“दर्जन भर प्रश्न” में यूक्रेन में रह रहे साहित्यकार श्री राकेश शंकर भारती
व्यक्ति परिचय:-
नाम– राकेश शंकर भारती
जन्म तिथि व स्थान– 04/02/1986, गाँव- बैजनाथपुर, थाना- सौर बाज़ार, ज़िला- सहरसा, बिहार
शिक्षा– जापानी भाषा और साहित्य में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली से बी.ए. और एम.ए.
प्राथमिक/ माध्यमिक शिक्षा– अपने गाँव बैजनाथपुर के माध्यमिक विद्यालय और मनोहर उच्च विद्यालय से.
पारिवारिक जानकारी– एक भाई इनसे बड़े हैं और दो जुड़वाँ भाई उनसे छोटे हैं.
पत्नी/बच्चे– यूक्रेन की लड़की से शादी करके यूक्रेन में रह रहे. एक पुत्र और एक पुत्री के पिता हैं.
अभिरुचि/क्षेत्र– कहानी, उपन्यास, यात्रा वृत्तांत लिखना, दूसरे देशों की भाषाएँ सीखना और वहाँ की संस्कृति से परिचित होना.
कार्यक्षेत्र-भूत– विदेश आने से पहले देश में कई जापानी और दूसरे देशी-विदेशी कंपनियों में इंटरप्रेटर के रूप में कार्य किया है.
वर्तमान/ भविष्य की रूपरेखा– अभी फ़िलहाल उपन्यास लेखन में सक्रिय हैं. दो नन्हे बच्चों के पालन-पोषण में व्यस्त हैं साथ में कैरियर बनाने की भी चिंता में हैं. अपने आपको किसी एक देश में तन-मन के साथ ढ़ालने की अलग परेशानी होती है.
लेखकीय कर्म– वर्ष 2006 से लगातार लिख रहे हैं लेकिन छपना 2014 के बहुत बाद में प्रारम्भ हुआ. चार पुस्तकों ‘नीली आँखें’, ‘कोठा नम्बर 64’, ‘इस जिन्दगी के उस पार’ और ‘मैं तेरे इंतजार में’ के रचनाकार.
लेखन में अभी– अभी एक उपन्यास पर काम चल रहा है. वर्तमान की वैश्विक समस्या को ध्यान में रखकर उपन्यास लिख रहे हैं.
संपर्क– द्नेप्रोपेत्रोव्स्क, यूक्रेन, मोबाइल और व्हाट्सअप नंबर- +380991126041.
***
“दर्जन भर प्रश्न“
श्री राकेश शंकर भारती से विभूति बी. झा के “दर्जन भर प्रश्न” और श्री भारती के उत्तर-
विभूति बी झा– नमस्कार. सर्वप्रथम आपको आपकी चारों पुस्तकों ‘नीली आँखें’, ‘कोठा नम्बर 64’, ‘इस जिंदगी के उस पार’ और ‘मैं तेरे इंतजार में’ लिए बधाई, शुभकामनाएँ.
- पहला प्रश्न:- आपकी पुस्तकों की सफलता पर आपकी टिप्पणी? चौथी तो अभी आई ही है. पाठकों की प्रतिक्रियाओं का इंतजार है और साथ का प्रश्न है कि आपके साहित्य के पसंदीदा रचनाकार कौन-कौन हैं? आपका नाम किन साहित्यकारों के साथ लिया जाये? आपकी क्या इच्छा है?
