो निश्छल होती है. एक मोटा आदमी केले के छिलके पर फिसल कर गिर जाये तो वह जो हँसी आती है वह उपहास वाली हँसी है. वो उनकी विकृतियों पर, उनके चाल- चलन पर, उनका ना देखकर चलना भी एक हास्य है लेकिन इस हास्य को श्रेष्ठ नहीं माना जाता. लेकिन यदि गिरने वाला व्यक्ति खुद हँसे, अपनी जड़ता, मूर्खता या उपलब्धि पर हँसे तो इस हँसी को देखकर ठहाके निकलते हैं और यह बड़ा निर्मल और पवित्र हँसी होती है. व्यक्तिगत दर्द का समाजीकरण जब किया जाता है तो उसी का नाम कविता है. यदि हम खुद गिरे और अपनी मूर्खता पर हँसे तो उस हँसी से पूरी सृष्टि हँसती है, जगत हँसता है, श्रोता भी हँसते हैं और श्रोता का तादात्म्य संबंध बनता है. जब मैं कहता हूँ कि ‘नया-नया टी.वी. जब घर में खरीदा गया, हाथ में रिमोट ले पसर गए बाबूजी’ तो श्रोता इन पंक्तियों में अपने आप को स्वतः घुसा समझता है, उसको आनंद की अनुभूति होती है तो हँसी स्वतःस्फूर्त निकलती है.
5.प्रश्न:– हास्य के नाम पर आजकल मंचों पर से चुट्कुले सुनाये जा रहे हैं. लोग कहते हैं कि पहले वाली बात अब नहीं रही. पहले के कवि सम्मेलन और अभी के कवि सम्मेलन में आप क्या अंतर पाते हैं?
उत्तर:- आपका कथन सत्य है मैं इससे सहमत हूँ लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अब मंचो पर हास्य के नाम पर केवल चुटकुले ही सुनाए जा रहे हैं. हां! आप यह कह सकते हैं अधिक मात्रा में चुटकुले सुनाए जा रहे हैं लेकिन हास्य की कविताएँ भी सुनाई जा रही हैं. बहुत सारे नाम हैं जो हास्य लिखते हैं, अच्छा लिखते हैं उसमें मैं भी हूँ. बहुत लोग हास्य की रचना छंदोबद्ध करते हैं और लिख रहे हैं. अच्छी कविताओं के भी श्रोता हैं और चुटकुलों के भी श्रोता हैं. दोनों चल रहे हैं और युग के हिसाब से, समय के हिसाब से विसंगतियाँ तो आती रहती हैं और उसका कोई अर्थ नहीं है. गीत भी अच्छे सुने जा रहे हैं, ओज की रचनाएँ भी सुनी जा रही हैं. कवि जब रचने में असमर्थ होता है तो चुटकुलों का प्रयोग करता है. जब आप जैसे साहित्यप्रेमी इसकी चर्चा करेंगे तो श्रेष्ठ श्रृजन को ही प्राथमिकता देंगे. चुटकुलों का प्रयोग दाल में नमक की तरह हो. लेकिन विडंबना है कि चुटकुलों की अधिकता हो गई है, यह थोड़ा चिंता का विषय है लेकिन यह बहुत स्थायी रहने वाला नहीं है. कवि और लाफ्टरवालों में अंतर रखना आवश्यक है. यह बड़े साहित्यकारों की भी जिम्मेदारी है. आयोजकों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह कवि सम्मेलन के नाम पर चुटकुला सम्मेलन नहीं करें. इस बात से मैं सहमत हूँ कि कवि सम्मेलनों में थोड़ा सा अंतर आया है.
