सिनीवाली शर्माजी की ‘हंस अकेला रोया’ पुस्तक एक ऐसी पुस्तक है जिसे गाँव में रहे लोग समय के अंतराल पर बार बार अवश्य पढ़ेंगे। मैंने भी पुस्तक मंगाने के बाद पहली बार पूरी पढ़कर रख दी थी। बहुत अच्छी लगी थी। दूसरी बार मुम्बई यात्रा में अन्य पुस्तक के साथ पढ़ी थी। पिछले दस दिनों से पुस्तक साथ है। तिबारा पढ़ने का मन किया। पढ़ लिया तो लगा कि अब मुझे लिखना चाहिए। इनकी रचनाओं से मैं बहुत प्रभावित हूँ। अपने गाँव, इलाका और अपनी बोलचाल की भाषा वाली पुस्तक वर्षों बाद मिली है। इनके शब्द स्थानीय टोन से सराबोर हैं जिसे पूरे भारत के लोग पता नहीं समझ पायेंगे या नहीं। पंक्तियाँ गजब का प्रभाव छोड़तीं हैं। कुछ शब्दों के अर्थ किसी डिक्शनरी में भी नहीं मिलेगा, ये बिल्कुल बिहार की हिन्दी है। उदाहरण के तौर पर-
बकते बकते मुँह फेनिया जाता है,
हम तो करुआ तेल पैंचा माँगने गए थे,
गोतिया दाल गलाने से ही गलता है,
स्टील की थाली में पीओ- फेंकों कप में चाय आई,
गाँव के पंडितजी का संस्कृत उच्चारण इतना गलत होता है कि श्राद्ध में मरने वाले की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी,
खाय के खर्ची नय और नगर में ढिंढोरा,
जिलेबी मोट पत्तल छोट,
डाँरा दरद करने लगा,
बिनिया (एक नाम) टिरुसते हुए बोली,
मौजा वाला गेंद,
‘थपरी पारने लगे’,
ये ऐसी पंक्तियाँ हैं जो बिहार की आम बोलचाल की भाषा है। इन शब्दों के साथ एक लेखिका का आगे आना बहुत हिम्मत का काम है। सलाम है इनको।
मुझे मंच संचालन का कार्य अक्सर करना पड़ता है। कुछ पंक्तियों का प्रयोग मैं अवश्य करूँगा इसकी इजाजत मैं यहीं मांग लेता हूँ। खास पंक्तियाँ जैसे-
बाप की सफलता बेटी के ब्याह से देखी जाती है।
जब पतोहू घर का हिसाब लेने लगे तो ऐसे घर से बेटी को विदा कर ही देना चाहिये।
मृत्यु दुःख का कारण होती है पर आर्थिक परेशानियाँ इन्हें और बढ़ा देती हैं।
कर्ज लेकर श्राद्ध नहीं करना चाहिए लेकिन धर्म के नाम पर कहाँ सुनता है समाज।
उसके घर की स्थिति अच्छी नहीं थी तो उसने शंकरजी को एक लोटा जल ही कबूला।
जब तक क्रोध सोया रहता है, शांत मन शरीर की पहरेदारी करता है पर जब क्रोध विकराल होकर फूटता है तो ज्वालामुखी का पर्याय बन जाता है।
जिसे दुआएँ दी हैं उसे बद्दुआ तो नहीं दे सकता।
जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं में भोजन भी एक है लेकिन जीने योग्य बनाने के लिए जिस उत्साह की आवश्यकता होती है वह कौन देगा?
