“बलवा” उपन्यास हेतु श्री मुख्तार अब्बास नकवीजी को बधाई, शुभकामनाएँ. इस 103 पेजों की पुस्तक को डायमंड बुक्स ने रंगीन आकर्षक कवर में मूल्य रुपये 195 रखकर प्रकाशित किया है. कहानी बिलकुल शीर्षक के अनुरूप है. जब कभी कोई राजनेता पुस्तक लिखने का प्रयास करते हैं तो पाठक पूर्वाग्रह से ग्रसित रहता है कि पुस्तक किसी अन्य साहित्यकार के सहयोग से प्रकाशित हुई होगी. इस पुस्तक को पढ़ने से यह स्पष्ट है कि इस पुस्तक हेतु किसी भी व्यक्ति से कोई मदद नहीं ली गयी होगी. कथ्य एकदम फिल्मी और शिल्प अत्यंत साधारण है. नकवीजी को जितना भी टीवी पर देखा या सुना है के अनुरूप यह पुस्तक है. पढ़ते समय आप भूल जायेंगे कि किसी राजनेता की लिखी कहानी है. कोई भी लेखक किसी भी राजनेता को भ्रष्ट या चुनाव जीतने हेतु किसी भी हद तक जाने की बात लिख देता है लेकिन यही बात अगर कोई राजनेता लिखे तो? हिम्मत का काम है.
‘बलवा’ उपन्यास की कहानी दो समुदाय, हिन्दू और मुस्लिम के बीच, दोनों तरफ के खास लोगों द्वारा अपने हितों को साधने हेतु समाज में अशांति और दंगा भड़काने की कहानी है. हिन्दू और मुस्लिम प्रतिनिधि, पुलिस, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच झूलती कहानी बिलकुल फिल्म की तरह चलती है. अखबार, प्रेम प्रसंग और समाज सुधारने का प्रयास करने वाले युवाओं के द्वारा अपने पिता, परिवार के विरूद्ध खड़ा होने की बात को क्रमबद्ध दर्शाया गया है. हिन्दू समाज के ठेकेदार बने हिन्दू और मुस्लिम समाज के ठेकेदार बने मुस्लिम के बीच का गठजोड़ कहानी को रोचक बनाये रखता है. समाज के ये नकली ठेकेदार अपने बच्चों और युवाओं को भी मोहरा बनाने से नहीं चूकते. पुस्तक किशोर वय के पाठकों को ज्यादा पसंद आयेगी. लेखन शैली नाटकीय है, पढ़ते हुए सिनेमा देखने जैसा भाव मन में आते रहता है. खासकर जब एक खलनायक ‘शान’ फ़िल्म के ‘शाकाल’ की तरह निकलता है. मार-धाड़ के बाद का अंत भी दिलचस्प है.
इस पुस्तक को किसी बड़े राजनेता के द्वारा लिखी ना समझ एक सामान्य लेखक की लिखी समझ पढ़ेंगे तो आनंद आयेगा.
टीवी पर भी नकवीजी की भाषा संयमित होती है, पुस्तक की भाषा भी उनकी तरह एकदम संयमित है. एक अति व्यस्त मंत्री अगर साहित्य के प्रति प्रेम रखते हैं तो तारीफ करनी पड़ेगी. कुल मिलाकर सामान्य सी कहानी, अत्यन्त साधारण भाषा शैली में है लेकिन भाव असाधारण है. समाज में होने वाले दंगों, बनाये गये झूठे अपहरण के किस्से और पुलिस, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ताओं के गठजोड़ का भेद खोलती कहानी ‘बलवा’ कालजयी रचना के लिए भले याद नहीं की जाये लेकिन एक मुस्लिम राजनेता की लिखी बिना ज्यादा उर्दू शब्दों के प्रयोग के, साफ़गोई और सच्ची जैसी कहानी हेतु अवश्य याद की जायेगी. मैं इनके साहित्य प्रेम और साफ़गोई की तारीफ करता हूँ. मेरे विचार राजनैतिक नहीं बल्कि सिर्फ साहित्यिक रचनाकर्म पर है. मैं उन्हें भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ.
***
सराहनीय कदम है। पढ़ना चाहिए।