6.प्रश्न:- आपकी कविताओं में प्रकृति, विरह, दर्द, धोखा और असंतोष के बदले सामाजिक जीवन, व्यावहारिक जीवन और सामान्य राजनीति को छूतीं पंक्तियाँ होती हैं. आप स्वतः भी कहते हैं कि हम यथार्थ के कवि हैं ज्यादा कल्पना में नहीं पड़ते. सामान्य जन को ज्यादा ग्राह्य भी यही होता है. यथार्थ और कल्पना को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर:- यह बिल्कुल सही है. कविता में कल्पनाएँ भी की जाती हैं और यथार्थ भी. लेकिन श्रोता को वही ज्यादा ग्राह्य होता है जो यथार्थ के करीब हो. पहले से चला आ रहा है कि वियोगी होगा पहला कवि, और श्लोकः शोकत्वमागतः. क्रौंच पक्षी को तीर लगने पर मादा क्रौंच का क्रन्दन, दर्द अचानक महाकवि वाल्मीकि के ह्रदय से फूटता है. कोई न कोई महिला रोज पत्थर तोड़ती है किसी न किसी सड़क पर, लेकिन इलाहाबाद के सड़क पर पत्थर तोड़ती हुई किसी बुढ़िया के हाथों के फफोले जब निराला के ह्रदय में फूटते हैं तब कविता का जन्म होता है. कोई दुख की बदली जब महादेवी वर्मा के आँखों से बरसती है तो कविता का जन्म होता है. संवेदना को जीना ही कवि होना है. अब हम अपनी संवेदना को, विसंगति को, सामाजिक दर्द को, थोड़ा सा शब्दों के माध्यम से मोड़ देकर के हास्य उत्पन्न कर देते हैं, व्यंग्य कर देते हैं तो कविता हो जाती है. यथार्थ के करीब जो कविताएँ होती हैं वे अधिक दिनों तक जीवंत रहती हैं और श्रोता वर्ग अपने आपको उसमें समाहित मानता है. मैं शास्त्र से एक बात कहता हूँ जो साहित्य शास्त्र में है. जैसे हम रामलीला देखते हैं तो हम जानते हैं कि यह जो रावण का रूप धारण कर मंचन कर रहा है यह चौराहे पर का हलवाई है. सीता जो बना है वह भी एक पुरुष लड़का है. हम इस चीज को जानते हैं लेकिन रामलीला में सीता हरण का दृश्य जब दिखाया जाता है तो गाँव के लोग उस दृश्य से अपने आप को इतना तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं, इतने लीन हो जाते हैं कि सीता हरण के दृश्य में उसके आँखों से आँसू गिरने लगते हैं. यहीं से रस अभिव्यक्त होता है. आदमी उसमें तादात्म्य स्थापित कर लेता है, ठीक यही होता है यथार्थ की रचनाओं के साथ. हम हास्य रस की उत्पत्ति के लिए जब विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव, आलंबन, उद्दीपन इत्यादि का आश्रय लेते हैं तो श्रोता इसमें खुद को शामिल मानता है. वह जानता है कि अनिल चौबे राधे माँ को गोद में उठाने की बात करते हैं, अपने दादा की बात करते हैं, साधारण सी बातों को लेकर आते हैं लेकिन वर्तमान में घटने वाला यथार्थ है और श्रोता जब उसमें खुद को शामिल मानता है तो उसे ज्यादा रस की अनुभूति होती है, रस की अभिव्यक्ति होती है और वह हँसने पर मजबूर होता है, तालियाँ बजाता है. हर कविता में कहीं ना कहीं से यथार्थ का ही वर्णन होता है, कभी 5% यथार्थ होता है और कभी 95%. बिना यथार्थ के कोई शब्द चित्र बना ही नहीं सकता है.
- प्रश्न:-आजकल हिन्दी भाषी भी हिन्दी में बात करना पसंद नहीं करते. क्या आप मानते हैं कि हिन्दी भाषा/ हास्य हिन्दी कविताओं का अस्तित्व संकट में है? मोबाईल युग आने से हिन्दी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है?
