श्री देवांशु द्वारा लिखित कविता संग्रह “पग बढ़ा रही है धरती” आज सुबह-सुबह मिली और एक बैठक में ही पूरी पुस्तक पढ़कर समाप्त किया है. सर्वप्रथम इस पुस्तक हेतु श्री देवांशुजी को बधाई कि एक बेहतरीन कविता संग्रह सबों के बीच आयी है. लोकोदय प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, लखनऊ ने इसका प्रकाशन रंगीन कवर में मूल्य रूपये 150 रखकर किया है. कुल 76 कविताएँ 96 पेजों में हैं. कवर और आकर्षक होना चाहिए था. साधारण सा कवर है जिसमें असाधारण कविताएँ हैं. कविताओं में अद्भुत सम्मोहन है। मैं अक्सर आम जनों से किसी पुस्तक विशेष को एक बार पढ़ने का अनुरोध करता हूँ लेकिन ‘पग बढ़ा रही है धरती’ पुस्तक के बारे में कहूँगा कि जो व्यक्ति स्थापित कवि हैं या जो कविता लेखन में आगे आना चाहते हैं उन सबों को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए. इस पुस्तक में कविताओं को कविता के रूप में लिखी गयी है. सिर्फ मन के भावों को शब्दों में पिरोया नहीं गया है बल्कि कविता के व्याकरण का भी ख्याल रखा गया है. कविता के जीवन को जिलाने का प्रयास किया गया है. कविता, कविता के रूप में जीती है और चरम आकाश की ऊँचाइयों को छूती है. इस पुस्तक की अनेक रचनाएँ हैं जो मुझे बहुत अच्छी लगी और आप सबों को भी अच्छी लगेगी. कुछ कविताओं की पंक्तियों को देखें तो आप खुद समझ पायेंगे कि पुस्तक किस स्तर की है. जैसे पहली कविता ‘पुस्तक मेले में नन्हा पुस्तक विक्रेता’ में कवि ने पुस्तक नहीं बिकने के भावों को जिन शब्दों में उकेरा है पंक्तियाँ दिल छूती हैं कि-
“पुस्तक मेले के दूरस्थ, प्रवेश द्वार पर एक नन्हा पुस्तक विक्रेता बैठा है, डोरेमोन की जादुई किताबों के साथ,
वह चिल्लाता है तीस की ले लो…(कुछ अन्य पंक्तियाँ हैं), बीस की ले लो… …(कुछ अन्य पंक्तियाँ हैं)
वह तीसरी बार टूटी आवाज में कहता है, अच्छा दस की ले जाओ!
किताबों में जादुई संसार खोजने वाले चलते जाते हैं, लेखक बड़े और बड़े होते जाते हैं, पाठक विविध भावों से पूरे होते रहते हैं, लेखक और पाठक के बीच का एक भाव रह जाता है, जादुई यथार्थ की एक किताब अनबिकी छूट जाती है.”
मैं अक्सर कहता हूँ कि इनकी कविताओं में हिंदी शब्दों का जो प्रयोग होता है उसके लिए मुझे डिक्शनरी निकालनी पड़ती है लेकिन इस पुस्तक में इन्होंने मुझ जैसे पाठकों का ख्याल रखा है. मुझे इस बार डिक्शनरी कम निकालनी पड़ी. आसान शब्दों का संयोजन एक बेहतरीन कला है और देवांशु इस कला के अध्यापक भी हैं आज पता चला.
इनकी कविता ‘शिकार’ के शब्दों को देखें कि-
‘धर लिए जाने से पहले उसके पाँव हिरन हो जाते हैं, देह माया सी छिटकती है
और आँखों में होता है, आकाश में उड़ जाने का दिवास्वप्न, पर चपल है चीते की गति
लयात्मक द्रुत का रौद्र ऐसा, कि देखते हुए हमारी आँखें
अपनी गति से विरत हो जाती हैं, जब चीता अपनी त्वरा के
अंतिम ध्रुव पर होता है.’
‘गुब्बारे बेचता बच्चा’ कविता में कवि ने एक बच्चे के अच्छे पैर होने के बावजूद बैसाखी लेकर गुब्बारे बेचने की ठगी को दर्शाया है, भावनात्मक दोहन की चर्चा क्या खूब है कि-
“रात के नौ बजे हैं, लाल बत्ती के पास भीड़ है, अभी-अभी काँधों के नीचे बैसाखी लिए,
एक बच्चा यहाँ हाजिर हुआ है. पाँव उसके पक्के हैं (कच्चे छपी है जबकि सही शब्द पक्के हैं)
बैसाखी कच्ची, जैसा कच्चा बचपन, लोग एकबारगी उसे फिर बैसाखी को देखते हैं
इस देखा देखी में, ठगी की आपसदारी है, हाथों में उसके गुब्बारे हैं, आँखों में नींद से पहले,
उनींदी गुलदस्ता, आकाश में सो चुके हैं तारे, धरती पग बढ़ा रही है
गहरा रहा है पथराये शहर में अंधेरा.’ देवांशुजी का प्रिय शब्द ‘पिता’ रहा है. पिता पर इनकी बेहतरीन कविताएँ होती हैं. एक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें.
