सर्वप्रथम “जुलूस की भीड़” पुस्तक हेतु लेखक श्री भवतोष पाण्डेयजी को बधाई, शुभकामनाएँ. इस पुस्तक का प्रकाशन नोशन प्रेस डॉट कॉम ने सुंदर रंगीन आवरण में मूल्य रुपये 200 रखकर किया है. कहानियों से पहले ‘कहानियों’ की कहानी बतायी गयी है. बढ़िया विश्लेषण है. 153 पेजों की इस पुस्तक में 17 कहानियाँ हैं. सभी कहानियाँ अपने समाज के बीच की और सामान्य जीवन की हैं. ज्यादातर छोटी कहानियाँ हैं और वास्तव में घटित लगती हैं. लेखक एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर, वरिष्ठ प्रबंधक हैं. यह उनकी पहली पुस्तक है.

पहली कहानी “मुक्ता” की नायिका ‘मुक्ता’ अपने परिवार की बहुत चहेती लड़की है. माता-पिता, सभी उसे बहुत प्यार करते हैं, उसे अच्छी शिक्षा देते हैं. पढ़ने के क्रम में ही उसे एक सहपाठी लड़के से प्रेम हो जाता है और वह उस प्रेम संबंध में बहुत आगे बढ़ जाती है. लड़का विदेश पढ़ने के लिए जाता है और वहीं उसे नौकरी मिल जाती है. उस लड़के के विदेश जाने के बाद मुक्ता को पता चलता है कि वो गर्भवती है. ईमेल से लड़के को सूचित करती है लेकिन अब वो लड़का अपना सब बदलकर कोई मतलब नहीं रखना चाहता. मुक्ता अपने को ठगा हुआ महसूस करती है. मुक्ता यह बात जब अपनी माँ को बताती है तो पूरा परिवार परेशान हो जाता है. पिता जो शहर में नौकरी करते हैं उन्हें अपनी पुत्री से ज्यादा समाज की परवाह होती है. मुक्ता पूरे परिवार, माता पिता के अचानक बदले व्यवहार से तंग होकर टॉयलेट क्लीनर पीकर आत्महत्या करने का प्रयास करती है. अब जब वह मरणासन्न है तो उसे अपने जीवन से मोह हो जाता है और वह अपनी माँ से अनुरोध करती है कि ‘माँ मुझे बचा लो’, ‘बचा लो’. उसकी माँ उसके पिता को कार्यालय से घर बुलाती है. मोहल्ले के लोग जमा होते हैं, तत्काल अस्पताल ले जाने की बात होती है लेकिन पिता को उसकी जान बचाने से ज्यादा सामाजिक बातों की फिक्र है कि समाज के लोग ना जान पाये कि उनकी पुत्री गर्भवती है. सामाजिक प्रतिष्ठा पुत्री की जान से ज्यादा कीमती है. पिता जानबूझकर इतनी देर कर देता है कि मुक्ता का देहांत हो जाता है. बाद में उसके पिता को पश्चाताप होता है लेकिन अब क्या? लेखक ने इस कहानी के माध्यम से आज की जीवनशैली को बताने का प्रयास किया है. आज की जीवनशैली लिविंग रिलेशनशिप तक आ पहुँची है, उसके दुष्परिणाम की चर्चा है. प्रेम की सीमा की बात कौन करे? पाश्चात्य वातावरण, परिवेश, जीवनशैली और मनःस्थिति में जीते लोग पुनः भारतीय परंपरा और सामाजिक बंधन की परवाह क्यों करते हैं? विदेशी पढ़ायेंगे लेकिन देशी जीने को मजबूर करेंगे. सामाजिक प्रतिष्ठा बच्चों पर भारी है. कहानी के माध्यम से एक सलाह भी है. दोनों तरफ की बहुत मार्मिक चर्चा है. लेखक सफल है.

अशिष्टता” बहुत ही छोटी कहानी है. इस कहानी में रेल के वातानुकूलित बोगी के कोच अटेंडेंट गंतव्य तक पहुँचने के पहले ही बेडशीट और तौलिया लेने के लिए आता है. यात्री कहता है कि अभी मेरा गंतव्य नहीं आया है और मैं चोर नहीं हूँ, मैं वापस कर दूँगा. वह अपनी बॉगी के बेडशीट और तौलिया के लिए इसलिए भी गंभीर है कि ठेकेदार ने गायब होने पर कोच अटेंडेंट के वेतन से पैसे काट लिए हैं. गंतव्य स्टेशन अभी दूर है इसलिए उसके अन्य साथी उसे खाने को बुलाकर उसकी बोगी से बेडशीट और तौलिया गायब कर, अपने गायब की भरपाई करता है. स्पष्ट है कि जो मित्रता दिखाता है वह वास्तव में मित्र नहीं है. लोग मित्र बनकर इस्तेमाल करते हैं. बहुत छोटी लेकिन रोचक कहानी है.