उत्तर:- हिंदी भाषी व्यक्ति भले हिंदी बोलना ना चाह रहा हो या हिंदी बोलने में उसको असहजता या अपमान महसूस हो रहा हो लेकिन हिंदी का भविष्य बहुत उज्ज्वल है. मोबाइल युग आने पर भी हिंदी कविताओं पर, हिंदी की रचनाओं में, हिंदी पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ने वाला नहीं है. हिंदी का भविष्य बहुत उज्ज्वल है. मोबाइल पर कई पत्रिकाएँ आ गयी हैं. नेट से आदमी जिसकी रचना जब चाहे खोलकर पढ़ सकता है. लाइब्रेरी तक की किताबें पीडीएफ में उपलब्ध हैं. हिंदी पल्लवित पुष्पित हो रही है और हिंदी का कुछ भी ह्रास होने वाला नहीं है. हिंदी और विकसित होने वाली है. विदेशों तक कवि सम्मेलनों का आयोजन बढ़ता ही जा रहा है और हिंदी को बहुत आदर सत्कार मिल रहा है. हमारी तो लंदन तक की यात्रा हुई है और हमने हिंदी में काव्य पाठ किया, हिंदी सुनाये, हिंदी में रचनाएँ सुनाये, हिंदी के महत्व पर भाषण दिए और सबने पूरा आदर सम्मान दिया. यह किसी व्यक्ति की मानसिक स्थिति हो सकती है कि वह समझ रहा है कि हिंदी में सम्मान नहीं मिलेगा.
8.प्रश्न:- आप मानते हैं कि कवियों में, साहित्य में भी गुटबाजी, किसी को नीचा या ऊपर कराने का, जुगाड़ का खेल होता है? दिया जाने वाला पुरस्कार भी इन बातों से प्रभावित होता है?
उत्तर:- इस तरह के प्रश्न हमारे सामने कई बार आए हैं लेकिन मैं बहुत साधारण सा सीधा-साधा आदमी हूँ. मुझे अभी तक यह पता नहीं चला कि कवि सम्मेलनों में या कवियों में गुटबाजी है या आपस में गोलबंदी है. यह मेरे साथ अभी तक नहीं हुआ है. मुझे हर रस के, मुझसे जितने बड़े कवि हैं उन सबका स्नेह मंचों पर मिला है और सबने हमारा समर्थन किया है, हमारी रचनाओं की तारीफ की है. हमारे अनुज जो मेरे बाद मंचों पर आये और लिख रहे हैं, उनका भी बहुत स्नेह, आदर-सत्कार हमको मिलता रहता है. पुरस्कार गुटबंदी से प्रभावित होते ही होंगे लेकिन इस विषय में मैं बहुत ज्यादा नहीं जानता. मेरे सामने जिनको भी मिला है वो उस पुरस्कार के हकदार थे और लायक को ही मिला है, इसमें मैं इतना ही कहना चाहूँगा.
9.प्रश्न:– नये कवियों/ रचनाकारों, ग्रामीण, छोटे स्थानों के कवियों/ रचनाकारों को जो अच्छा लिखते हैं परन्तु संसाधन नहीं होने के कारण प्रकाशक गंभीरता से नहीं लेते, मंच नहीं मिलता. खासकर नये कवि को प्रकाशक छापना नहीं चाहते, उनको आप क्या सलाह देंगे?
उत्तर– कवि, रचनाकार सिर्फ रचनाकार होता है. कोई छोटा या बड़ा नहीं होता. हमारी दृष्टि में जो छोटा है वह और ज्यादा मेहनत करता है, उसको लिखने में सारी चीजों को ध्यान में रखना होता है. प्रकाशक छापना नहीं चाहते तो यह एक समस्या का विषय है, इस समय लोग किताबें खरीद कर पढ़ना बहुत कम कर दिए हैं. जब किताबें खरीदी नहीं जायेंगी तो कोई प्रकाशक किसी को क्यों छापेगा? नये रचनाकार हैं, चाहे वह सुदूर प्रांत में संसाधन विहीन हैं लेकिन मेरा मानना है कि यदि आप रचते हैं, आप बढ़िया लिखते हैं तो आपको आज नहीं तो कल अवश्य स्थान मिलेगा. आपकी रचनाओं को पहचाना जाएगा और आपको सम्मान मिलेगा, आपको बुलाया जाएगा. रही बात संसाधन की तो आज तो पहले की अपेक्षा और अधिक संसाधन हैं. आप अपनी रचनाओं का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल सकते हैं, व्हाट्सएप से अपनी मित्र मंडली को भेज सकते हैं, आप खुद का प्लेटफार्म भी खड़ा कर सकते हैं और यदि आपकी रचनाओं में दम है, आपने यदि श्रेष्ठ लिखा है तो समाज उसको स्वीकार करेगा. आपका यश, आपकी प्रतिष्ठा में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहेगी. प्रकाशन की बात पर खुशी की बात है कि अभी डॉक्टर कुमार विश्वासजी की एक किताब को वाणी प्रकाशन ने एक करोड़ रुपये में अनुबंधित किया है. यह भी सच है कि नेट का युग है जब सारी रचनाएँ, सभी किताबें हमें मोबाइल पर मिल रही हैं तो हम पैसा खर्च कर किताबें क्यों खरीदेंगे? अगर व्यक्ति किताब नहीं खरीदेगा तो प्रकाशक किताब क्यों छापेगा, यह थोड़ी सी समस्या तो है.