श्री भारती के उत्तर– सबसे पहली पुस्तक ‘नीली आँखें’ (पूर्वी यूरोप और यूक्रेन की हसीनाओं पर आधारित कहानी संग्रह) छपी. उसके एक साल बाद किन्नर विमर्श पर पहला मौलिक कहानी संग्रह ‘इस ज़िंदगी के उस पार’ आया और इस किताब ने मुझे असली पहचान दी. चूँकि इससे पहले किन्नर विमर्श में 15 से अधिक उपन्यास आ चुके थे किंतु कहानी संग्रह नहीं आया था. शोधार्थियों और पाठकों ने इसे हाथों-हाथ लिया और कई शोधार्थियों ने अपने एम. फिल और पी. एच. डी. के शोध आलेख में भी शामिल किया है. ‘कोठा नं 64’ ने भी मुझे नयी उम्मीद दी. किताब छपने से पहले मैं डरा हुआ था कि पता नहीं पाठकों की क्या प्रतिक्रिया होगी लेकिन किताब आने के बाद पाठकों का सकारात्मक व्यवहार देखकर मुझे सुकून का अहसास अवश्य हुआ. ‘कोठा नंबर-64’ पर भी जल्द ही शोध पुस्तक आने की उम्मीद है. चूँकि साहित्य पर लिखना कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इस संग्रह की ख़ासियत यह है कि जी. बी. रोड और दिल्ली में व्याप्त वेश्यावृत्ति के इर्दगिर्द ही सारी कहानियाँ घूम रही हैं. ‘मैं तेरे इंतज़ार में’ में एक पुरुष वेश्या और एक किन्नर के प्रेम पर आधारित मेरा पाँचवाँ उपन्यास है और पहला प्रकाशित उपन्यास है. शायद इस अनोखे प्लॉट पर यह पूरी दुनिया का ही पहला उपन्यास है. उपन्यास आते ही एक शोधार्थी अमित कुमार ने अपने शोध कार्य में शामिल कर लिया है क्योंकि पुरुष वेश्यावृत्ति पर अभी तक मात्र तीन उपन्यास ही है और यह तीसरा है. जापानी उपन्यासकार तानिज़ाकी जून इचिरो हमेशा मेरी पसंद रहे हैं. सबसे पहले इनको मैंने जे.एन.यू. में जापानी भाषा में पढ़ा था, उसके बाद मुझे भी इस तरह के विषयों पर काम करने की उम्मीद हुई. मुझे लगा कि इस तरह के विषयों पर भारतीय समाज में गहराई से चर्चा नहीं हुई है. अपने समाज में अभी तक ढेर सारी बुराइयाँ व्याप्त हैं. मुझे मुख्यधारा के साहित्यकारों से हटकर अनछुए पहलुओं पर काम करना चाहिए. इस दिशा में मेरा प्रयास जारी रहेगा, चाहे किसी को बुरा लगे या अच्छा. मंटो और राजकमल चौधरी की कलम से भी प्रभावित रहा हूँ. फ़्रेंच कहानीकार मौपासा को पढ़कर ही मेरी मेरी लेखनी में असली धार आयी है.
प्रश्न:- बिहार की पृष्ठभूमि का व्यक्ति तो दिल्ली ‘संघ लोक सेवा आयोग’ की इच्छा से जाता है. सहरसा, जे एन यू, दिल्ली फिर यूक्रेन, आप लेखक कैसे बन गये?
उत्तर- लेखनी का तार मेरे बचपन के संघर्ष और समाज के तिरस्कार और अवहेलना से जुड़ा हुआ है क्योंकि मुझे आम बच्चों जैसा बचपन नसीब नहीं हुआ. इस बात को लेकर दिल में क्रोध भी है और मलाल भी, और यही मेरी ताक़त भी है कि डटकर संघर्ष करना पसंद करता हूँ. बचपन में ही जीवन के घोर अभावों और दुष्ट समाज में रहते हुए दिल में ठान लिया था कि बहुत दूर तक जाकर दिखाऊँगा.
- प्रश्न:- आपकी पुस्तकों के विषय लीक से हटकर हैं. ‘कोठा नम्बर 64’ जहाँ वेश्याओं के ऊपर है तो ‘इस जिंदगी के उस पार’ ट्रांसजेंडर पर आधारित. अभी आपकी नयी पुस्तक आई है ‘हम तेरे इंतजार में’, यह भी एक जिगेलो की प्रेम कहानी है. आप उन विषयों पर लिख रहे जिनपर कथित संभ्रांत बात करना नहीं चाहते. ऐसे विषय चुनने का विशेष कारण? आपके भावी विषय एवं आपकी भावी योजनाएँ क्या हैं? आप किन विषयों पर लिखना चाहते हैं यदि आप बताना चाहें?
