सामान्य कथ्य और अद्भुत शिल्प की हास्य कहानी है ‘साहब का पेशाबघर’
‘हंस‘ दिसम्बर 2020 माह के अंक में ‘साहब का पेशाबघर’ शीर्षक से श्री प्रमोद द्विवेदी की एक हास्य कहानी छपी है.
इस कहानी में एक चरित्रहीन साहब स्त्री शरीर से विमुख और बीमारियों की गिरफ्त में आने लगते हैं तो उन्हें ज्ञान प्राप्त होता है कि सारी समस्याओं की जड़ सामूहिक पेशाबघर है अतः विभाग के लोगों की मदद से आलीशान, सुरक्षित, खुशबूदार और सुरक्षा निगरानीकर्मी से लैस एकभोगी अदद बेहतरीन पेशाबघर बनवाते हैं. कार्यालय के अन्य मातहत कर्मचारी और महिलाएँ इस अफसरशाही व्यवस्था के विरुद्ध होकर यूनियन की शरण में आते हैं. यहाँ यूनियन का एक अदना नेता चौबेजी बलि का बकरा बनकर पेशाबघर में साहब की इकलौती जमींदारी को ध्वस्त करने का निर्णय लेते हैं तथा ईश्वर और शहीदों को याद करते साहब के पेशाबघर में पुनीत कार्य प्रारम्भ करते तो हैं लेकिन अचानक साहब को देखकर उनकी लिद्दी पलीद हो जाती है. उनका साहब की नाराजगी के कारण बहुत दूर ट्रान्सफर हो जाता है लेकिन पेशाबघर बनने के घोटालों का कलंक और अत्यधिक विवाद होने के कारण यह पेशाबघर सबों के लिए खोल दिया जाता है. अंत में सफलता मिलती है, एकता में बल है पुनः स्थापित होती है. सब सामान्य सा है लेकिन साहब का चरित्र चित्रण और कार्यालय के वातावरण की व्याख्या अद्भुत है.
कहानी बहुत लंबी या बहुत गंभीर नहीं है लेकिन लेखक के शिल्प की तारीफ करनी पड़ेगी कि एक बदबूदार विषय को चटखारे लेकर पढ़ने और नाक लगाकर सूँघने जैसी रचना लिख डाली है. शब्दों का संयोजन उत्तम है. पढ़ने में आनंद भी आता है और बार-बार श्रीलाल शुक्ल की याद भी. खासकर जब चौबेजी निर्णय लेते हैं कि उन्हें साहब के पेशाबघर में जबरन घुसकर मूत्रत्याग करना है, लेखक ने इंकलाबी वातावरण बना दिया है. पेशाबघर को बंद रखने, ताला लगाकर चाबी रखने की व्यवस्था एकदम सरकारी कार्यालय का चश्मदीद है. कहानी लंबी है और पाठक समझता है कि आगे क्या होने वाला है तथापि कौतूहल बना रहता है कि आगे क्या होगा? बहुत दिनों बाद हास्य में एक सुन्दर रचना पढ़ी है.
लेखक को पुनः बधाई और भविष्य की शुभकामनाएँ.
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