सर्वप्रथम “रोशनी के अंकुर” लघुकथा संग्रह हेतु श्रीमती सविता मिश्रा ‘अक्षजा‘ को बधाई, शुभकामनाएँ. निखिल पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स ने 152 पेजों की पुस्तक का प्रकाशन आकर्षक रंगीन हार्ड कवर बाइंडिंग में मूल्य 300 रुपये रखकर किया है.
पुस्तक में 101 लघुकथाएँ हैं. रचनाएँ ज्यादा आडंबरों से घिरी नहीं हैं बल्कि सपाट भाषा शैली में हैं. लेखिका ने पुस्तक की शुरुआत में ही कह दिया है कि ‘लिखने को हम लिखते चल रहे हैं अपनी ही शैली में, अपनी ही भाषा के साथ. साहित्यिक दुनिया ने स्वागत किया तो ठीक, नहीं किया तो और भी ठीक.’
मेरा मानना है कि रचनाकर कुछ भी अपने पाठकों के लिए लिखता है, साहित्यिक दुनिया के अन्य रचनाकार के कथन की परवाह कोई क्यों करे? खैर.
इनकी कहानियों में रोजमर्रे के जीवन से संबंधित लघुकथाएँ हैं. ज्यादा काल्पनिक नहीं है. कथ्य और शिल्प के लिए लेखिका स्वयं कहतीं हैं कि वो फेसबुक की आभारी हैं. फेसबुक नहीं होता तो वो बस बहन, पत्नी और माँ बनकर ही रह जाती. यानी पुस्तक एक गृहिणी ने लिखी है तो सराहना होनी ही चाहिए. पुस्तक की कुछ लघुकथाएँ अच्छी बन पड़ीं हैं, कुछ लघुकथाओं में स्थानीय भाषा का भी प्रयोग है. कुछ शब्दों के अर्थ मैं समझ नहीं पाया. कुछ रचनाकार लघुकथा और लघु कथा के व्याकरण में उलझायेंगे, तो स्पष्ट कर दूँ कि कुछ लघु कथाएँ भी हैं. कुछ रचनाएँ पारिवारिक रिश्तों की हैं तो कुछ बुजुर्गों के साथ के व्यवहार की. अनेक लघुकथाएँ सास बहू के रिश्ते, बेटी और बेटा से संबंधित हैं. वहीं चूड़ियों की बातचीत, पुलिस से संबंधित और महिलाओं के अधिकारों से सराबोर लघुकथाएँ मन मोह लेतीं हैं. मैं लेखिका को अन्य जगह भी पढ़ते रहता हूँ. अन्य रचनाओं की अपेक्षा इन लघुकथाओं में तीक्ष्णता कमतर लगीं. इस पुस्तक की कथाएँ साधारण कथ्य और शिल्प में ठीक-ठाक हैं. बहुत विचार कर लघुकथाएँ नहीं लिखी गयीं हैं. अत्यधिक अपेक्षा रखकर पढ़ेंगे तो निराशा होगी. पुस्तक एक बार पढ़ी जा सकती है. लेखिका का हौसला बढ़ाना भी आवश्यक है. एक गृहिणी का साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण स्वागतयोग्य कदम है. प्रकाशक ने पुस्तक का आवरण और बाइंडिंग भी सुंदर बनाया है. इस पुस्तक को पेपरबैक में कम मूल्य रखकर प्रकाशित करने से भी पाठक बढ़ सकते हैं. साहित्यिक स्तर पर मुझे इनसे काफी उम्मीदें हैं. मैं श्रीमती मिश्राजी को भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ.
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