दर्जन भर प्रश्न” में लन्दन में रह रहे साहित्यकार श्री तेजेन्द्र शर्मा

व्यक्ति परिचय:-

नामः- तेजेन्द्र शर्मा.

जन्म तिथि व स्थानः- 21 अक्तूबर 1952, (जगराँव, पंजाब).

शिक्षाः एम.ए. अंग्रेज़ी (दिल्ली विश्वविद्यालय).

प्राथमिक/ माध्यमिक/ आगे- स्थानः– शुरूआती शिक्षा रोहतक एवं मौड़ मण्डी (पँजाब), पांचवीं कक्षा से नवीं कक्षा तक (अंधा मुग़ल, सब्ज़ी मण्डी के सरकारी स्कूल में). दसवीं से हायर सेकण्डरी तक दिल्ली के प्रेसीडेण्ट इस्टेट स्कूल से).
बी.ए. ऑनर्स इंग्लिश (डॉ. ज़ाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली). एम.ए. इंग्लिश (दिल्ली विश्वविद्यालय).

पारिवारिक जानकारी:
पत्नी इंदु का निधन कैंसर से 1995 में हो गया. पुत्री आर्या एक कलाकार के रूप में मुंबई में टीवी और फ़िल्मों से जुड़ी है. पुत्र मयंक लंदन में आई.टी. एक्सपर्ट है. बहू उन्नति लंदन में डेंटिस्ट है.

अभिरुचि/क्षेत्रः हिन्दी की मुख्यधारा का सिनेमा. हिन्दी सिनेमा के गीतों में साहित्य की पहचान करना.

कार्यक्षेत्र-भूत/वर्त्तमानः भारत में बैंक ऑफ़ इण्डिया एवं एअर इण्डिया में कार्य किया. ब्रिटेन में बसने के बाद बीबीसी वर्ल्ड सर्विस रेडियो में समाचार वाचक, एवं वर्तमान में लंदन की ओवरग्राउण्ड में कार्यरत.

लेखकीय कर्म- लिखना प्रारम्भ से अब तक:-
पहली पुस्तक अंग्रेज़ी में लॉर्ड बायरन पर थी (1977), दूसरी जॉन कीट्स पर (1978). हिन्दी में लेखन 1979 के अन्त में शुरू किया था. पहली कहानी प्रतिबिम्ब प्रकाशित हुई 1980 में नवभारत टाइम्स समाचार पत्र के साहित्यिक परिशिष्ट में. अंतिम कहानी प्रकाशित हुई जनसत्ता के दीवाली विशेषांक (2020) में यानी कि 43 साल हो गये लिखते छपते.

पुरस्कार व अन्य उपलब्धि:-
पुरस्कार/सम्मान:
1) ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय द्वारा एम.बी.ई. (मेम्बर ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर) की उपाधि 2017;
2) केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा का डॉ. मोटुरी सत्यनारायण सम्मान – 2011.
3) यू.पी. हिन्दी संस्थान का प्रवासी भारतीय साहित्य भूषण सम्मान 2013.
4) हरियाणा राज्य साहित्य अकादमी सम्मान – 2012.
5) मध्य प्रदेश सरकार का साहित्य सम्मान,
6) ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार -1995. तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों.
7) भारतीय उच्चायोग, लन्दन द्वारा डॉ. हरिवंशराय बच्चन सम्मान (2008),
8) टाइम्स ऑफ़ इण्डिया समूह एवं आई.सी.आई.सी.आई बैंक द्वारा एन.आर.आई ऑफ़ दि ईयर 2018 सम्मान.

तेजेन्द्र शर्मा के लेखन पर उपलब्ध आलोचना ग्रन्थः    तेजेन्द्र शर्मा – वक़्त के आइने में (2009), हिन्दी की वैश्विक कहानियां (2012), कभी अपने कभी पराये (2015), प्रवासी साहित्यकार श्रंखला (2017), मुद्दे एवं चुनौतियां (2018), तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार (2018), कथाधर्मी तेजेन्द्र (2018), वैश्विक हिन्दी साहित्य और तेजेन्द्र शर्मा (2018) प्रवासी कथाकार तेजेन्द्र शर्मा (2019), प्रवासी साहित्य एवं तेजेन्द्र शर्मा (2019), भारतेतर हिन्दी साहित्य और तेजेन्द्र शर्मा (2019), वांग्मय विशेषांक (2020).

