कथ्य और शिल्प में बेजोड़- “अगिन असनान”
पहली बार किसी पुस्तक को किंडल पर पढ़कर समाप्त किया है. पुस्तक का नाम और आवरण से प्रभावित होकर पढ़ पाया. पुस्तक के आवरण पर ‘राधा और कृष्ण’ की अद्भुत पेंटिंग है. 178 पेजों की इस पुस्तक का प्रकाशन “भारत पुस्तक भंडार”, नयी दिल्ली ने किया है. ग्यारह रचनाकारों की 11 प्रेम कहानियों का संचयन और सम्पादन श्रीमती जयश्री रॉय ने किया है.
आजकल चारों तरफ हिंसा, नफरत, घृणा, द्वेष, व्यापारिक मानसिकता और आधुनिकता की दौड़ में प्रेम पीछे छूट रहा है. ऐसे वातावरण में प्रेम विषय पर किसी पुस्तक का आना अपने में बड़ी बात है. उससे भी बड़ी बात है कि ग्यारह रचनाकारों की साफ सुथरी राजश्री प्रॉडक्शन टाइप रचनाओं को एक जगह एकत्रित करना. मैं पुस्तक में अपनी पसंद की अन्य पाँच-छः महिला लेखिकाओं को ढूँढ रहा था. उनकी रचना नहीं मिली तो पता चला कि कुछ लेखिका आने वाली दूसरी पुस्तक में हैं और कुछ दूसरे गुट में हैं. अस्पृश्यता का भाव है. तथापि अनेक झंझावातों के बीच इस बेहतरीन पुस्तक को लाने हेतु श्रीमती जयश्री रॉय और अन्य दस रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ.
प्रेम की नीव में आसक्ति होती है. यदि आसक्ति न हो तो प्रेम प्रेम न रहकर केवल भक्ति हो जाती है. प्रेम मोह और भक्ति के मध्य की अवस्था है. प्यार के एक आधार जैविक आधार में इसे भूख और प्यास की तरह दिखाया गया है. प्रेम विशेषज्ञों ने प्यार के अनुभव को तीन भागों में विभाजित किया है. हवस, आकर्षण और आसक्ति. हवस यौन इच्छा है. आकर्षण बताता है कि साथी में आपको क्या आकर्षित करता है. आसक्ति में मिल बाँट कर जीना, कर्तव्य, आपसी रक्षा और सुरक्षा की बात होती है. प्रेम को मनोवैज्ञानिक आधार पर भी तीन खंडों में देखा गया है. आत्मीयता, प्रतिबद्धता और जोश. विद्वानों ने बताया है कि स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम होने और प्रेम समाप्त होने की सात अवस्थाएँ होती हैं. प्रेम होने के सात अवस्थाओं में पहला आकर्षण, दूसरा ख्याल, तीसरा मिलने की चाह, चौथा साथ रहने की चाह, पाँचवाँ मिलने व बात करने के लिए कोशिश करना, छठा मिलकर प्रकट करना और सातवाँ साथ जीवन जीने के लिए प्रयास करना. प्रेम समाप्त होने की सात अवस्थाओं में पहला एक दूसरे के विचार व कार्यो को पसंद ना करना, दूसरा झगड़ा, तीसरा नफ़रत, चौथा एक दूसरे से दूरी बनाना, पाँचवाँ संबंध खत्म करने का विचार, छठवाँ अलग होने का प्रयास और सातवाँ अलग हो जाना है. गीता में भगवान कृष्ण प्रेम की अलग परिभाषा बताते हैं.
