सर्वप्रथम “श्री सर्वेश तिवारी श्रीमुख” को “परत” उपन्यास हेतु बहुत शुभकामनाएँ और बधाई. इस उपन्यास का प्रकाशन हर्फ पब्लिकेशन, नई दिल्ली ने बहुत ही सुंदर, आकर्षक, रंगीन कवर में मूल्य ₹ 200 रखकर किया है. कवर के डिजाइन की तारीफ करनी पड़ेगी, सुन्दर है.
बिहार के गाँव से निकला एक कम उम्र का साहित्यकार जब लिखता है तो गाँव की मिट्टी, वातावरण, माहौल, ग्रामीण परिदृश्य, विसंगतियों और गाँव की राजनीति को अपनी कलम से उकेर देता है. इस उपन्यास में सर्वेशजी ने अनेक ग्रामीण बातों को एक सूत्र में पिरोकर पाठकों के सामने लाने का प्रयास किया है. दो अलग-अलग कहानियाँ समानांतर चलती रहती हैं. एक कहानी लव जिहाद से संबंधित है और दूसरी कहानी आरक्षण, ऊंची जाति और नीची जाति के बीच की राजनीति, तुष्टीकरण, सत्ता पर किसी डमी को आगे कर कैसे सत्ता सुख लिया जा सकता है, की है. पुस्तक में लेखक ने प्रयास किया है कि उनके पास ग्रामीण जीवन से संबंधित जितनी भी बातें हैं चाहे अश्लील गालियाँ हो, गाँव की दो औरतों के बीच का झगड़ा हो, अगड़ी जाति- पिछड़ी जाति के बीच का संवाद हो, सब कुछ को इस पुस्तक में उड़ेल दें. कहानी कभी पथरीली राहों से, तो कभी नदी-नालों से, तो कभी समतल सड़कों से गुजरती है. कभी कहानी को ठेस लग जाती है तो कहानी गिरती है और फिर संभल कर चलती है, अर्थात कहानी एक सीधी श्रृंखला में नहीं है और पाठक भी आशा-निराशा, सुख-दुख, पिता-पुत्री के प्रेम, पारिवारिक और सामाजिक मान्यताओं के बीच घूमते रहते हैं.
कथा बहुत ही संवेदनशील है. इसमें एक हिंदू लड़की शिल्पी बालिग होते ही स्कूल के सोनू नाम के लड़के के प्रेम में पड़कर अपनी सहेली के मना करने के बावजूद उस लड़के के साथ घर छोड़ कर भाग जाती है. बाद में उसे पता लगता है कि वह लड़का सोनू हिंदू नहीं है बल्कि मुस्लिम है. उस लड़के का असली नाम फकरुद्दीन है. उस लड़के को हिंदू लड़की से विवाह करने के एवज में कहीं से डेढ़ लाख रुपये मिलने वाले थे इसलिए उसने अपने को हिन्दू बताकर प्रेम जाल में फंसाया और भागने के बाद सर्वप्रथम उसे मुस्लिम बनाकर उसका नाम सूफिया किया गया और फिर निकाह पढ़वा दिया गया. दो कमरों में सात-आठ लोगों का जीवन, छोटा सा आँगन, गंदे घर, बकरियाँ, चापाकल, गंदे कपड़े और गरीबी वाली जीवनशैली के बीच जूझती यह हिंदू लड़की पहले ही दिन से दुखित और रोते रहती है. उसे लगता है कि वह लव जिहाद का शिकार हो गयी और अब वापस भी नहीं आ सकती. पिता घर से जाते ही कचहरी के द्वारा बेटी को वापस पाने का प्रयास करते हैं लेकिन बेटी पति का साथ देती है. समाज में उसके पिता की सामाजिक प्रतिष्ठा खंडित होती रहती है. छोटा भाई और बहन समाज में लज्जित होते हैं.