शोध:– विभिन्न विश्वविद्यालयों से तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों पर अब तक दो पीएच. डी. और दस एम. फ़िल. की डिग्रियां हासिल की गयी हैं. तेजेन्द्र शर्मा की कहानियाँ मुंबई, पुणे, जोधपुर, गोरखपुर, चौधरी चरण सिंह (मेरठ), गौतम बुद्ध (नोयडा) विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं.

संपर्क/ पता/ फोन नम्बर:-
33-A, Spencer Road, Harrow & Wealdstone, Middlesex, HA3 7AN (U.K.)
Mobile: +44-7400313433, Email: [email protected]

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दर्जन भर प्रश्न”

श्री तेजेन्द्र शर्मा से विभूति बी. झा के दर्जन भर प्रश्न और श्री शर्मा के उत्तर:-

1.प्रश्नः नमस्कार, नव वर्ष की अशेष शुभकामनाएँ. आपकी अनेक पुस्तकें लोगों के दिलों पर छा गयीं. हिन्दी के क्षेत्र में ब्रिटेन में आपने जो हिन्दी की सेवा की है वो तारीफ़ के काबिल है. लोगों की इतनी सराहना पर आपकी प्रतिक्रिया?

उत्तरः विभूति भाई आपको भी नववर्ष की मंगलकामनाएँ. आपके तारीफ़ भरे शब्द सुनकर ज़ाहिर है कि अच्छा लग रहा है. मगर मेरा लक्ष्य अपने गोल पर केन्द्रित है. मेरा उद्देश्य बेहतर से बेहतर साहित्य की रचना है. मेरे बस में सृजन है, वो कर्म मैं कर रहा हूँ. फल जैसा भी मिलता है मेरे लिये शिरोधार्य है. सच तो यह है कि मैंने प्राइमरी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में कभी हिन्दी पढ़ी नहीं. और आज मैं जो कुछ भी हूँ केवल हिन्दी के कारण हूँ. जहाँ तक लेखन का सवाल है, मेरा प्रयास रहता है कि मैं तब तक न लिखूँ जब तक मेरे पास कहने के लिये कुछ नया न हो. मैं कभी किसी लेखक से अपनी तुलना नहीं करता. मेरा प्रयास यह रहता है कि मेरी नयी रचना मेरी पुरानी रचना से बेहतर हो. मेरे लेखन को पढ़ना, उस पर प्रतिक्रिया देना या फिर उसे सम्मानित करना पाठकों, आलोचकों और संस्थाओं की परिधि में आता है. साहिर लुधियानवी के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए बस इतना ही कहना चाहूँगा कि “मुझसे पहले कितने लेखक, आए और आकर चले गये… कल और आयेंगे, नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले / मुझसे बेहतर कहने वाले, मुझसे बेहतर सुनने वाले. अगर मैं नहीं होता तो कोई औऱ होता… कल कोई और होगा.

प्रश्न 2. आपके साहित्य के पसंदीदा रचनाकार कौन कौन हैं? आपका नाम किन साहित्यकारों के साथ लिया जाये? आपकी क्या इच्छा है?