प्रेम एक ऐसा विषय है जिसपर कभी एक विचार नहीं बन पाया. शिक्षित, जानकार, बुद्धिजीवी और अनपढ़ सबकी अपनी-अपनी सोच है. सबका अपना दृष्टिकोण है और सबकी अपनी परिभाषा है. विचारों में कोई कहता है कि प्रेम अंधा होता है, तो कोई पागल कहता है. किसी के लिए प्रेम त्याग का नाम है. कोई प्रेम को तपस्या बताता है, कोई प्रेम में अपने को खो देना बताता है. कुछ के लिए प्रेम समर्पण है तो किसी की नजर में प्रेम किसी को पाने की चाहत है. किसी के अनुसार अपना सब कुछ किसी पर न्योछावर कर देना प्रेम है. आत्मा परमात्मा करते कुछ प्रेम को अपना स्वार्थ सिद्धि का साधन मानते हैं. अनेक लोग प्रेम को सिर्फ आकर्षण मानते हैं. मतलब जितना मुँह उतनी बातें. प्रेम की कोई एक स्पष्ट परिभाषा पर लोग मतैक्य नहीं हैं. इस पुस्तक में भी रचनाकारों ने स्त्री पुरुष के प्रेम सम्बन्धों में इन्हीं बातों को स्थापित किया है. पुस्तक में प्रेम के इन्हीं अनेक भावों, विचारों को समझ पायेंगे.
अब कहानियों पर आऊँ.
‘मन से मन की दूरी’ कहानी लेकर सबसे पहले श्रीमती अंजू शर्मा आयीं हैं. इसमें नायक अपनी मौसी की सहेली की लड़की को देखकर आकर्षित हो जाता है. प्रेम की पहली सीढ़ी आकर्षण भी तो है. दोनों के बीच कुछ गतिविधियाँ बढ़ती हैं. नायक जब तक अपने प्रेम का इजहार करता तब तक उसे पता चलता है कि उसकी मौसी अपने लड़के से उस लड़की का विवाह कर रहीं हैं. नायक अपना प्रेम मन में ही रख लेता है. या तो इसे त्याग कह लें या एक तरफ का आकर्षण. क्योंकि नायिका की तरफ से कोई विचार नहीं आया है. अनेक शहर बदलते हुए नायक बाद में अपनी मौसी के घर अन्य लड़की की शादी में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जाने को तैयार होता है क्योंकि उसे नायिका के प्रति लगाव और देख पाने की हसरत आज भी है. कुल मिलाकर यह कहानी प्रेम में त्याग करने की कहानी बनकर रह जाती है. पा लेना ही प्रेम नहीं है. इस कथा में कथ्य के दृष्टिकोण से बहुत कुछ नहीं था लेकिन दमदार शिल्प के कारण एक साधारण सी बात को भी लेखिका ने सुन्दर ढ़ंग से रखकर पाठक को बाँधे रखा है.
श्रीमती प्रज्ञाजी की लिखी कहानी ‘कैद में बारिश’ बहुत ही प्यारी कहानी है. इसमें नायक मुकुल और नायिका चारू एक साथ होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई पढ़ते इतने घुलमिल जाते हैं कि चारू अपने माता पिता से मुकुल के नाम पर सहमति चाहती है. माता-पिता जातिभेद और अन्य कारण होते हुए भी अपनी पुत्री को मुश्किल से हाँ कहते हैं. मुकुल और चारू अपने भविष्य के सपने साथ-साथ देखते हैं और बहुत ही इंद्रधनुषी जीवन की कल्पना करते हैं. दोनों की सगाई और विवाह की बात तय हो जाती है. इस बीच चारू को एक ट्रेनिंग के लिए मुंबई और गोवा जाना पड़ता है और वहाँ प्रांजल सिंह नाम के एक अन्य ट्रेनी की बातों से, व्यवहार से आकर्षित हो जाती है कि मुकुल को छोड़ नयी जिंदगी शुरू करने का निर्णय ले लेती है. प्रांजल सिंह चारू के मन मुताबिक कार्य कर बहुत कम समय में अपनी जगह बना लेता है. मुकुल चारू से बात करना चाहता है, मिलना चाहता है तो यह कन्नी काटती रहती है. एक दिन नये रिश्ते की बात से मुकुल बहुत दुखी होता है. धीरे धीरे चारू को मुकुल के साथ बिताये समय और बातें याद आतीं हैं और एक दिन उसे अहसास होता है कि उसका प्यार मुकुल ही है. फिर चारू मुकुल से मिलकर सब ठीक करती है. उसका विवाह मुकुल से होता है. मुकुल पास के ही किसी छोटे से कस्बे के एक होटल में नौकरी करने चला जाता है और चारू को भी साथ लेकर जाता है. वहाँ प्रांजल सिंह मुकुल को ईमेल करता है जिसमें वह चारू के लिए अपशब्द का प्रयोग करता है. मुकुल को सलाह देता है कि चारू को काबू में रखो क्योंकि वह अच्छी लड़की नहीं है. उसने तुम्हें छोड़ा था तो मेरे पास आयी थी. मुझे छोड़ा तो फिर तुम्हारे पास गयी. मुकुल का प्रेम जागता है और प्रांजल सिंह को ‘भांड़ में जाओ’ कहकर ब्लॉक कर देता है. पूरी कहानी विश्वास और समर्पण की ओर जाती है. अगर प्रेम वास्तविक है और कुछ समय के लिए कोई भटक भी जाता है तो पुनः अपने रास्ते पर वापस लौट आता है. कहानी का कथ्य और शिल्प दोनों रोचक है. कहानी सफल है.