10.प्रश्न:- साहित्य जीवन यापन का साधन नहीं रह गया है. आप साहित्य में अपना भविष्य तलाश रहे नयी पीढ़ी के रचनाकारों, नये कवियों को क्या कहेंगे?
उत्तर:- साहित्य से रोटी कमाना और पेट पालना थोड़ा कठिन काम है. आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ लेकिन हमारा यह भी अनुभव है कि यदि आप पूर्ण समर्पण के साथ रचनाएँ रचते हैं, कविताएँ लिखते हैं, आप में नयापन है और आप परिश्रम कर रहे हैं तो माँ सरस्वती सारी व्यवस्था कर देती हैं. नये कवियों, हमारे अनुज, हमारे बाद की आने वाली पीढ़ी को मैं बस एक वाक्य कहना चाहूँगा कि लेखन का कोई विकल्प नहीं है. आप यदि श्रेष्ठ रचते हैं तो आज नहीं तो कल आपको स्थान मिलेगा, यश मिलेगा, पैसा मिलेगा और सब हो जाएगा. कवि आचार्य मम्मट ने काव्य के प्रयोजन बताए हैं. कविता क्यों रची जाती है. काव्यम यशसे, काव्य यश के लिए लिखा जाता है. यश किसको मिला? कालिदास को यश मिला. अर्थ कृते, अर्थ के लिए भी लिखा जाता है. धावक इत्यादि जो कवि थे उनको धन मिला. व्यवहार भी दे, कविताएँ इसलिए भी लिखी जाती है कि व्यवहारिक ज्ञान हो कि राम के तरह का आचरण करना चाहिए ना कि रावण की तरह. कविता से लोक व्यवहार का भी ज्ञान होता है. अमंगल का नाश होता है कविता करने से. अकल्याण तत्व नष्ट हो जाता है. मयूर नाम के कवि को कुष्ठ रोग हो गया था फिर उन्होंने सूर्य शतक लिखा तो फिर उनकी व्याधि शांत हो गयी.
कहने का आशय है कि कविता लिखने के प्रयोजन हैं. केवल एक ही मतलब नहीं है कविता का. कविता से यश मिलेगा, अर्थ मिलेगा, लोक व्यवहार का ज्ञान होगा, कविता एक अच्छी पत्नी की तरह पग-पग पर यह उपदेश देती है कि आपको क्या करना है और क्या नहीं करना है. नये अनुज कवियों से मैं यह कहना चाहूँगा कि कविता रचिये तो फिर तन मन से रचिये, उसका कोई विकल्प नहीं है. जब आप अच्छा लिखेंगे तो सारे मार्ग धीरे- धीरे खुल जायेंगे.
11.प्रश्न:- आज के नये रचनाकारों/ कवियों में कुछ ऐसे नाम बतायें जिनसे आपको साहित्य में कुछ आशाएँ हैं?
उत्तर:- नये रचनाकार जो आजकल आ रहे हैं वो बहुत परिश्रम कर रहे. वो बहरों की जानकारी, छंदों की जानकारी लेकर काफी मेहनत के साथ मंचों पर आ रहे हैं. लखीमपुर खीरी के गीतकार ज्ञान प्रकाश हाकुल से भविष्य में बहुत आशाएँ हैं. ओज में आजकल अवधेश मिश्र रजत बहुत अच्छी रचनाएँ लिख रहे. एक दो नहीं बल्कि अनेक नाम हैं. इनसे बहुत आशाएँ हैं और इनका भविष्य बहुत उज्जवल है.