उत्तर– अभी समाज का हाल देखिए. हर दिन बहनों के साथ बलात्कार, हिंसा, प्रताड़ना, क़त्ल वगैरह की घटनाएँ आम हैं. इसका मतलब तो साफ़ है कि समाज में, समाज की मानसिकता में कहीं न कहीं कमी तो है. हम साहित्यकार बहुत ज़्यादा नहीं बदल सकते हैं तो थोड़ा बहुत तो असर दिखा ही सकते हैं. इस समाज की सोच की वजह से मेरी माँ को इतनी तकलीफ़ और अवहेलना झेलनी पड़ी. और ये तो कुछ भी नहीं है, आज यूरोप के समाज की पुरसुकून फ़िज़ा को देखकर दिल में एक बात तो आती ही है कि काश हमारा समाज भी इसीतरह शाँत होता. समाज में समानता होती. जिस दिन समाज की सोच बदलेगी तो वे व्यापक स्तर पर हर मुद्दे पर चर्चा करेंगे. मेरा मानना है कि किसी बात को छुपाने से समाज में और अधिक बुराई फैलती है. मेरा पाँचवाँ उपन्यास खगोल विज्ञान और कोरोना वायरस पर है, जो अभी-अभी तैयार हुआ है.
- प्रश्न:- पुराने रचनाकारों की कृति और नये रचनाकारों की ‘नयी वाली हिन्दी’ में लिखी कृति में आपको क्या अंतर लगता है? इन दोनों के बीच पाठक कहाँ है? बेस्ट कृति और बेस्ट सेलर के बीच आप अपने को कहाँ देखते हैं?
उत्तर:- आज बेस्ट सेलर पैसे का खेल है. मैं एक आम अनुवादक और मिजाज़ से विशुद्ध लेखक हूँ. मेरे लिए अपनी किताब पर पैसे ख़र्च करना संभव नहीं है. अगर कोई लेखक पदाधिकारी हैं, अच्छे पद पर हैं, किसी कंपनी में अच्छी तनख्वाह पाते हैं, वे लाखों रुपये पुस्तक के प्रमोशन में ख़र्च कर सकते हैं. इस बार दिल्ली पुस्तक मेले में जब मैं अपने प्रकाशक के स्टॉल पर अपनी किताबों के प्रमोशन में था तो सामने बेस्ट सेलर लेखकों को देखकर सब समझ में आ गया. पुस्तक मेले में सही समझ में आता है कि कौन सी किताब हक़ीक़त में बेस्ट सेलर है. मेरे लिए पुराने लेखक और नयी वाली हिंदी मायने नहीं रखते हैं. अहम यह है कि किस लेखक के पास मेरी पसंद की रचना है. इस मामले में कई पुराने लेखक मेरे ख़ास हैं और जिन युवा लेखक मित्र की रचनाएँ मेरी पसंद की होती हैं, पढ़ने की ज़रूर कोशिश करता हूँ. हर पाठक की अपनी अलग पसंद है और वे अपनी पसंद की रचना कहीं से भी खोज निकालते हैं. सोशल मीडिया के युग में अपनी पसंद की पुस्तक तलाश करना बहुत आसान हो गया है.
- प्रश्न:- आपकी दृष्टि में लेखन में अश्लील गालियों का हू-ब-हू प्रयोग और यौन सम्बन्धों की चर्चा की क्या सीमाएँ होनी चाहिए? साहित्यकार अभी हिंसा और यौन संबंधों वाली रचनाओं की ओर उमड़ पड़े हैं? क्या इसे आप सफलता की सीढ़ी मानते हैं?
उत्तर– अगर इस तरह की रचना में समाज के लिए कोई ख़ास संदेश नहीं है तो रचना असफल मानी जायेगी. जहाँ लगता है कि हम सच्चाई से समझौता नहीं कर सकते हैं, वहाँ हम इस तरह की अभिव्यक्ति कर सकते हैं, फिर भी भाषा को थोड़ा सा नाप-तौल सकते हैं लेकिन यह सच्चाई के नज़दीक होना चाहिए. यहाँ अहम है कि आप किस परिवेश पर लिख रहे हैं. उदाहरण के लिए, अगर आप कोठे पर लिख रहे हैं, तो वहाँ सत्यनारायण की कथा जैसा वर्णन करना अपने आपमें बेईमानी होगी.