श्रीमती प्रियंका ओम की कहानी “हाँ! आखिरी प्रेम” में शादीशुदा व्यक्ति एक शादीशुदा युवती के प्रति चाहत रखता है और वह युवती भी इससे मिलने की चाहत रखती है और एक जगह कॉफी शॉप पर दोनों साथ कॉफी पीते हैं. दोनों के बीच कुछ गलत नहीं है लेकिन मिलने की एक अधूरी चाहत अवश्य है. दोनों के मन में कहीं अन्यत्र मिलने की इच्छा ही दोनों के बीच का तार है. मिलने की कल्पना, इच्छा से माहौल का सुगंधित होना और सार्वजनिक जगहों पर औपचारिक गले मिलना, अर्थात मिलें, लेकिन समाज नहीं जाने कि आपस में कुछ है. विवाहेतर संबंध का सपना को भी पाठक किस संदर्भ में देखेगा, पाठक पर निर्भर है. लेखिका इस कहानी के माध्यम से क्या कहना चाहती हैं मैं नहीं समझ पाया लेकिन शिल्प बहुत बढ़िया है. कुछ पंक्तियाँ बहुत अच्छी हैं. जैसे- ‘प्रेम लिखना बहुत सरल है किन्तु प्रेम में होना दुष्कर.’
“इट्स सो हार्ड टू से गुड बाय” की रचनाकर श्रीमति वंदना देव शुक्ल हैं. कथ्य में यह रचना एक बालिका की शिक्षा ग्रहण और हॉस्टल के जीवन की डायरी लगती है. साधारण कथ्य और असाधारण शिल्प में लिपटी कहानी है. मन लगा रहता है.
“जो डूबा सो पार” कहानी श्रीमती विजयश्री तनवीर की रचना है. इसमें एक व्यक्ति (नायक कहना उचित नहीं) नायिका को अकेले में पकड़ अपना एक तरफा प्रेम दिखाते हुए जबरन होठों को चूमता है. नायिका को बहुत बुरा लगता है. नायिका घर में आकर बताती है. परिवार वाले पकड़कर उस व्यक्ति को बहुत पीटते हैं. पंचायत बैठती है, वहाँ नायिका भी सबके सामने पुनः जमकर पीटती है. वह व्यक्ति सनकी की तरह स्वेच्छा से मार खाता रहता है. लेखिका बताना चाहती हैं कि व्यक्ति को नायिका से ऐसा प्रेम है कि वह नायिका को पाने के लिए अपने को मिटाने को तैयार है. पंचायत अगली सुबह कुछ कड़ा फैसला सुनाती लेकिन उससे पहले बहुत सवेरे नायिका छुपकर उस व्यक्ति के पास जाकर जान बचाने के लिए उसे भाग जाने की सलाह देती है. वो अपनी बेइज्जती सहने, मरने को तैयार है लेकिन अकेले जाने को तैयार नहीं. अंत में नायिका अचानक खुद उसका हाथ पकड़ भगा ले जाती है. जो युवती इतना नफरत कर सार्वजनिक रूप से पीटती है उसके दिल में अचानक प्रेम जाग जायेगा, मुश्किल लगता है. कहानी फिल्मी है. एक तरफा सनकी प्रेमी अनेक होते हैं लेकिन ऐसे मामलों में ऐसा अंत देखने को नहीं मिलता. कल्पना भी नहीं कर सकते. कथ्य पर पाठकों की सोच में भिन्नता हो सकती है लेकिन शिल्प तो बेहतरीन है. आज के समाज में ऐसा होना ठीक नहीं कहकर कथ्य पर उँगली उठा सकते लेकिन शिल्प बहुत ही सधा और सम्पूर्ण. लिखने की शैली अद्भुत है इनकी.