उत्तरः मेरी पसन्द के मूल साहित्यकार तो अंग्रेज़ी से हैं क्योंकि मैंने एम.ए. दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में पास की है. चार्ल्स डिकन्स, एमिली ब्रॉण्टी, मार्क ट्वेन, लुईजी पिरेण्डलो, इब्सन, शेक्सपीयर, बर्नर्ड शॉ, बायरन, कीट्स, शैली जैसे बहुत से साहित्यकारों ने मुझे प्रभावित किया है. रूसी लेखकों से भी प्रभावित रहा हूँ. जहाँ तक हिन्दी लेखकों का सवाल है मुझे जगदीश चन्दर एवं पानू खोलिया ने तो समग्र रूप से प्रभावित किया है मगर अन्य लेखकों की रचनाएँ पसन्द हैं और उसकी एक लम्बी सूची है. मगर मुझे किसी भी लेखक ने ऐसा प्रभावित नहीं किया है कि मैँ उनकी तरह लिखने का प्रयास करूँ.  अब तक पच्चीस लेखकों को तो कथा यू. के. के माध्यम से सम्मानित किया जा चुका है. ज़ाहिर है कि उनकी रचनाएँ मुझे पसन्द होंगी ही. उनके अलावा भी युवा पीढ़ी के बहुत से लेखक हैं जिनकी रचनाएँ मुझे भीतर तक छूती हैं. मेरे समकालीन लेखकों में शामिल हैं उदय प्रकाश, संजीव, सृंजय, जयनंदन, हृषिकेश सुलभ, एस. आर. हरनोट, अवधेश प्रीत जैसे नाम. ज़ाहिर है कि अपनी पीढ़ी के लेखकों के साथ ही खड़ा दिखाई देना चाहूँगा. मैं हिन्दी सिनेमा के गीतकारों से भी प्रभावित हूँ. शैलेन्द्र, साहिर, शकील,  कैफ़ी, भरत व्यास, प्रदीप, राजेन्द्र कृष्ण, मजरूह आदि से मैनें सीखा है कि बिना कठिन भाषा का इस्तेमाल किये भी गहरी बात की जा सकती है.

प्रश्न 3:- दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षा के उपरांत तो छात्र सिविल सेवा की ओर उन्मुख होते हैं.  आपकी पसंद के मूल साहित्यकार अंग्रेज़ी के हैं; अंग्रेज़ी की शिक्षा लेकर अंग्रेज़ी वातावरण में लंदन में रेल-विभाग में कार्य करते हुए हिन्दी में लिखना अद्भुत है लेकिन विरोधाभासी लगता है. फिर आप हिन्दी साहित्य में कैसे आये?  साहित्यकार कैसे बने?

उत्तरः विभूति भाई मेरा जीवन सीधी रेखा नहीं है. इस सीधी रेखा की कई परतें हैं. दरअसल मैंने दिल्ली में हायर सेकण्डरी करने के बाद बैंक ऑफ़ इण्डिया में नौकरी कर ली. उसके साथ साथ दिल्ली कॉलेज ईवनिंग क्लासेस से बी.ए. ऑनर्स अंग्रेज़ी किया और आर्ट्स फैकल्टी से एम.ए. अंग्रेज़ी. उसके बाद मुंबई चला गया एअर इण्डिया में फ़्लाइट परसर बनने के लिये. 20 साल पूरी दुनियां घूमता रहा. अंग्रेज़ी बोलता था, पढ़ता था और लिखता था. मगर मेरा विवाह इन्दु से हो गया जिसने दिल्ली के आई.पी. कॉलेज से एम.ए. हिन्दी में किया था. मुंबई में उसने आधुनिकतम उपन्यासों पर पी एच डी. शुरू कर दी. मैंने उसके 70 / 75 उपन्यास पढ़ डाले. लगा कि मैं भी हिन्दी में लिख सकता हूँ. मेरी पहली हिन्दी कहानी प्रतिबिम्ब मुंबई के नवभारत टाइम्स में 1980 में प्रकाशित हुई थी. क्योंकि पूरी दुनिया घूमता था इसलिये मेरी कहानियाँ भी वैश्विक होती थीं. मेरी पत्नी ने मेरी पहली 25 कहानियाँ एडिट कीं. मगर 1995 में उनका कैंसर से निधन हो गया. और मैं 1998 में जब भारत छोड़ो आन्दोलन का हिस्सा बना और बच्चों के साथ लंदन आकर बसा, तब तक वाणी प्रकाशन से मेरे तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे. और ‘ढिबरी टाइट’ कहानी संग्रह के लिये मुझे प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी सम्मान मिल चुका था. एक राज़ की बात और. 1990 के दशक में मैं दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले टीवी धारावाहिक शान्ति की लेखन टीम में भी शामिल था.

प्रश्न 4. – अर्थात आप हिन्दी में अपनी स्वर्गीय पत्नी के कारण आये. आपकी दृष्टि में पुरानी हिन्दी और आजकल की नयी वाली हिन्दी के बीच पाठक अपने को आज कहाँ देखता हैउत्तम कृति और बेस्ट-सेलर पुस्तक दोनों दो दिशाओं की बात हो गयी है. आपकी राय क्या है?