धीरे-धीरे फकरुद्दीन के व्यवहार में परिवर्तन होने लगता है और एक दिन वह एक तमाचा भी मार देता है. वापस अपने पिता के घर क्या मुँह लेकर आयेगी सोचकर शिल्पी जो अब सूफिया बन गयी है, सब सहन करते रहती है. मुस्लिम ससुराल में सिर्फ उसके पति की बहन फातिमा है जो उसकी व्यथा को समझती है, उसके साथ हमदर्दी जताती है. आये दिन शारीरिक शोषण और मानसिक शोषण की शिकार लड़की गर्भवती होती है लेकिन किसी के सहयोग नहीं मिलने की वजह से चापाकल पर गिर जाती है और गर्भपात हो जाता है. धीरे-धीरे वह अपने को दोबारा संभालती है. अब परिवार का वातावरण ठीक करने का प्रयास करती है. सफाई की आदत, आयरन किये कपड़े पहनाने की आदत डालने का प्रयास करती है.
इधर शिल्पी की माँ बेटी के मुस्लिम से विवाह कर लेने और समाज के व्यवहार के कारण दुखी होकर ऐसी बीमार होती है कि उठ नहीं पाती और दम तोड़ देती है. पिता के घर से जाने के बाद से शिल्पी सिर्फ और सिर्फ तकलीफ भोगती है और हमेशा शोषित होती है. लेखक कहना चाहते हैं कि एक गलती के कारण पूरा परिवार बर्बाद होता है और सामाजिक जग हँसाई भी होती है.
शिल्पी की ननद फातिमा जो अब उसकी सहेली जैसी है, जो उसके दुख-सुख में साथ देती है बताती है कि उसे एक परिचित स्वधर्मी रिश्तेदार के लड़के से प्रेम हो गया है और वह लड़का भी उससे विवाह करना चाहता है. एक दिन शिल्पी फकरुद्दीन से फातिमा के बारे में बताती है कि उसकी शादी उस लड़के से करवा दी जाये. उसका परिवार भी अच्छा है, लड़का भी अच्छा है और दोनों एक दूसरे को चाहते हैं. इस पर उसकी सास और उसका पति दोनों विरोध करता है. वह विरोध का स्वर ऐसा होता है कि पति फकरुद्दीन शिल्पी को पीटते हुए घर से निकाल देता है और तीन बार तलाक दे देता है. उसकी सास समझती है कि बहू प्रेम में पड़कर भाग कर आयी है इसलिए वह अपनी ननद को भी प्रेम में पड़कर भागने को सिखा रही है. पूरी पुस्तक में मुस्लिम समाज, मुस्लिम परिवार और मुस्लिम लड़के की भावना, जीवनशैली और व्यवहार नकारात्मक, एकपक्षीय रखा गया है. इस विचार से सहमत नहीं भी हुआ जा सकता है लेकिन फातिमा का किरदार बहुत ही संतुलित और परिमार्जित है.
अब उसकी सास अपनी पुत्री फातिमा को बाहर भेजती है कि शिल्पी को ढूँढ कर लाओ. फातिमा शिल्पी की उसी बचपन की एक सहेली जिसका विवाह हाल में ही हुआ है से मिलवाती है. अपनी भाभी को समझाती है कि तुम आज मुक्त हो गयी हो , वापस इस घर में मत जाओ और अपना अलग जीवन जी लो. अब अपना जीवन बर्बाद मत करो. माँ चाहती है कि अब पुनः फकरुद्दीन से तुम्हारा निकाह पढ़वाया जाये इसके लिए उसने मौलवी साहब से बात करने की बात कही है. मौलवी साहब क्या रास्ता बताएँगे जानती हो? अल्लाह ने तुमको रास्ता दिखाया है, इन सबसे बचने के लिए अब वापस इस घर में मत आओ, तुम जाओ और अपना जीवन जी लो और वह परित्यक्ता हिन्दू लड़की अपनी सहेली के घर चली जाती है. सहेली शिल्पी के पिताजी को सब बताती है और पिता चुपके से मदद भी करते रहते हैं. सहेली के पास रहकर शिल्पी परीक्षा में अव्वल आती है, अखबार में नाम आता है और वह पुनः चर्चा में आती है.
दूसरी कहानी जो इसके समानान्तर गाँव की राजनीति से प्रेरित चलती है जिसमें सवर्ण बहुल इलाके में आरक्षण कर दिये जाने के कारण आरक्षित वर्ग के प्रत्याशी को सवर्ण ही अपना प्रत्याशी बनाकर खड़ा करते और जितवाते हैं. यह कथा सिर्फ हास्य और ग्रामीण जीवनशैली को बताने के लिए है. दो महिलाओं का झगड़ा और जाति विशेष की चर्चा कर मारपीट करवाना ग्रामीण राजनीति की सत्यता बताने भर है. इसमें और शिल्पी वाली कथा में कोई मेल नहीं है. मूल कथा शिल्पी वाली ही है.