“गुलाबी नदी की मछलियाँ” कहानी श्रीमती सिनीवाली शर्मा की सुन्दर कृति है. हम सब जानते हैं कि लेखिका का ग्रामीण जीवन और ग्रामीण शब्दों पर अच्छी पकड़ है इसलिए वो पाठक को पकड़ कर ग्रामीण वातावरण और शब्दों से मिलवाती हैं. इनकी रचनाओं को पढ़ते डॉ रंजना वर्मा की गजल याद आती है, “शुद्ध भोजन और पानी है अभी तक गाँव में, ये बुजुर्गों की निशानी है अभी तक गाँव में.” इनकी रचनात्मकता दिनों दिन गहरी हो रहीं हैं लेकिन मेरा मानना है कि ये शीर्षक पर ज्यादा ध्यान नहीं देतीं. इत्रदान, महादान, हंस अकेला रोया इत्यादि पाठक की जुबान पर है लेकिन “चलिये अब” कहानी कितने लोगों को याद है? मेरे विचार से शीर्षक पर इन्हें थोड़ा ध्यान देना चाहिए. “गुलाबी नदी की मछलियाँ” कहानी में एक युवक को एक लड़की का पिता फिरौती के लिए अपहरण कर एक पुराने घर में बाँध कर रखता है. जब पुलिस की दबिश का भय और पैसे मिलने की संभावना कम लगती है तो जान से मारने का विचार करता है. उसकी लड़की सुन लेती है. लड़की या उसकी बूढ़ी दादी खाना, पानी देने रोज जाती थी. लड़की को उस लड़के के प्रति दया, फिर लगाव, अब प्रेम हो जाता है. कभी मिलने की आस भी नहीं है और उस लड़के की जान बच जाये इसके लिए लड़की उसके भागने का इंतजाम कर उसे सब बता देती है. लड़का कहता है कि वो वापस आकर उसे ले जायेगा तो लड़की कभी नहीं आना कह मना कर देती है लेकिन ‘सपने में आना कहकर’ कहानी में अपने को विजयी बना लेती है. कहानी का कथ्य और शिल्प उनकी अन्य रचनाओं की तरह ही ग्रामीण सोंधी खुशबू से सराबोर चासनी जैसी है. नायक और नायिका के बीच का संवाद आपको वहाँ खड़ा कर देगा. लगेगा कि आप थ्री डी कथा पढ़ रहे हैं और सब कुछ आपके समक्ष घटित हो रहा है. यह कहानी बिहार में एक समय में घटित होने वाले अपहरण की याद दिला देता है.
“अगिन असनान” कहानी जो इस पुस्तक का नाम भी है, सबसे उत्तम और प्रभावशाली कहानी है. लेखिका श्रीमती जयश्री रॉय ने इस कहानी के एक-एक शब्दों को, पंक्तियों को इतनी बारीकी से लिखा है कि पाठक मंत्रमुग्ध हो जाता है. बहुत दिनों बाद एक लाजवाब कहानी पढ़ने को मिली है. इस कहानी की खासियत यह है कि आगे का अनुमान पाठक लगाता है और ठीक उसके विपरीत नहीं बल्कि एक तीसरी बात घटित हो जाती है. यही तो रचनाकार की सफलता है. बेहतरीन कथ्य और शिल्प में लिखी यह बहुत ही उम्दा रचना है.