उत्तरः जी आप सही समझे. मुझे हिन्दी साहित्य में लाने वाली मेरी दिवंगत पत्नी ही थी. यदि आज हिन्दी साहित्य में मेरा कोई भी स्थान है तो उसका श्रेय पूरी तरह से इन्दु को ही जाता है.
अब आपके सवाल का दूसरा हिस्सा… हिन्दी साहित्य में बेस्ट-सेलर एक मिथ है. जब हमने लिखना शुरू किया था तो प्रकाशक ग्यारह सौ प्रतियाँ प्रकाशित किया करता था. आज तीन सौ करता है और ग्यारह सौ में किताब के चार संस्करण हो जाते हैं और किताब बेस्ट-सेलर हो जाती है. जबसे हिन्दी की बड़ी पत्रिकाएँ बन्द हुई हैं हिन्दी का विशुद्ध पाठक जैसे ग़ायब ही हो गया है. आज आधे पाठक तो लेखक ही हैं और चालीस प्रतिशत विद्यार्थी. वो पुराना पाठक जो पोस्ट कार्ड या इन्लैण्ड लैटर पर अपनी प्रतिक्रिया लिख कर भेजा करता था, वो तो विलुप्त प्रजाति बन चुका है. उत्तम कृति और बेस्ट-सेलर का आपस में कुछ लेना देना नहीं है. शायद प्रेमचन्द को छोड़ कर क्वालिटी और क्वान्टिटी का रिश्ता अन्य लेखकों के हिस्से नहीं आता. गुनाहों का देवता हिन्दी साहित्य की शायद सबसे अधिक बिकने वाली कृति है. मगर यह उपन्यास धर्मवीर भारती की श्रेष्ठतम कृति तो नहीं ही है.
अब बात आती है आजकल वाली कृत्रिम रूप से बनाई गयी नई हिन्दी की. यह केवल अख़बारी हिंग्लिश है. यह कभी भी साहित्यिक भाषा नहीं बन पाएगी. पहले भी जासूसी पंजा, जासूसी दुनिया, कर्नल विनोद, कैप्टन हमीद, विजय, रघुनाथ, इंस्पेक्टर ख़ान और सार्जेण्ट बाले जैसे नाम बेस्ट-सेलर होते थे. वैसे ही गुलशन नन्दा भी थे. मगर उनका शुमार साहित्य में हो नहीं पाया. ये बुख़ार भी समय के साथ साथ उतर जाएगा. हमें भाषा प्रेमचन्द वाली ही चाहिये. सरल, सहज और गहरी.

प्रश्न 5.- लोग आजकल अपने बच्चों के साथ घर में भी हिन्दी में बात करना प्रतिष्ठा के विपरीत मानते हैं, ऐसे में आप अँग्रेजी वातावरण में रहते हुए हिन्दी की सेवा कर रहे हैं. क्या धीरे-धीरे हिन्दी विलुप्त हो जायेगी? क्या आपको हिन्दी भाषा का भविष्य अंधकारमय लगता है?

उत्तरः जी यह तो सच है कि उच्च-वर्ग और उच्च-मध्य वर्ग परिवारों में बोलचाल की भाषा अंग्रेज़ी बनती जा रही है. और यह प्रक्रिया आज की नहीं कम से कम तीन दशकों से विकसित हो रही है. जब हम स्कूल में थे तो सरकारी स्कूलों का स्तर बेहतर होता था. घर में पंजाबी बोलते थे. स्कूल में हिन्दी और अंग्रेज़ी. मगर अधिक हिन्दी. मगर सेकण्डरी स्कूल में विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण फ़िज़िक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स, मैकेनिकल ड्राइंग सभी अंग्रेज़ी में पढ़ाए जाते थे. और हाँ अंग्रेज़ी तो अंग्रेज़ी में ही पढ़ाई जाती थी. यदि हमारे समय के सरकारी स्कूलों में ऐसा था तो आज 50 वर्षों बाद तो हालात पूरी तरह से बदल गये होंगे. हमारे माता पिता हमसे पंजाबी में बात करते थे. मैं और इंदु अपने बच्चों से हिन्दी में बात करते थे. आज भी मेरा बेटा और बेटी मुझसे हिन्दी में ही बात करते हैं. मेरी बेटी तो टीवी सीरियलों में एक्टिंग करती है– हिन्दी में. और मेरा बेटा जो कि लंदन में रहता है, देवनागरी में हिन्दी लिख लेता है. भविष्य अनिश्चित हो सकता है, अन्धकारमय नहीं.