जब बच्चा बहुत रोकर थक जाता है तो हल्की सी थपकी भी उसे नींद की गोद में पहुँचा देती है।
जब हृदय रोता है तो आंखों से आँसू नहीं शरीर का सारा रक्त बह जाता है।
आँखें बंदकर आँसू का अर्घ्य देकर उन्हें प्रणाम किया।
“हंस अकेला रोया” में आठ कहानियाँ हैं। सभी सच्ची कहानी जैसी लगती है। कुछ भी काल्पनिक जैसा नहीं है। गांव में जैसा होता है वैसा का वैसा शब्दों के साथ उतार दिया है लेखिका ने। मेरी नजर में यही लेखिका की पूँजी है और ताकत भी। इन कहानियों को पढ़ते अनेक बार चेहरे पर मुस्कान और अनेक बार आँखों में आँसू आए। अरे! यह तो लेखिका की सफलता है।
पहली कहानी ‘उस पार’ में एक ब्याहता बेटी बिना माँ वाले मायके आती है। उसका ससुराल भी कमजोर है। उसके साथ उसकी भाभी के व्यवहार की कहानी है। पिता इतने लाचार हैं कि बहू का ताना सुन बेटी को तत्काल घर से खाली हाथ विदा कर देते हैं। बहुत ही मार्मिक कहानी है। अगर यही ननद अमीर होती तो क्या भाभी का ऐसा व्यवहार होता? पिता अगर सामर्थ्यवान होते या उसकी माँ होती तो? कदापि नहीं। लेखिका ने निम्न मध्यम वर्ग के परिवार का सटीक चित्रण किया है।
दूसरी कहानी का शीर्षक “सिकड़ी” यानी हार है। एक महिला के मरने पर परिवार के सभी उस महिला के गले का हार गायब हो जाने पर हार यानी सिकड़ी की खोज में क्या क्या करते हैं, का वर्णन है। व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं है लेकिन सोने के हार का तो है।
तीसरी कहानी जो पुस्तक का नाम भी है “हंस अकेला रोया”। इसे पढ़ने से प्रेमचंद की गोदान की याद आती है। मैंने पहले भी कहा था कि ग्राम्य जीवन पर इनकी रचना प्रेमचंद की याद ताजा कर देती है। मैं महान लेखक से तुलना नहीं कर रहा लेकिन कहीं से तो शुरुआत होगी। कथा आईना है कि कैसे एक मध्यम परिवार पिता के मरने के बाद समाज को दिखाने और लोगों के दबाव में धर्म के नाम पर अपनी जमीन बेचकर श्राद्ध करता है। यह समाज के बड़े तबके को छूती है। मरणोपरांत होने वाले कर्मकांड पर सीधा प्रहार है लेकिन कहीं भी ज्यादती नहीं दिखती। लेखिका ने प्रेमभाव से ही एक एक चीज पर हथौड़ा मारा है। संवाद पढ़कर कभी हँसी भी आयेगी और कभी रोना भी। बिहार के किसी भी गाँव का सजीव और सटीक चित्रण है।
“आँखों देखा हाल” गाँव में होनेवाले बच्चों की क्रिकेट की कहानी है। बच्चों के मनोभाव के बीच हास्य निकलता है।
“नियति” ससुर के द्वारा कम उम्र की बहू के साथ किये दुष्कर्म के उपरांत की कथा है। बेटा आहत हो जान दे देता है। वो बहू जब विरोध के स्वर के साथ उठ खड़ी होती है तो सभी उसे पागल घोषित करवाकर ही दम लेते हैं। एक विवश, निरपराध महिला के संघर्ष की कहानी लेकिन अंत तक उसे सफलता नहीं मिलती। समाज ने भी साथ नहीं दिया।
“घर एक आत्मकथा” में एक घर जब अगली पीढ़ी के बँटवारे के बाद बँट जाता है तो क्या सोचता है, की चर्चा है। घर के मनोभाव को बहुत ही भावनात्मक लहजे में लिखी कहानी है। अगर इस कहानी को पढ़कर एक भी घर बँटने से बच जाए तो लेखिका का मेहनत सफल हो जाये।
“विसर्जन” कहानी बिहार के गाँव में होने वाली पूजा, लगने वाले मेले और बात बात में हिंसक हो जाने की कहानी है। सामान्य बिहारी का हर बात को प्रतिष्ठा से जोड़ना, खून बहाने पर उतारू हो जाना जैसे विषय पर करारा प्रहार है।
पुस्तक की अंतिम कहानी “चलिए अब” फ़िल्म अवतार की याद दिलाती है। जब तक लोगों को पैसे की उम्मीद दिखती है तब तक खातिरदारी होती है और जैसे ही उम्मीद खत्म, व्यवहार बदल जाता है। मुख्य पात्र का नौकर जब अपने मालिक की हालत देख घर से अपने साथ ले जा रहा होता है उस समय का वर्णन लेखिका ने बहुत ही जबरदस्त, मार्मिक और दिल को छूने वाला किया है। काल्पनिक पुत्री, पत्नी, गाय, घर, पेड़ के बीच के मनोभाव का संवाद आपकी आँखों में पानी ला देगा।
कुल मिलाकर एक बेहतरीन कथा संग्रह अनेक साल बाद पढ़ी है। और की इच्छा थी। अगर पंद्रह रचनाएँ होतीं तो और अच्छा लगता। कोई बात नहीं। लेखिका को बहुत बहुत धन्यवाद और आभार। इस पुस्तक को अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। मलयज प्रकाशन, गाजियाबाद ने मूल्य 100 रुपये रखा है।