मैं इस कहानी की चर्चा कुछ विस्तार में करना चाहूँगा. एक गरीब युवती ‘सगुन’ एक गरीब व्यक्ति ‘जोगी’ से विवाह कर ससुराल आती है और अपने बिखरे फूस-मिट्टी के घर को बड़े ही प्रेम से सजाती है. उसका जीवन, उसकी सोच उसके पति जोगी के बीच ही घूमती रहती है. पति को ही अपना सब मानकर प्रेम में इतनी खो जाती है कि उसका खुद का कुछ भी नहीं रह जाता. अपने जीवन में सगुन बहुत खुश है. इसी खुशी के बीच उसके बच्चे की मृत्यु हो जाती है. बहुत दुखी तो होती है लेकिन फिर से अपने पति और अपने दूसरे बच्चे के लिए वह उठ खड़ी होती है. एक दिन अचानक उसका जोगी चमेली की खुशबू में तर देर रात घर आता है. जोगी के स्वभाव, व्यवहार में आमूल परिवर्तन हो जाता है. वह देखती है कि जोगी खोया-खोया रहने लगा है और घर के जो कुछ थोड़े जेवर थे गायब हो रहे. फिर कुछ बर्तन गायब होने लगता है. किसी प्रकार गरीबी का जीवन जी रही सगुन को जब सत्य पता चलता है तो जोगी को बहुत पीटती है लेकिन जोगी ने तो अपना सब कुछ नदी के पार एक बंजारन की टोली की एक बंजारन पर लुटा दिया है. सगुन की देह या सगुन का मन जोगी की राह में नहीं है. एक तरफ सगुन ने सम्पूर्ण जीवन जोगी के नाम कर दिया है और उसका प्रेमी पति जोगी एक बंजारन के प्रेम में है. एक दिन जब वह जोगी को बहुत पीटती है तो पति जोगी बिना प्रतिरोध किये कहता है कि ‘मैं क्या करूँ सगुन, मुझे प्रेम हो गया है. तुम्हें मुझे मारना है तो मार, लेकिन हो गया तो हो गया.” सगुन जोगी को वापस लाने का बहुत प्रयास करती है लेकिन जब उसे लगता है कि उसका प्रेमी पति उस बंजारन के प्रेम में खो गया है, उसका वापस आना मुश्किल है तो फिर जोगी की खुशी में अपनी खुशी खोजती सगुन खुद से रोज शाम जोगी को कपड़े पहना, हाथ में कुछ पैसे दे या किसी दिन कोई अपनी चीज उपहार स्वरूप देने हाथ में दे, खुशी-खुशी उस बंजारन के पास भेजने लगती है. जोगी का सब कुछ स्वीकार उसे, प्रेम भी और उसकी प्रेमिका भी. कुछ दिनों बाद एक दिन जोगी बिखरे कपड़े और उदास मन से आकर बताता है कि वो बंजारन जा रही, उसकी टोली के लोगों ने मिलने नहीं दिया मुझे. मैं उससे एक बार मिले बिना मर जाऊँगा, तुम कुछ करो सगुन. बंजारन के जाने की बात पर खुश होने वाली सगुन जोगी की बेचैनी और मर जाने की बात से दुखी होती है. सगुन बहुत चिंतित हो जाती है. अब यहाँ की स्थिति को समझें. सगुन को अपने पति जोगी से बेहद प्यार है, जोगी को बंजारन से प्यार है. बंजारन जा रही है, जोगी बेसुध. यहाँ लगता है कि प्रेम तो नशा है और जोगी नशेड़ी. सगुन के निर्णय लेने का वक्त है, क्या करे? मन ही मन खुश हो कि एक बंजारन जैसी सौतन से पाला छूटा या अपने पति के लिए प्रयास करे. लेखिका ने गजब का क्लाइमेक्स बुना है. पाठक साँसें रोककर पढ़ता है. प्रेम वास्तव में अगिन असनान (अग्नि से स्नान) है और इस नदी से सगुन गुज़रेगी. प्रेम और समर्पण की पराकाष्ठा है. अपना एक मात्र बचा गहना लेकर सगुन हिम्मत कर बंजारन की टोली के पास जा बंजारन से हाथ जोड़ विनती करती है कि मेरा पति जोगी तुम्हारे प्रेम में है, एक बार उससे मिल लो. बंजारन बहुत कटा सा जवाब देती है कि यह सब पेट की खातिर है क्योंकि मेरा पति भी है और बच्चा भी. अब मैं यहाँ से जा रही हूँ तो तुम्हें खुश होना चाहिए, अपने पति को दोबारा वापस पाकर. सगुन हाथ जोड़कर अपने जोगी के लिए गिड़गिड़ाती है ‘बस एक बार… नहीं तो वह मर जायेगा.’ बंजारन तरस खाकर कहती है कि मैं प्रेम व्रेम नहीं जानती लेकिन तेरे प्रेम के लिए आज यह भी कर लेते हैं. सगुन हाथ जोड़ रोते कहती है ‘बहुत किरपा बंजारन, तूने मेरे जोगी को, मुझे बचा लिया.”
