सर्वप्रथम “बूँद बूँद सैलाब” ग़ज़ल संग्रह के लिए श्रीमती बबीता अग्रवाल कँवलजी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं। अग्रवालजी का ग़ज़ल लिखना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। अग्रवाल समाज आज भी उर्दू अदब और उर्दू के शब्दों के प्रयोग से बहुत दूर है। इन्होंने बहुत ही अच्छा प्रयास किया है। इसके लिए बबीताजी निश्चित रूप से बधाई की हक़दार हैं। इनसे बहुत ज्यादा अपेक्षाएँ तो थी नहीं फिर भी इन्होंने बहुत मेहनत की होगी ऐसा मेरा अनुमान है।
अब मैं इस पुस्तक की रचनाओं पर आता हूँ। इनकी ज्यादातर रचनाएँ प्रेम, ख्वाब और सामाजिक सरोकार वाली हैं। एक मिक्सचर वाली पुस्तक।
इनके कुछ शेर जो मुझे पसंद आये।
” कलम को आज कागज पर चलाने की तमन्ना है,
रुबाई गीत ग़ज़लों से सजाने की तमन्ना है।”
‘दर्द देना है खुदा तो मुझको देना शौक से,
किंतु माँ की आँख में हरगिज नमी इतनी ना दे’।
लड़कियों के लिए लिखती हैं कि
‘चहकने दो लड़कपन को न कश्ती कैद में रखो,
जरा सी उम्र बढ़ती है तो मस्ती छूट जाती है,
गली कूचे मोहल्ले के सभी दर याद आते हैं,
बड़े जब होते हैं बच्चे तो बस्ती छूट जाती है।’
इस पुस्तक में विभिन्न प्रकार के पचासी ग़ज़ल हैं। 106 पेज की पुस्तक है।
खबातीन और हज़रात! कुछ और शेर पर आप सबका तवज्जो चाहूँगा।
‘ चुराते हैं नजर अपनी भला क्यों लोग मिलने से,
न जाने दिल में क्यों लेकर सभी तो खार बैठे हैं।’
‘बात आगे तक बढ़ाएँ ये जरूरी तो नहीं,
आग नफरत की जलाएं यह जरूरी तो नहीं,
आपका ही नाम इस दिल में लिखा है देख लो,
चीर कर सीना दिखाएं ये जरूरी तो नहीं।’
एक ग़ज़ल में इन्होंने मोदीजी का नाम लिया है यह बात मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लगी। इस प्रकार की रचनाओं को समय से नहीं बाँधा जाना चाहिए। नाम से बचा जा सकता था।
‘आदर्श आज सिर्फ किताबों में रह गए,
मां-बाप को भी आँख दिखाने लगे हैं लोग,
मानिंद जो खुदा के समझते रहे यहाँ,
मोदी के खौफ से ही ठिकाने लगे हैं लोग।’
प्रेमी के लिए वह लिखती हैं –
‘खो गया महबूब मेरा आज बोलो क्या करें,
अब ना मैं उसकी रही मुमताज बोलो क्या करें,
हम भटकते ही रहे दीदार की हसरत लिए,
चाँद हमसे हो गया नाराज बोलो क्या करें।’
एक तरफ जो बेटा आजकल अपने माँ-बाप को छोड़ ससुराल का ही ख्याल करने लगता है उस पर इन्होंने बहुत ही बढ़िया तंज किया है कि
‘शज़र के सूखने की देरी थी,
लोग तैयार हैं जलाने को,
एक बेटा खुदा अता कर दे,
वंश ससुराल का चलाने को।’
इन्होंने अदालत को भी नहीं छोड़ा है। इनका एक शेर कि
‘तारीख पे तारीख ही हर बार लगे हैं,
फाइल का अदालत में भी अंबार लगे हैं।’
आज के फोन वाले युग पर भी इन्होंने तंज किया है कि
‘साथ मिल बैठे जमाना हो गया,
फोन में रिश्ता निभाना हो गया,
बेवजह क्यों शक किसी पर कर रहे,
यह तो रिश्ता आजमाना हो गया।’
प्रेम पर एक और शेर-
‘ इश्क की राहों में चलता कौन है,
इश्क हो जाता है करता कौन है,
चार दिन की चाँदनी है इश्क तो,
जानते सब हैं समझता कौन है।’
कुल मिलाकर पुस्तक ठीक-ठाक है। श्रीमती बबीता अग्रवालजी को इस पुस्तक के लिए पुनः बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं इन्हें आगे के साहित्यिक जीवन के लिए भी शुभकामनाएँ देता हूँ। उम्मीद करता हूँ कि अगली पुस्तक और ज्यादा कसी हुई होगी। इस पुस्तक को Read पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। मूल्य रुपये 200 है जो रचनाओं के हिसाब से ना सही पेज के हिसाब से ज्यादा है।

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.