‘साइंस फिक्शन’ की तकनीकों से भरपूर “एक लड़की पानी पानी”
सर्वप्रथम “एक लड़की पानी पानी” उपन्यास हेतु श्री रत्नेश्वर कुमार सिंह को बहुत-बहुत बधाई, शुभकामनाएँ. इस पुस्तक का प्रकाशन राजपाल एंड संज, दिल्ली ने आकर्षक रंगीन कवर में मूल्य रुपये 270 रखकर किया है. 238 पेजों के इस उपन्यास में भविष्य के जल संकट की चर्चा है. हिन्दी में साइंस फिक्शन बहुत ही कम लिखे गये हैं. अभी भी हिन्दी का पाठक इन विषयों को लेकर गंभीर नहीं है जबकि ऐसे विषयों की फिल्में तो बहुत चलती हैं. लेखक भी ज़्यादातर बिकाऊ विषयों पर ही ध्यान देते हैं तो इन विषयों की ज़िम्मेदारी कौन ले? ऐसी स्थिति में दोनों को जोड़कर देखने की आवश्यकता थी. लेखक ने संतुलित और समग्रता में गंभीर विषय हिन्दी के पाठकों के सम्मुख रखा है. हिन्दी में साइंस फिक्शन की अपार संभावनाएँ हैं. अब ज़िम्मेदारी पाठकों की है.
‘जल ही जीवन है’ बचपन में रेलवे स्टेशन की दीवार पर लिखा देखा था. देश में जल संकट देखने के बाद विश्वास हुआ. बचपन में स्कूल के चापाकल पर एक सहपाठी हैंडल दबाता था तो चापाकल में ही मुँह लगाकर पानी पीता था. अकेले की स्थिति में पेट के बल हैंडल दाबकर झट से मुँह लगाता था. कभी किसी बैक्टीरिया या वाइरस की हिम्मत नहीं हुई थी छूने की. अब वहाँ भी बिना मोटर के पानी नहीं आता. नौकरी में आया तो ‘वाटर प्यूरिफायर’ खरीदा. बच्चे कुछ बड़े हुए तो 20 लीटर का जार आने लगा. अब जहाँ तहाँ आधा लीटर पानी खरीदने की आदत सी होने लगी है. यह समय के प्रवाह में जीवन की गति है, उपलब्धता है, एक अनदेखा भय से बचने की संतुष्टि है, स्वास्थ्य के प्रति गंभीरता है या संभ्रांत होने का दिखावा है. अलग- अलग परिभाषाएँ हो सकती हैं.
जब भी पीने वाले जल की समस्या की बात होती है तो आसानी से कही जाती है कि इतने सागर हैं, जल भंडार है, कोई ना कोई वैज्ञानिक ऐसा कुछ निकाल देगा कि पीने वाले जल की समस्या समाप्त हो जायेगी. क्या यह इतना आसान है? इसकी अलग से शिक्षा होगी? कोई विशेष विषय होगा? छात्र और छात्रा क्या इस विषय पर शोध करेंगे?
विषय निश्चित रूप से बोझिल है लेकिन लेखक ने इसी मूल भाव को अन्य कई कहानियों के साथ समानांतर चलाकर रोचक बनाये रखा है. कभी यह उपन्यास स्त्री विमर्श, नारी मुक्ति, स्वतंत्र जीवन का पैरोकार है तो कभी‘वाटर रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ की पढ़ाई का हिमायती. स्त्री शरीर, समयानुसार बदलाव, प्राकृतिक कष्टप्रद व्यवस्था की चर्चा वास्तविकता से रूबरू करवाती है. बहुत दिनों बाद खुशवंत सिंह की याद आते-आते रह जाती है, खुलकर आ नहीं पाती. कहानी लड़कियों के छात्रावास से प्रारम्भ होकर, प्रेम कथा से गुजरती अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘वाटर एक्स्पो’और विदेश जाकर पुनः अपने देश आकर कृत्रिम जल निर्माण करने तक आती है. लड़कियों के उन्मुक्त रहने, मन पसंद जीवन बिताने की स्वतंत्रता, खाने- पहनने की स्वतंत्रता तक भारतीय पाठक चाव लेकर पढ़ेगा लेकिन प्रेम में संबंध बनाकर बिना विवाह के बच्चे को जन्म देने के निर्णय को शायद ‘कुछ ज्यादा’ मान ले. बिहार के क्षेत्रों का, खानपान का, जातिगत पारंपरिक कार्य व्यवस्था और बोली व्यवहार का समायोजन बेहतरीन है. लड़कियों के छात्रावास के जीवन का वर्णन भी कुछ ज्यादा पेजों में है. प्रेम सम्बन्धों के बीच से होकर जल संकट की सफल कहानी लिखना किसी अनुभवी उपन्यासकार से ही संभव था. इनकी लिखने की एक विशिष्ट शैली है. पहला पन्ना ही बाँध लेता है. भविष्य का अनुमान कि जल का एटीएम होगा, अनुमान नहीं बल्कि आज की सच्चाई है. अनेक स्टेशनों पर ‘सिक्का डालें और जल बोतल में लें’ प्रारम्भ हो चुका है. कुल मिलाकर रोचक उपन्यास है. मैं पुनः श्री रत्नेश्वर कुमार सिंहजी को बधाई और भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ.
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