“वर्चस्व” कहानी में एक दोस्ताना सम्बन्ध वाले पति-पत्नी को शतरंज खेलने की आदत लग जाती है. सोसाइटी की तरफ से एक शतरंज प्रतियोगिता रखी जाती है जिसमें संयोगवश दोनों प्रतिभागी आमने-सामने होते हैं. जीतने की इच्छा इतनी प्रबल हो जाती है कि एक दूसरे के प्रतिद्वंदी बन जाते हैं. जैसे-तैसे पत्नी जीत जाती है लेकिन जीतने की चाह में दोनों के संबंधों में कड़वाहट आ जाती है. झुके कौन? पहल कौन करे? जाड़े का दिन है. अलाव जल रहा है. पत्नी उठती है, एक-एक कर शतरंज के सभी काठ के बने मोहरे हाथी और घोड़े को अलाव में फेंक जलाना प्रारंभ करती है. पति आकर गले से लगाकर पुनः पुराना मित्र बन जाता है. अच्छी कहानी है. पढ़ने में अब क्या होगा वाली स्थिति रहती है. कहानी में दो बातें हैं. निजी अहं क्यों बीच में आ जाता है और आपसी संबंधों को आपस में ही जल्द सुलझा लेना चाहिए.

तगण” कहानी में एक दंपति अपने बच्चे का नाम रखते हैं. दादा-दादी पंडित को बुलाकर उस नाम के गुण-दोष, राशि पर बहुत चर्चा कर शुभ-अशुभ निकालते हैं और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नाम में कुछ भी नहीं रखा है, कर्म प्रधान है. ‘तगण’ शब्द का विश्लेषण बढ़िया है, कुछ नया जान पाया.

वो राम अब नाहीं’, ‘अविश्वास’, ‘आजमाइश’ और ‘एक मॉल के सहयात्री’ कहानियाँ ठीक-ठाक हैं. ‘आजमाइश’ कहानी में गोवा के जीवन को और लालच में आने के बाद जुए की लत के परिणाम को रोचक तरीके से बताया गया है. ‘भूख और भय’, ‘अनिर्णय’ साधारण हैं वहीँ ‘निर्दल’ कहानी में एक निर्दलीय विधायक के जीतने के बाद की स्थिति का बढ़िया व्यंग्यात्मक वर्णन है.

“जुलूस की भीड़” कहानी जो इस पुस्तक का नाम भी है, में एक गरीब परिवार की दो पीढ़ियों का वर्णन है. किस प्रकार राजनैतिक रैलियों में गरीब लोग दैनिक मजदूरी पर जाते हैं. जुलूस की भीड़ बनाने के लिए सत्ता और विपक्षी इनको इस्तेमाल करते हैं. पुलिस या विपक्षी लोगों के द्वारा लाठीचार्ज या गोली से जब इन्हें कोई नुकसान होता है तो सभी अपना पल्ला झाड़ लेते हैं. मारपीट, क्षति या गोली लगने से जान जाने पर इनकी व्यक्तिगत क्षति होती है, ले जाने वाला नेता का इनसे कोई लगाव, कोई मतलब नहीं रह जाता है. उनकी सीधी सोच है कि ये दैनिक मजदूर हैं जो मजदूरी लेकर रैली में आते हैं. अशिक्षा, बेरोजगारी और नेताओं के द्वारा आम गरीब का शोषण, यही थीम है. दो पीढ़ियों को अन्य कोई काम नहीं मिलने की वजह से ‘जुलूस की भीड़’ का हिस्सा बनना पड़ता है. कहानी दुखद और मार्मिक है, लेखक इस कहानी में भी सफल है.

अथ श्री सुखई कथा’ में अंग्रेजों के जमाने में सुखई लाल स्टोर कीपर रहते हैं. अंग्रेज जब भारतीय भीड़ पर गोली चलाती है तो सभी गोलियाँ बेकार निकलती हैं क्योंकि उन्होंने सारी गोलियों पर पानी फेंक खराब कर दिया था. इसके लिए उन्हें फाँसी दी जाती है. वे हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं.

अंतिम कहानी ‘अनैतिक-नैतिकता’ में चुनाव में खड़ा होने वाले एक प्रत्याशी के द्वारा चुनाव के पूर्व नकद बँटवाने हेतु अपने एक कार्यकर्ता के घर नकद भेजी जाती है और बँटने में ज़रा सी देर होने से उसे ही फँसा दिया जाता है. राजनैतिक तिकड़म की कहानी है कि राजनीति में कोई किसी का नहीं है. कहानी ठीक-ठाक है.

पुस्तक में नकारात्मक कुछ ख़ास नहीं है. एक जगह पंक्ति है ‘रात को माँ ने अपने पति को पूरी कहानी सुनाई’. ‘माँ ने अपने पति को’ थोड़ा अटपटा सा लगा. अनेक जगह प्रूफ रीडिंग की कमी लगती है खासकर ‘तगण’ कहानी में. नोशन प्रेस डॉट कॉम तो बहुराष्ट्रीय, बढ़िया प्रकाशन है तथापि चूक तो है. खैर.

कुल मिलाकर ‘जुलूस की भीड़’ के साथ ही एक इंजीनियर में साहित्यकार का प्रवेश हो गया है. भवतोष पाण्डेयजी की यह पहली पुस्तक है और भिन्न भावों की कहानियाँ हैं. इनसे बहुत अपेक्षाएँ हैं. स्वागत होना ही चाहिए. भविष्य की शुभकामनाएँ.

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बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.