सर्वप्रथम कवि श्री नीरज नीर को “पीठ पर रोशनी” कविता संग्रह के लिए बहुत बधाई, शुभकामनाएँ. 152 पेजों की इस पुस्तक का प्रकाशन प्रलेख प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, मुंबई ने सुन्दर रंगीन आवरण में मूल्य ₹ 200 रखकर किया है. ‘अपनी बात’ में कवि कहते हैं कि ये कविताएँ उनकी निजी अनुभवों, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हैं, जो व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख होने का प्रयत्न करती हैं, कुछ सफल होती हैं और कुछ असफल.
कविता संग्रह में इस नश्वर शरीर को बनाने में जिन पाँच तत्वों का प्रयोग है उन्हीं पाँच भागों में इस पुस्तक की कविताओं को विभक्त किया गया है. क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा पंचतत्व यह अधम शरीरा. उसी प्रकार इस पुस्तक में आग, पानी, वायु, आकाश और क्षितिज भाग में विभाजित कुल 66 कविताएँ हैं.
मैं कविताओं की पुस्तक बहुत कम खरीदता हूँ. कारण कि पुस्तक खरीदने के बाद अपना विचार प्रकट करने से मैं नहीं रुक सकता. पुस्तक खरीदने और पढ़ने के बाद मैं अपना विचार अवश्य दे देता हूँ और अगर जरा सी भी पुस्तक की कमी की ओर इशारा करता हूँ तो कवि/ कवयित्री नाराज हो जाती हैं, ब्लॉक करने लगती हैं, तरह-तरह के सुंदर विशेषण से स्वागत करती हैं. पैसे भी लगाओ, समय लगाकर पढ़ो, और सबसे महत्वपूर्ण समय, मेहनत लगाकर अपने विचार दो और अंत में वैर के साथ विशेष विशेषण मुफ्त में पाओ. कवयित्री अपनी आलोचना नहीं सह पातीं. खैर…
नीरज नीरजी की कविताएँ फेसबुक पर पढ़ता रहता हूँ और वहीँ से प्रभावित होकर मैंने पुस्तक खरीदी. यह पूरी पुस्तक मिश्रित कविताओं का शरबत है, कभी मीठा, कभी खारा, कभी कड़वा और कभी गुलाबी. जायका से भरपूर इनकी कविताओं में प्रकृति, पहाड़ भी है और सत्ता के प्रति रोष भी. अपने समाज का विद्रूप रूप भी है, राजनीति पर व्यंग्य भी और तंज भी. भावों का एक सम्पूर्ण पैकेज है. पढ़ने में मन लगा. सोचने पर मजबूर करती कविताएँ हैं.
इस पुस्तक की पहली पंक्ति से ही मैं प्रभावित हो गया कि
“जहाँ पड़ी हुई है
एक स्त्री की जली हुई लाश
वहीँ से मिल जायेंगे तुम्हें
एक सभ्यता के पतन के निशान…”
साधारण शब्दों में बहुत बड़ी बात कह दी नीरजजी ने.
इस पुस्तक की कुछ पंक्तियों से मैं प्रभावित हुआ, आप भी देखें:-
“पुजारी के जाने के बाद भी
मंदिर के छज्जों पर बैठे कबूतर
भरोसा करते हैं कि
फिर से पूजे जायेंगे मंदिर में
देवता और भरेगा उनका पेट.”
“पीठ पर रोशनी” कविता की पंक्तियाँ भी बहुत प्रभावित करती हैं.
“हम अभिशप्त हैं
बाँस के पुलों पर चलने के लिए,
अंधेरों में जीने के लिए,
बिना इलाज के मर जाने के लिए
हम अभी भी चल रहे हैं,
नौ दिनों में अढ़ाई कोस.”
“भूख और युद्ध” कविता में लिखते हैं कि
“भूख से मरने वालों की
कभी सूची नहीं बनती
नकार दिया जाता है
उनका होना ही,
बता दिया जाता है
उनका मरना
हारी-बीमारी रोग से…”
‘सीखना आदमी से’ कविता में कहते हैं कि
“सबने कहा
फूलों से सीखो मुस्कुराना
हवाओं से खुशबू फैलाना
भंवरों से सीखो करना प्यार
शेरों से बहादुरी
वृक्षों से देना छाया
नदियों से बहना
पर्वत से अटल रहना
पृथ्वी से सहनशीलता
कुत्तों से वफादारी
और फिर सीखने वाली
एक लंबी सूची उन्होंने मुझे पकड़ाई…
मैंने पूरी सूची को जाँचा
कई-कई बार
पर इस सूची में आदमी
कहीं नहीं था
क्या अब कुछ भी नहीं बचा
जो सीखा जा सके आदमी से?”
प्रेम की कविताओं में लिखते हैं कि
“प्रेम में डूबी हुई औरतें
तर्क नहीं करतीं
न ही परखती हैं
प्रेम को
विवेक की कसौटी पर..
ऊँच-नीच, आगा-पीछा,
बिना सोचे
लाभ-हानि, यश-अपयश,
सभी से स्थितप्रज्ञ,
बस डूबी रहना चाहती हैं
जल में कुमुद वृंत की तरह,
समर्पण में संपूर्णता के साथ,
अदृश्य रहकर प्रेम में.”
यह कविता कवि श्री रोहित ठाकुरजी की याद दिला देती है. उनकी कविता साझा संकलन पुस्तक #इन्नर में ऐसी ही है.
“मोनास्ट्रियों में उदास चेहरे” कविता में लिखते हैं कि
“ऊँची पहाड़ियों पर स्थित
मोनास्ट्रियों में घूमते हुए दिखे
कई उदास ऊबे हुए चेहरे
जिन्हें पता नहीं था कि वे क्या कर रहे हैं?
क्यों कर रहे हैं?
गंगतोक में एक बच्चा-मोंक
जो बोल लेता था हिंदी अटक-अटक कर
चला आना चाहता था मेरे साथ राँची
उसे आजादी चाहिए थी
मोनास्ट्री की कैद से
हे सिद्धार्थ !
तुमने किसी के लिए कैद की कामना तो नहीं की थी
तुम तो मुक्ति कामी थे…”
सोचने को विवश करतीं हैं. इन सबके अलावे भी कुछ पंक्तियाँ हैं जो मन को छू लेती हैं.
पुस्तक में कमी की बात करूँ तो पुस्तक में ‘हुई’ और ‘हुए’ के बदले ‘हुयी’ और ‘हुये’ का प्रयोग है. उच्चारण में भी शब्द स्पष्ट हो जाते हैं. ‘हुए’ और ‘हुये’ में फर्क है. मेरी नजर में ‘हुये’ और ‘हुयी’ का प्रयोग गलत है. तथापि कुल मिलाकर बढ़िया संग्रह है. इनसे बहुत अपेक्षाएँ हैं.
मैं नीरज नीरजी को भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ.
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इस उत्कृष्ट समीक्षा हेतु आपका हार्दिक आभार ।