प्रश्न 6. – क्या आपको विदेश में रहकर हिन्दी में लिखना और पाठक वर्ग को प्रभावित करना कठिन लगता है? ब्रिटेन और आसपास के देशों में उनकी स्थानीय भाषाओं के साहित्य की और लेखकों की क्या स्थिति है? उनकी सरकार का सहयोग क्या है? भारत में हिन्दी के रचनाकारों की तुलना में आपके क्या विचार हैं?

उत्तरः देखिये विभूति भाई, विदेश में हिन्दी लिखने पढ़ने वाले पहली पीढ़ी के प्रवासी ही होते हैं. यह स्थिति बदली नहीं है. मैंने पहले भी कहा है कि प्रकाशक और पाठक के लिये हम भारत की ओर ही देखते हैं. मैं तो ख़ासा भाग्यशाली हूँ कि मुझे प्रकाशक, आलोचक और पाठक भरपूर मिले हैं. मगर यह सच है कि भारतेतर लेखकों को इस क्षेत्र में ख़ासा संघर्ष करना पड़ता है. एक बात और भारतीय पाठकों ने विदेशी जीवन देखा नहीं है. और हमारे लेखन के केन्द्र में अपने अपनाए हुए देश का समाज और सरोकार होते हैं. इसलिये बहुत सी बातें हमारे पाठकों और आलोचकों तक पहुँच नहीं पाती.
अंग्रेज़ी के लेखकों की तुलना में भारत में ही हिन्दी का लेखक बेचारा सा महसूस करता है तो भला इंग्लैण्ड में वो कैसे उनके सामने खड़ा हो सकता है. हिन्दी के लेखक की दयनीय स्थिति इससे समझी जा सकती है कि बड़े से बड़े लेखक को यह बताना पड़ता है कि वह एक लेखक है जबकि चेतन भगत जैसे लेखक को पूरी दुनिया एक लेखक के रूप में पहचानती है. ब्रिटेन की सरकार के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह निष्पक्ष रूप से सभी डायस्पोरा लेखन को समान रूप से सहायता प्रदान करती है.
भारत के आलोचकों ने हिन्दी साहित्य को कई खाँचों में बाँट रखा है. दलित, आदिवासी, नारी विमर्श, प्रवासी और न जाने क्या क्या. मुझे समझ नहीं आता कि आख़िर हिन्दी की मुख्यधारा में किस लेखक का साहित्य आता है और उसके मानदण्ड क्या हैं. जब अंग्रेज़ी के भारतीय मूल के लेखकों और भारतीय लेखकों को बुकर्स अवार्ड  के योग्य माना जाता है तो फिर भारतेतर हिन्दी लेखकों को साहित्य अकादमी और अन्य पुरस्कारों और सम्मानों से दूर क्यों रखा जाता है. मेरा मानना है कि पूरे हिन्दी साहित्य को केवल हिन्दी साहित्य कहा जाए. विमर्शों में बँटा हिन्दी साहित्य कमज़ोर पड़ जाता है.

प्रश्न 7. – आजकल साहित्य में आकर अचानक से छा जाने की, पुरस्कार पाने की होड़ मची है. साहित्य में सफल होने का कोई शॉर्टकट है? आपका क्या विचार है?

उत्तरः आपने ठीक कहा कि तुलनात्मक रूप से युवा पीढ़ी सम्मान एवं पुरस्कार पा लेने की जल्दबाज़ी में है. मुझे याद आती है कि मुझे पहला उल्लेखनीय सम्मान ‘महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी सम्मान’ क़रीब 19 वर्ष के लेखन के बाद मिला था. मैं आज भी तैयार रहता हूँ कि मेरी रचना पत्रिका द्वारा लौटाई जा सकती है. मैं ‘पुरवाई’ पत्रिका का संपादक हूँ, मगर उसमें कभी अपनी कहानियाँ, ग़ज़लें या कविताएँ प्रकाशित नहीं करता. साहित्य एक धीरे धीरे पकने वाली प्रक्रिया है. लेखन में गहराई और निरंतरता ही उल्लेखनीय साहित्य की कसौटी बन जाती हैं. महत्वपूर्ण रचनाएँ तो अपने संपूर्ण लेखकीय जीवन में कोई भी लेखक बहुत थोड़ी सी लिख पाता है.
उच्चकोटि का साहित्यकार बनने का कोई शॉर्टकट नहीं है. मेहनत, मशक्कत, फ़ोकस और कमिटमेण्ट बहुत ज़रूरी हैं. फ़ेसबुक और व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया ने जहाँ साहित्य को नये मंच दिये हैं वहीं गुणवत्ता का ख़ासा नुकसान किया है. बेल्जियम के ग़ज़लकार कपिल कुमार का एक शेर यहाँ मेरी बात सही ढंग से कह देगा –  “इन्हें चाहिए  एक दिन में वो सब कुछ/ जो पाने में हमको ज़माने लगे हैं”.