पूरी कहानी में आगे क्या होगा सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. यह प्रेम में समर्पण की पराकाष्ठा है. एक ऐसी जगह जहाँ प्रेमी के अलावा कुछ नहीं दीखता. उसी का सुख, सुख और उसी का दुख, दुख. यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि सगुन बहुत पढ़ी लिखी या बहुत अमीर परिवार से नहीं है. ऐसी अनेक कहानियों में पति पत्नी के बीच मारपीट देखने को मिलती है. हत्या तक हो जाती है. ऐसा अंत कोई विरले रचनाकार ही रच सकता है. कितनी बातें स्थापित कर दीं हैं लेखिका ने. प्रेम गरीबी अमीरी नहीं देखता, प्रेम रूप रंग, जीवनशैली नहीं देखता, प्रेम प्रेमी का दुख नहीं देख सकता. प्रेम त्याग, समर्पण और क्या-क्या का नाम है, ढूँढते रहिये. वाकई पाठक को भी लेखिका ने ‘अगिन असनान’ का अनुभव करा दिया है. पुनः बधाई.
“भय मुक्ति भिनसार” कहानी की लेखिका श्रीमती दिव्या विजय, “पहाड़ पर ठहरी जिंदगी” रचनाकार भालचन्द्र जोशीजी, “चिड़ियाघर में प्रेम” रचनाकार मनीष वैद्यजी, “नदियों बिछड़े नीर” कहानी की लेखिका श्रीमती योगिता यादव ने भी इस पुस्तक में अपनी कहानियों से अपने भावों को अलग अलग शिल्प में पिरोया है. सभी कहानियाँ अपनी जगह प्रभावित करती हैं.
पूरी पुस्तक में कहीं भी कोई अश्लील टिप्पणी नहीं है. नायिकाओं का वर्णन भी सामान्य है. लेखिका शिवानी की विरासत मैं ढूँढने लगा था, नहीं मिली. पूरी पुस्तक को पढ़ते खुशवंत सिंह या शोभा डे याद नहीं आयीं. मात्र एक जगह एक नायिका पारदर्शी कपड़ों में पुष्प अंकित अंतःपरिधान पहन कर बैठी है. पुस्तक बहुत ही स्वच्छ शब्दों में, सुनहरे शिल्प से सुसज्जित और रोचक है.
पुस्तक में सब ठीक तो है लेकिन कहते हैं कि चाँद में भी दाग है, उसीप्रकार इस पुस्तक में भी एक दाग है. कारण कुछ भी हो लेकिन दाग तो लग गया. इस पुस्तक में ग्यारह रचनाकार हैं. सबकी एक-एक रचना है. इनमें ही संपादिका की एक कहानी ‘अगिन असनान’ भी है फिर पुस्तक का नाम ‘अगिन असनान’ रखना नीतिगत उचित नहीं. पुस्तक में संपादकीय की कमी भी खलती है. कोई भूमिका भी नहीं है. संपादिका की ज़िम्मेदारी ज्यादा होती है. कहानी सबसे अंत में भले है, ‘अगिन असनान’ नाम भी सुन्दर है लेकिन साझा संकलन में एक रचनाकर की रचना का शीर्षक होना उपयुक्त नहीं है. प्रियंका ओमजी की कहानी का शीर्षक भी ठीक है “हाँ! आखिरी प्रेम” तो वो क्यों नहीं? सवाल तो है. खैर. जो हो गया, सो हो गया.
इन सब के बावजूद अंत में यही कहूँगा कि बहुत ही शानदार, जानदार और जबर्दस्त साझा संकलन. अपने पुस्तकालय में रखने लायक पुस्तक. सभी रचनाकारों को भविष्य की अनंत शुभकामनाएँ.
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Samiksha padhkar pusatak padhne ki ichha gagrit hue. Bahut badhiya.