- प्रश्न:- क्या आपको विदेश में रहकर हिंदी में लिखना और पाठक वर्ग को प्रभावित करना मुश्किल लगता है? यूक्रेन और आसपास के देशों में उनकी स्थानीय भाषाओँ के साहित्य की और लेखकों की क्या स्थिति है? सरकार की तरफ से कोई सहयोग है क्या? भारत में हिंदी के रचनाकारों की तुलना में आपके क्या विचार हैं?
उत्तर:– यहाँ के साहित्यकार आज भी भारतीय साहित्यकारों से कई साल आगे हैं. यहाँ के साहित्यकारों में दिखावा नहीं है. कोई खेमेबाज़ी भी नहीं है. वरिष्ठ और युवा साहित्यकारों में कोई खाई नहीं है. यहाँ लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते हैं. जिस रचना में दम होता है और नये तेवर का होता है तो झट से लोगों के बीच लोकप्रिय भी होती है. अपने देश में लोग सोशल मीडिया और इंटरनेट का दुरूपयोग करते रहते हैं, जबकि यहाँ लोग इसे अपने ज़रूरी काम और ज्ञानवर्धन के लिए उपयोग करते हैं. यहाँ किताब पढ़ने की पुरानी संस्कृति है और हर वर्ग के लोग किताब पढ़ते हैं. आज भी यह संस्कृति है. अपने देश में पाठक से ज़्यादा लेखक ही हैं इसीलिए हम लेखक ही अपनी पंसद के लेखक मित्र की किताब पढ़ते रहते हैं. भाषा के विकास में ये हमसे बहुत आगे हैं. यूरोप की हर छोटी-बड़ी भाषाओं में हर विषय पर अनेक पुस्तकें मौजूद हैं और हर वैज्ञानिक शब्द हैं. मुझे लगता है कि हिंदी में कथेतर में काम होना चाहिए. अलग-अलग विषयों पर हिंदी में और दूसरी भारतीय भाषाओं में किताबों का घोर अभाव है. कविता संग्रह, उपन्यास और कहानियों के ढेर से काम नहीं चलने वाला है. संस्कृत और तमिल में पुरानी बातों और दर्शन पर किताबें मौजूद हैं. जहाँ अपने देश में कवियों की बाढ़ सी आयी हुई है, वहीं दूसरी तरफ़ कुछेक विमर्शों पर घुमा-फिराकर उपन्यास और कहानियाँ लिखे जा रहे हैं. अगर नये विषय पर रचना आती है तो मैं उसका स्वागत करूँगा. प्रवासी लेखकों के लिए अपनी किताब प्रोमोट करने में कठिनाई ज़रूर आती है, किंतु सोशल मीडिया के प्रचार-प्रसार से यह रास्ता अब थोड़ा आसान हो गया है.
- प्रश्न:- सोशल मिडिया का लेखक और लेखन पर क्या प्रभाव पड़ा है? आजकल साहित्य में अचानक आकर छा जाने की, पुरस्कार पाने की होड़ मची है. साहित्य में सफलता का कोई शॉर्टकट है? आपका क्या विचार है?
उत्तर:– मैं पुरस्कार की उम्मीद से कुछ भी नहीं लिखता हूँ. मैं बस यही चाहता हूँ कि मेरी किताब आम पाठकों तक पहुँचे, यही मेरे लिए बड़ा पुरस्कार होगा. सोशल मीडिया के लेखक की ज़रूर बाढ़ आयी है, लेकिन कुछेक सालों में लेखक के काम में कुछ नया नहीं होगा और गहराई नहीं होगी तो वे अपने आप किनारे हो जायेंगे. हर काम में समय के साथ सुधार होना चाहिए. अगर कोई युवा लेखक नये प्रयोग और नये विचार लेकर आते हैं तो मेरा साथ अवश्य रहेगा क्योंकि हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में अभी बहुत काम होना है लेकिन मेरा यह संदेश सिर्फ़ कथेतर, लंबी कहानियों और उपन्यास के लिए ही है. सोशल मीडिया को सकारात्मक रूप में ही लें. कुछेक सालों पहले कई प्रतिभाएँ घर में ही मर जाती थीं क्योंकि उस ज़माने में मठाधीश और खेमेबाज़ी उन्हें उभरने नहीं देते थे. आज किसी भी युवा के पास नया विचार, प्रतिभा, मेहनत और लगन है तो उसे आगे बढ़ने से कोई भी नहीं रोक सकता. सोशल मीडिया एक बहुत बड़ी ताक़त है. साहित्य में कोई शार्टकट नहीं होता, भले ही सोशल मीडिया पर प्रचार करना आसान हो गया हो. साहित्य में लंबे समय तक टिकने के लिए गहराई और बहुत पढ़ने की भी ज़रूरत पड़ती है. और इस दौड़ में कमजोर एक सीजन के बाद ग़ायब हो जायेंगे. लेखन पर सोशल मीडिया का ज़रूर असर पड़ा है और नये तरीक़े से लोग लिख भी रहे हैं. इसी दिशा में हाशिए पर पड़े किन्नर विमर्श के उदय में भी सोशल मीडिया का बहुत बड़ा रोल रहा. कई लोग नये विषय लेकर भी आये और शोधार्थियों को भी नये विषय पर शोध करने का मौक़ा मिला.