प्रश्न 8. – साहित्यकार अभी हिंसा और किसी के भी साथ यौन संबंधों वाली रचनाओं की ओर उमड़ पड़े हैं…   क्या इसे आप सस्ती लोकप्रियता या सफलता की सीढ़ी मानते हैं? आपकी दृष्टि में लेखन में अश्लील गालियों का हू-ब-हू प्रयोग और इस प्रकार के यौन संबंधों की क्या सीमाएँ होनी चाहिए?

उत्तरः यथार्थवाद के नाम पर बहुत कुछ ऐसा परोसा जाता है जिसकी आवश्यक्ता नहीं होती. हर कहानी का अपना थीम होता है, पृष्ठभूमि होती हैं, चरित्र होते हैं, घटनाक्रम होता है. उसकी ज़रूरत के हिसाब से अपनी कल्पनाशक्ति का इस्तेमाल करते हुए लेखक कहानी गढ़ता है. कुछ लेखक विमर्श के नाम पर और कुछ बोल्डनेस के नाम पर यौन-संबन्धों पर लगातार लिखते हैं और गालियों का ख़ासा प्रयोग करते हैं. जैसे सिनेमा में अनुराग कश्यप जैसे लोग हिंसा, सेक्स और गालियों के बिना फ़िल्म नहीं बना सकते, कुछ लेखक इनके इस्तेमाल के बिना लिख नहीं सकते. यदि लेखक ये सब ख़ुद मज़ा लेने के लिये या पाठक को गुदगुदाने के लिये करता है, तो कमज़ोर रचना का सृजन करता है. दलित साहित्य में गालियाँ, नारी विमर्श में सेक्स और हिंग्लिश टाइप लेखन में, तीनों साहित्य को हल्का करते हैं. बहुत कुछ इशारों से भी कहा जा सकता है. मैं विक्टोरियन काल का जीव नहीं हूँ, मगर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमाएँ समझता हूँ.

प्रश्न 9. – नये रचनाकारों, ग्रामीण, छोटे स्थानों के रचनाकारों को जो अच्छा लिखते परन्तु संसाधन नहीं होने के कारण प्रकाशक गंभीरता से नहीं लेते, उनको आपकी क्या सलाह है? साथ ही लेखन जीवन यापन का साधन नहीं रह गया है, इसके लिए आप नये रचनाकारों को क्या सलाह देंगे?

