“अवतार सिंह “पाश” पंजाब के एक ऐसे पंजाबी कवि हैं जिनकी रचनाएँ अनेक भाषाओं में अनुवादित होकर सबों के समक्ष आयीं। 9 सितंबर, 1950 को जालंधर जिले में जन्म लेने वाले कवि का जीवन 23 मार्च, 1988 को हत्या किये जाने के कारण समाप्त हुआ लेकिन इतने कम समय में दुनिया के अनेक देशों से गुजरते हुए उनकी रचनाओं ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी। कोई उन्हें नक्सलवाद समर्थक कहता तो कोई मार्क्सवाद समर्थक। कोई सत्ता के विपरीत सीधे लोहा लेनेवाला कवि मानता, तो कोई गोरकी, ब्रेख्त,आस्ट्रोवस्की, नागार्जुन, निराला या धूमिल कवियों की श्रृंखला का कवि मानता।
उनकी अनेक रचनाएँ ‘दस्तावेज’ और ‘आरंभ’ में छपती रहीं। उनकी पहली पुस्तक काव्य संग्रह “लोह कथा” ने उन्हें एक स्थापित कवि बनाया। आगे उनकी पुस्तकें 1974 में ‘उड़ते बाजां मगर’ 1978 में ‘साडे सामिया बिच’ प्रकाशित हुईं जिनसे वे काफी प्रसिद्ध हुए। उनकी कविताओं की अनेक पुस्तकें उनकी मृत्यु के बाद नवंबर, 1988 में बने “पाश मेमोरियल इंटरनेशनल ट्रस्ट” द्वारा प्रकाशित की गयीं। यह ट्रस्ट आज भी सक्रिय है। हालाँकि हिन्दी भाषा में ज्यादा अनुवाद नहीं हो पाया है फिर भी अनेक कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया जा चुका है।
“बिखरे हुए पन्ने” संपादक नवल सिंह और अनुवादक डॉ वेद प्रकाश ‘वटूक’ के सृजन को अमृत बुक्स, कैथल, हरियाणा ने हार्ड कवर में मूल्य 200 रुपये रखकर प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में ‘पाश’ के जीवन की प्रमुख बातों के साथ 65 कविताएँ हैं।
पाश की रचनाओं में दहशतगर्दी, मौकापरस्ती और सत्ता के खिलाफ बिगुल की आवाजें आतीं हैं। धरती की भाषा के कवि, विद्रोही सुर अनेक पक्षीय होने के कारण उन्हें नक्सलवाद समर्थक कवि माना गया। उनकी कविताओं में जो तेज़ है, जो ग्रामीण परिवेश की चर्चा है, जो सत्ता के प्रति गंभीर भाव और घाव का दृश्य है, वो अद्भुत और बेहतरीन है। आप किसी भी विचार के समर्थक हों, उनकी रचनाओं से प्रभावित होंगे ही। मैं इनके बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानता लेकिन इस पुस्तक “बिखरे हुए पन्ने” से कविता के एक उबाल से वाकिफ़ अवश्य हुआ हूँ। इस पुस्तक की कुछ पंक्तियां आपको मेहनतकश आदमी की मुश्किलों और हालातों के खिलाफ ‘यलगार हो’ जैसी लगेंगी।
इन पंक्तियों को देखें-
“मैं सलाम करता हूँ
आदमी के मेहनत में लगे रहने को
मैं सलाम करता हूँ
आनेवाले खुशगवार मौसमों को
मुसीबतों में पले प्यार जब सफल होंगे
बीते हुए समयों का बहाया गया लहू
जिंदगी की धरती से उठाकर
जब लगाया जायेगा माथों पर।”
इनकी इन पंक्तियों को देखें कि
“मैंने यह कभी नहीं चाहा कि हवा लहराये
विविध भारती की धुन पर
और छेड़ती रहे रेशमी पर्दों को
मुझसे लुकछिप कर….
मैंने कभी लालसा नहीं की कार के गद्दों की
बीड़ी के कश को तड़पते रिक्शेवाले
मेरे सपने कभी सीमा पार नहीं कर पाये…
मुझे तो दिखायी देती हैं
आसमान की ओर उठी
बुझी हुई आँखें
माँगती हुई वर्षा।”
“सबसे खतरनाक नहीं होती
मेहनत की लूट
सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार
सबसे खतरनाक नहीं होती
मुट्ठी लोभ भरी गद्दारी की”
संसद कविता में लिखते हैं कि
‘मत करो उँगली मधुमक्खियों के छत्ते की ओर
जिसे तुम छत्ता समझते हो
उसमें रहते हैं लोगों के प्रतिनिधि’।
” हुकूमत बहुत छोटा है तेरी तलवार का कद
कवि की कलम से कहीं छोटा
बहुत कुछ है कविता के पास अपना
तेरे कानून की तरह नहीं है वह दीन- हीन हजार बार हो सकती है
तेरी जेल कविता के लिए
पर यह कभी नहीं होगा
कि कविता हो तेरी जेल के लिए।”