- प्रश्न:- आपको क्या लगता है कि मोबाईल युग आने से हिन्दी में पाठकों की संख्या घटी है? आजकल हिंदी भाषी भी हिंदी में बात करना पसंद नहीं करते. क्या आप मानते हैं कि हिंदी भाषा का अस्तित्व संकट में है? आपको हिंदी भाषा का भविष्य क्या लगता है?
उत्तर:- इसका एक सकारात्मक पहलू भी है कि मोबाइल आने से पहले लोग देवनागरी में लिखना तक भूलने लगे थे और आज मोबाइल और कंप्यूटर पर देवनागरी बहुत बड़ी लिपि बन गयी है. मोबाइल और कंप्यूटर आ जाने से लैपटॉप और मोबाइल में लिखना आसान हो गया है. मैं ख़ुद लैपटॉप पर बड़ी तेज़ी से हिंदी में टाइप कर लेता हूँ. कुछ साल पहले तक यही संभव नहीं था. मैं विदेश में रहते हुए भी हिंदी की पत्र-पत्रिकाएँ ऑनलाइन पढ़ लेता हूँ. मेरे जैसे लाखों लोग हैं. आज गूगल पर भी हिंदी अपनी धाक जमा रही है. विदेश में भी हिंदी कई रूपों में लोकप्रिय हो रही है. आपसे मेरा बस यही अनुरोध है कि आप जब अंग्रेज़ी सीख जाते हैं तो अपनी मातृभाषा को दरकिनार नहीं करें. फिर आप दुनिया को क्या दिखलायेंगे.? मैं आठ भाषाएँ बोलता भी हूँ और लिखता भी हूँ. फिर हिंदी लिखना नहीं भूला. फिर आप कैसे?….?
अभी साहित्यिक भीड़ से भी किसी न किसी रूप में हिंदी का भला ही हो रहा है. इसे भी सकारात्मक रूप में लें. हिंदी युवा लेखकों को बस यही ख़याल रखना चाहिए कि आप अपना नाम और ख्याति पाने की उम्मीद से ही लेखक नहीं बनें. हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रति दिल में थोड़ा सा सेवा भाव भी रखें. फिर हिंदी का अपने आप भला हो जायेगा. सोशल मीडिया के आने के बाद अब कोई भी भाषा जो सोशल मीडिया पर लिखी और पढ़ी जाती है, कभी भी मरेगी नहीं और किसी न किसी रूप में विकास ही होगा.
- प्रश्न:- नये रचनाकारों, ग्रामीण, छोटे स्थानों के रचनाकारों को जो अच्छा लिखते परन्तु संसाधन नहीं होने के कारण प्रकाशक गंभीरता से नहीं लेते, उनको आपकी क्या सलाह है? साथ ही लेखन जीवन यापन का साधन नहीं रह गया है, इसके लिए आप नये रचनाकारों को क्या सलाह देंगे?