उत्तरः विभूति भाई यह समस्या आज की नहीं है. कभी प्रयागराज साहित्य का केन्द्र हुआ करता था तो कभी वाराणसी. आज दिल्ली है. मैं जब मुंबई में रहता था तो मुझे भी बाहर का आदमी ही समझा जाता था. मगर भाग्यशाली था कि मेरे पहले 4 कहानी संग्रह वाणी प्रकाशन से छप कर आए. सभी बड़े प्रकाशक दिल्ली में हैं और हर लेखक का सपना होता है कि उसकी कृति राजकमल, वाणी, राजपाल, किताबघर, प्रभात जैसे बड़े प्रकाशकों के यहाँ से छपे. बहुत से लेखक ऐसे भी हैं जो रहते तो उत्तर प्रदेश, बिहार, या मध्य प्रदेश में हैं परन्तु उनकी कृतियाँ दिल्ली से ही प्रकाशित होती हैं. साहित्य एक मामले में सिनेमा से बेहतर है कि यहाँ परिवारवाद नहीं होता. लेखक के पुत्र-पुत्री लेखक नहीं बन सकते. यानी कि छोटे स्थानों या ग्रामीण लेखकों को परिवारवाद से दो चार नहीं होना पड़ता. मुझे एक नाम याद पड़ता है पानू खोलिया. वे मेरे प्रिय लेखकों में से एक थे. मगर राजस्थान से होने के कारण उन्हें वो महत्व नहीं मिल पाया जो दिल्ली से होने पर मिल जाता. मगर ऐसे लेखक भी हैं जैसे कि ज्ञान प्रकाश विवेक जिन्होंने सारी उम्र दिल्ली में नौकरी की. बड़े से बड़े प्रकाशक से उनके उपन्यास, कहानी संग्रह और ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए. उनका लेखन बहुत ही उच्च-स्तरीय है. मगर उन्हें कभी किसी बड़े पुरस्कार या सम्मान के काबिल नहीं समझा गया. अभी हाल ही में हमने उन्हें कथा यू.के. द्वारा “इंदु शर्मा कथा सम्मान” से अलंकृत किया. मैं नये रचनाकारों को यही सलाह दूँगा कि लिखिये, अच्छा लिखिये और प्रकाशकों को भेजिये. अशोक महेश्वरी और अरुण महेश्वरी जैसे लोग अच्छे लेखन की क़द्र करते हैं. हमारे यहाँ से आदरणीय ज़किया ज़ुबैरीजी का पहला कहानी संग्रह ही राजकमल से छप कर आया था.

प्रश्न 10. – कहा जाता है कि अनेक प्रकाशनों में कुछ खास रचनाकारों का अवैध दबदबा है. नये रचनाकार का प्रवेश वहाँ असंभव है. क्या आप मानते हैं कि साहित्य में गुटबाजी, किसी को नीचा या ऊपर कराने का, जुगाड़ का खेल होता है? दिया जाने वाला पुरस्कार भी इन बातों से प्रभावित होता है?
उत्तरः यह कोई नयी बात नहीं है विभूति भाई. जो प्रकाशक जिस लेखक की पुस्तकें आसानी से बेच पाता है, उनका अधिक ख़्याल रखता है. दिल्ली के जितने बड़े प्रकाशक हैं, उनके यहाँ ऐसा हो भी सकता है कि नये रचनाकार का प्रवेश कठिन हो जाता हो. मगर जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे ऐसी किसी भी स्थिति का सामना कभी नहीं करना पड़ा. मैंने अपना पहले कहानी संग्रह ‘काला सागर’ का मैन्युस्क्रिप्ट भाई अशोक महेश्वरी को जा कर थमा दिया. बिना किसी जान पहचान के. मैं उन दिनों मुंबई में एअर इण्डिया में काम करता था. अशोक भाई ने बहुत आदर सत्कार से चाय पिलाई और बातचीत की. क़रीब 8 महीने में संग्रह प्रकाशित होकर आ गया. इसी तरह ‘ढिबरी टाइट’ और ‘देह की कीमत’ भी वाणी से ही प्रकाशित हो गये थे, मगर तब तक अशोक भाई राधाकृष्ण संभालने लगे थे और वाणी की कमान अरुण महेश्वरी ने संभाल ली थी.
मैं यह मानता हूँ कि साहित्य में गुटबाज़ियाँ हैं. एक दूसरे को प्रोमोट किया जाता है. क्षेत्रीयवाद और विचारधारा वाद का ख़ासा बोलबाला है. फ़ेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप पर नामों को उछाला जाता है. ज़ाहिर है जो लोग पुरस्कारों और सम्मानों के पुरोधा हैं वे अपनी सोच और ख़ेमे के लोगों का समर्थन करते दिखाई देते हैं. मगर मेरा मानना है कि लेखक को बिना इस सब से प्रभावित हुए बिना लिखते रहना चाहिये. निरंतरता और गुणवत्ता लेखक का मूल्यांकन करवाते हैं.

प्रश्न 11.- आपके अनुसार हिन्दी साहित्य में किस दिशा में ज्यादा काम नहीं हुआ है? नये रचनाकारों को किन विषयों की तरफ उन्मुख होना चाहिए? लेखन में सफलता के सूत्र क्या हैं? आपकी लेखनी अभी किस ओर जा रही है?