लेखक ने पूरी कहानी में हिंदू धर्म में विवाह की मान्यता, प्रेम विवाह और माता पिता के द्वारा कराये गये विवाह की तुलना एवं हिंदू विवाह के विधि व्यवहार का हृदयस्पर्शी वर्णन किया है. वैवाहिक कर्मकांड का सामाजिक दृष्टिकोण परिलक्षित करने का पूरा प्रयास है. विवाह में रिश्तों में बड़े वधू को ‘घूँघट’ क्यों देते हैं? अनेक ऐसी बातें हैं जो मर्म को छू लेतीं हैं. एक तपती कहानी को सुखद अंत तक ले जाने का प्रयास है. वहीं मुस्लिम परिवार और समाज की जीवनशैली, तीन तलाक की चर्चा की है.
अंत में कुछ उपदेशात्मक बातें हैं. प्रेम में पड़कर कोई क्या सब छोड़ जाती है, परिवार के लोग अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार रखेँ और बच्चों को इतनी आसानी से अपने परिवार को छोड़कर नहीं जाना चाहिए, इत्यादि.
भारत में हिन्दू और मुस्लिम गाड़ी के दो पहिया हैं. दोनों के बिना मिले नहीं चल सकता और धार्मिक दृष्टिकोण से एक जगह दोनों आ नहीं सकते. अपने देश में ऐसे ही हिन्दू मुस्लिम का माहौल हमेशा गरम ही रहता है. लव जिहाद राजनैतिक मुद्दा है ही. कथा काल्पनिक है इसलिए उँगली नहीं उठा सकते. लेकिन अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिसमें हिन्दू लड़की मुस्लिम लड़के से विवाह कर आज भी खुश है. धर्म जीवनशैली को प्रभावित करते हैं लेकिन अनेक उदाहरण इसके परे भी हैं. पुस्तक हिन्दू मुस्लिम पर आकर अटक जाती है और मैं इस विषय से थोड़ी दूरी बनाकर चलता हूँ, किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता, साथ ही कहानी के प्रत्येक भाग की सच्चाई से सहमत हुआ भी नहीं जा सकता.
लेखक ने अनेक साहित्यिक मसालों का प्रयोग इस पुस्तक में किया है. भाव बहुत जगह मनोहारी हैं, प्रशंसा भी बनती है लेकिन उसी बीच बिहारी बोलचाल की देशी गाली हू-ब-हू रहकर उस गंभीरता को कम भी कर देता है. मैं हमेशा कहता हूँ कि देशी गालियों का हू-ब-हू प्रयोग आपके शब्दों की कमी को बताता है. यह बहुत आसान तरीका है. हिन्दी साहित्य इतना शब्द विहीन नहीं है कि इन गालियों को इसी रूप में धारण करे या इन पर आश्रित रहे.
पुस्तक में लेखक ने शिल्प की ओर बहुत ध्यान दिया है तथापि कहीं-कहीं कमजोर लगता है. एक ही बात कहूँगा कि कहीं भी नफरत या उससे उपजे उसके सहायक शब्द को समाज स्वीकार नहीं करता. लेखक को हमेशा इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि उनकी रचना का समाज पर क्या असर पड़ेगा. ये कहानी समाज की कटु सच्चाई हो सकती है. कोई पाठक कह सकता है कि इस कहानी में गलत क्या है? ऐसा होता नहीं है क्या? हिन्दू मुस्लिम विषय के कारण इस पुस्तक की आलोचना भी हो सकती है लेकिन एक कथाकार, उपन्यासकार कहाँ किसी बंधन में बाँधें जा सकते हैं. यह पाठक के ऊपर है कि कहानी को किस संदर्भ में ले, नफरत या प्रेम, दोनों सामने है और समाज का विकास समानान्तर.
विषय जो भी है लेकिन नये रचनाकार की मेहनत के लिए एक बधाई तो बनती ही है.
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