उत्तर:- इसके लिए मैं एक उदाहरण देता हूँ ख़ुद अपना ही. कई सालों तक मेरी किताब नहीं छपी. फिर इस बीच विदेश भी आ गया. धैर्य रखा और किसी प्रकाशक को किताब छापने के लिए पैसे नहीं दिये. एक दिन यूट्यूब पर सुना कि मुझे क्या करना चाहिए. यूट्यूब ने मुझे बहुत जानकारी दी. मैंने ख़ुद से अमेज़न किंडल पर अपना खाता बनाया और दस मिनट के अंदर ही अमेज़न किंडल पर अपना कहानी संग्रह “नीली आँखें” अपलोड करके फेसबुक पर एक साल तक ख़ूब प्रचार किया. इस बीच अमेज़न पर कुछ प्रतियाँ इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में बिक भी गयीं और खाते में कुछ पैसे भी आ गये. एक साल बाद एक प्रकाशक ने किताब के रूप में भी छाप दिया. इसके लिए कई बड़े लेखकों का तलवा चाटता रहा और कुछ हुआ भी नहीं. यहाँ कोई किसी की मदद नहीं करता. आपको ख़ुद से संघर्ष करना है. साहित्य के क्षेत्र में भी थोड़ी बहुत कमाई है और गंभीर होकर काम करें, आगे रास्ता ख़ुद दिख जायेगा.
- प्रश्न:- आपने अनेक देशों की यात्रा की है. अनेक भाषाओँ के जानकार हैं, अनेक भाषाओँ में अनुवाद करते हैं. कभी कहीं भी आपको लगा कि बिहारी मानकर आपके साथ कमतर व्यवहार हुआ?
उत्तर:- दिल्ली में शुरू-शुरू में थोड़ा-बहुत दुर्व्यवहार हुआ था लेकिन जे.एन.यू. आ जाने के बाद मेरा आत्म-विश्वास बढ़ा और मेरी जानकारी भी बढ़ी. फिर जब दूसरे लोगों से बात करता था तो मुझे लगता था उन्हें जानकारी का घोर अभाव है. मैंने जहाँ भी काम किया, लोग मेरी इज़्ज़त करते और इसमें बिहारी होने का मुझे कोई नुकसान नहीं हुआ. आप कहीं से भी हों, बस अप-टू-डेट रहें. हम बिहार की जिस मिट्टी से हैं, वहाँ प्राचीन काल से विद्वानों का प्रभाव रहा है.
- प्रश्न:- आप मानते हैं कि साहित्य में भी गुटबाजी, किसी को नीचा या ऊपर कराने का, जुगाड़ का खेल होता है? पुरस्कार इन बातों से प्रभावित होता है?
उत्तर:- विदेश में और यूरोप के जिस देश में मैं रहता हूँ यहाँ ऐसी बात नहीं है. चूँकि मेरा जन्म भारत के गाँव में हुआ इसीलिए आज भी मेरी आत्मा वहीं बसती है और अपनी भाषा में ही काम करने की इच्छा होती है, बाकी दूसरों का मेरे प्रति क्या व्यवहार है इसके बारे में सोचना नहीं चाहता हूँ. यूरोप में साहित्य में कोई शार्टकट नहीं है. जो काम करता है, उसे यहाँ जगह मिलती है, चाहे आप किसी भी देश के हों, कोई भी नस्ल हो, कोई भी धर्म-जात हो, यहाँ ये कोई मायने नहीं रखते हैं.
- प्रश्न:- आज के हिन्दी रचनाकारों में ऐसे कम से कम पाँच रचनाकारों के नाम बतायें जिनकी पुस्तक या रचनाओं से आप प्रभावित हैं या आपको उनसे भविष्य में हिन्दी साहित्य में अपेक्षाएँ हैं.
उत्तर– तेजेंद्र शर्मा सर की कहानियाँ नये मिजाज़ की हैं जो मुझे बहुत प्रभावित करती हैं. युवा लेखक मित्र भुवनेश्वरजी भी अपनी शैली के लिए जाने जाते हैं. युवा लेखक मित्र भगवंत अनमोलजी भी नये काम करने में विश्वास रखते हैं. कई हैं.
विभूति बी झा– बहुत-बहुत धन्यवाद. आपको भविष्य की शुभकामनाएँ.
***
इनकी पुस्तकें:-
बिभूति जी और उनकी टीम को तहेदिल से आभार व्यक्त करता हूँ