उत्तरः क्योंकि आपने साहित्य के बारे में पूछा है तो कहना होगा कि ललित निबन्ध, आलोचना, समीक्षा, संस्मरण, आत्मकथा जैसी बहुत सी विधाएँ हैं जिनमें कम काम हुआ है. अधिकांश नये लेखक कविता या कहानी से जुड़ जाते हैं. ग़ज़ल, गीत और दोहों पर भी तुलनात्मक रूप से कम लिखा जा रहा है. आलोचना में तो लगभग एक वैक्यूम सा महसूस हो रहा है.
मुझे से किसी ने एक बार पूछा था कि अच्छा लिखने के लिये क्या करना चाहिये. मेरा त्वरित उत्तर था, “भाई अच्छा लिखने का एक ही तरीका है, कि लिखा जाए. लिखोगे तो एक दिन अच्छा भी लिखोगे.” यानी कि लेखन में निरंतरता आवश्यक है.
मैं कुछ अर्से से एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ जो कि ब्रिटेन की रेलवे से जुड़ा है. बस उसी को पूरा करने के प्रयास हो रहे हैं.

प्रश्न 12.- अंग्रेजों ने इतने वर्षों तक भारत में शासन किया है इसलिए उनके प्रति प्रत्येक भारतीयों के मन में अच्छा भाव नहीं रहता. कभी भी उनके बारे में असम्मानजनक बोल जाते. वहाँ उनके देश में, उनके व्यवहार में आपको कभी ऐसा लगा या कमतर लगा?
साथ ही उनके साहित्य पर सरकार की स्थिति क्या है? हिन्दी साहित्य में यहाँ की सरकार से आपकी क्या अपेक्षा है?

उत्तरः दरअसल मुझे ऐसा महसूस हुआ कि अंग्रेज़ों के दिल में अपने पुराने व्यवहार को लेकर ख़ासा अपराधबोध मौजूद है. शायद इसीलिये ब्रिटेन और यूरोप में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़्रीका, सीरिया, ईराक़, अफ़ग़ानिस्तान और वेस्टइंडीज़ जैसे देशों से तमाम प्रवासी आ बसे हैं. यहाँ उन्हें वही सुविधाएँ उपलब्ध हैं जो किसी भी स्थानीय गोरे नागरिक को उपलब्ध हैं. नस्ल भेद या रंगभेद की टिप्पणी को यहाँ बहुत बड़ा अपराध माना जाता है. डायस्पोरा साहित्य एवं संस्कृति के कार्यकर्मों एवं आयोजनों के लिये ब्रिटेन की सरकार फ़ण्ड्स भी उपलब्ध करवाती है. आपको शायद हैरानी हो कि ब्रिटेन की महारानी ने मुझे हिन्दी साहित्य के माध्यम से सामाजिक सौहार्द बढ़ाने के लिये ‘मेम्बर ऑफ़ दि ब्रिटिश एम्पायर’ की उपाधि से सम्मानित किया. यहाँ हमें हिन्दी साहित्य से जुड़े कार्यक्रमों का आयोजन ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स एवं हाउस ऑफ़ कॉमन्स करवाने की भी इजाज़त है. हमारे सांसद इसमें हमें पूरा सहयोग देते हैं. भारत सरकार ने ऐसी शर्त लगा रखी है कि साहित्य अकादमी पुरस्कार केवल भारतीय नागरिकों को ही दिया जा सकता है. हम भारत सरकार से अपेक्षा रखते हैं कि भारतेतर लेखकों एवं संस्थाओं को भारत सरकार की ओर से मान्यता एवं सहायता मिले ताकि हम वैश्विक स्तर पर हिन्दी की गतिविधियों को सक्रिय रूप से जारी रख सकें.

विभूति बी झा– बहुत-बहुत धन्यवाद. आपको भविष्य की शुभकामनाएँ.

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इनकी पुस्तकें-

कहानी संग्रह– काला सागर, ढिबरी टाईट, देह की कीमत, ये क्या हो गया, पासपोर्ट के रंग, बेघर आंखें, सीधी रेखा की परतें, कब्र का मुनाफा, प्रतिनिधि कहानियां, मेरी प्रिय कथाएं, दीवार में रास्ता.

कविता एवं गजल संग्रह– ये घर तुम्हारा है.

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.