12.प्रश्न:– आपकी लिखी आपकी सबसे प्रिय पंक्तियाँ कौन सी हैं और आज आप लोगों से क्या कहना चाहेंगे. कुछ पंक्तियाँ हो जाये.
उत्तर– मैंने घनाक्षरी से लेकर अनेक छंदों में बहुत सारे काम किए हैं. गजलें और मुक्तक भी लिखा है. साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते जिस तरह के भाव सामने आये वैसा लिखा. लेकिन हास्य कवि के रूप में ख्याति रही तो हमेशा हास्य कविताएँ ही पढ़ीं. आपका प्रश्न मेरी प्रिय पंक्तियों को लेकर है. मैंने गंगा पर कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं जो मुझे अत्यन्त प्रिय हैं.
“गंगा तो दर्शनार्थ मुक्ति गाने वालो, मेरे जल से झूठी कसमें खाने वालो,
उल्टी पुलटी गंगा रोज बहाने वालो, मेरे नाम पर खाने और कमाने वालो,
सुन लो हमने तीज त्यौहार, धर्म संस्कार, संस्कृति सभ्यता सब कुछ अपने तटों पर एक जगह जोड़ा है,
और तुमने जगह- जगह बाँध बनाकर हमारी गति को मोड़ा है,
तुमने इतने पाप धोये हैं कि हमें आचमन लायक भी नहीं छोड़ा है,
ऋषि पराशर की प्यासी कथा हो या कुंवारी कुंती का रहस्य,
मैं सबकुछ चुपचाप अपनी कोख में पचा जाती हूँ,
लेकिन जब भी कोई श्रद्धा से माँ कहकर बुलाता है
तो रविदास की कठौती में भी आ जाती हूँ.”
यह कविता बहुत लम्बी है. इसकी ही कुछ पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं.
एक जगह भगवान श्रीकृष्ण से माँ गंगा के जल की तुलना करता हूँ. देखें कि-
“दूध दही माखन मिश्री का अक्षय भंडार,
यशोदा और देवकी का मिश्रित दुलार,
यदि कन्हैया को कन्हैया बनाकर,
विश्व में पूजने के लिए मशहूर कर देता है,
तो माँ गंगा का पानीदार पानी,
जब बूढ़े भीष्म के रगों में दौड़ता है,
तो योगेश्वर श्रीकृष्ण को भी कुरुक्षेत्र में हथियार उठाने पर मजबूर कर देता है.”
और इसका समापन होता है कि माँ गंगा कहती है कि
“जानकी नहीं जान्हवी हूँ मैं, मेरी अंतर्वेदना से यह धरा फट भी गयी,
तो मैं इसमें समा नहीं सकती,
मैं जगतारिणी हूँ जहाँ से आयी हूँ वहाँ वापस जा नहीं सकती.”
ये पंक्तियाँ मुझे अत्यंत प्रिय हैं.
तुलसी बाबा कहते हैं कि अपनी कविता तो हर आदमी को अच्छी लगती है. वैसे मुझे मेरी सारी रचनाएँ अच्छी लगती हैं लेकिन यह आपके प्रश्न के अनुसार मैंने आपको सुनाया. आदरणीय झाजी आपको इस वार्तालाप के लिए बहुत- बहुत आभार. मैं भी आपको प्रणाम करता हूँ और शुभकामनाएँ.
विभूति बी. झा:– बहुत-बहुत धन्यवाद. आपको भविष्य की शुभकामनाएँ.
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अनिल चौबे, श्री कृष्ण तिवारी, पंडित चंद्रशेखर मिश्र, सांड बनारसी, सलीम शिवालिक, धर्मशील चतुर्वेदी, झगडु भैया का हमारे घर जौनपुर में आना हुआ है अतः मै निःसंकोच कह सकता हूं कि इस समय देश ही नही बल्कि विदेश में ये काशी के साहित्य का परचम पुरे आन बान और शान के साथ फहरा रहे है. वाकई सर इस बेहतरीन चयन के लिए हम आपको प्रणाम करते है.????
धन्यवाद। प्रणाम।