“जब भी पिता से कभी किसी शब्द का अर्थ पूछा
उन्हें फौरन अर्थ बताते हुए सुना, नब्बे साल की उम्र में मुझसे बेहतर है उनकी शब्द संपदा
इतनी बेहतर कि मैं चमत्कृत रह जाता हूँ, पिता बस अब जीने की भाषा भूल रहे हैं,
भूल जाते हैं कि खाना या नहाना, क्रिया के साथ एक शब्द भी है.”
पिता पर ही दूसरी कविता में बहुत ही सुंदर असाधारण चित्रण करते हैं कि
“जब बाबूजी के बास मारते कपड़े बदलते हुए, मैं अपनी साँसों को रोकता हूँ,
तब मुझे सहज ही यह लगता है कि मेरा प्रेम अभी पका नहीं है,
मैं स्वयं पिता होकर भी पिता नहीं हो सका हूँ.”
‘एषणा’ कविता के भावों को देखें कि
‘एषणा मेरी… एक स्पर्श..
आस्वाद मेरा एक चुंबन, अंतर अभिलाष मेरी, दो नयन प्राण मेरे
दो विकल बाहु, मृत्यु मेरी
एक आलिंगन..’
‘घर’ कविता में पंक्तियाँ देखें कि ‘बरामदे पर दीवार की जालियों से
धूप कटती थी और छाँव के छाते गिरते थे, धूप- छाँव का वह वास्तु पिता ने रचा था
जबकि वे कोई वास्तुकार नहीं थे
बैठकर वहीँ स्वेटर बुनती थी माँ
आधी धूप आधी छाँव के मध्य
सुर में जाड़े को गुनगुनाती थी.”
‘शरद’ कविता के शब्दों को देखें कि
“सौंपकर सब कुछ अपना फुनगियों पर बैठ गये हैं
थके हारे पानी के परिंदे बुहारकर आँगन
सूरज लीप रहा है सुबह शाम
एक शून्य उभर रहा अनंत में
क्षितिज की छत पर रह गये मुट्ठी भर मेघ
प्रतीक्षा के पीले पुर तक
चल कर आ रही शरद की नीली शोभा.”
‘दादी’ कविता के बीच की कुछ पंक्तियाँ हैं कि-
“मेरी माँ तुम्हारे लिए बेटी नहीं थी
न माँ के लिए तुम उनकी माँ रही
पर रहा सब कुछ माँ बेटी जैसा ही
तुम बेटी और बहू की महीन रस्सी पर
वैसे ही चलती रही जैसे चलते हैं सिद्ध नट
और माँ ने भी उस दंड को वैसे ही थामे रखा
जैसे थामे रखती है दृढ़ धरती.”
‘ग्रहण शेष’ कविता में कवि ने ग्रहण की मान्यताओं पर एक व्यंग्यात्मक चोट किया है कि
“बर्तन में भात के टुकड़े थे
जिन्हें दो घंटे पहले जाना था मेरे पेट में
अब वो अपवित्र हैं
मैं उन्हें नहीं कर सकता ग्रहण
मैं सोऊंगा भूखा पेट और जागूँगा भरा भरा
शायद विचारता भी उनके बारे में
जो बचे हुए हैं इस ग्रहण से.”
यहाँ कवि भात के दाने भी लिख सकते थे लेकिन इनके शब्दों के संयोजन की विशेषता है अन्यथा ‘भात के टुकड़े’ आपको कहाँ मिलेंगे?
‘प्रेम’ कविता में प्रेम का वर्णन कवि इस प्रकार करता है कि
“वह एक उल्कापिंड है आत्मा का आकाश तिरता है..
गिरता है कहीं क्षितिज के साम्राज्य में
जिसे कोई आकाश नहीं छूता
धरती के माथे पर वह रहता है
आकाश के पाँव तले वह मिलता है..
दोनों उसे पा लेने से भरे हुए हैं
दोनों कितने खाली-खाली पड़े हुए हैं.”
‘कुरूप स्त्रियाँ’ कविता इस पुस्तक की अंतिम कविता है. इसके शब्दों को देखें कि
“मुझसे हर रोज टकरातीं हैं
मुझे टटोलती हैं कुरूप स्त्रियाँ
मैं उन्हें बरबस देखता हूँ
भर लेता हूँ भीतर कहीं
बाढ़ का पानी सा उतर जाती है रूप गर्विताएँ
बहती रहतीं हैं कुरूप स्त्रियाँ.”
अर्थात इनका अंतिम बैट्समैन भी शतक बनाने का माद्दा रखता है.
इन सब के अलावा भी अनेक कविताएँ मनोहर हैं. पाठक कविता की नदी में डूब जाता है. बहुत तनाव देने वाली कविताएँ, बहुत बड़े मुश्किल प्रश्न खड़े करने वाली कविताएँ इस पुस्तक में नहीं हैं. श्री देवांशुजी को इस संग्रह हेतु पुनः हार्दिक बधाई देता हूँ. भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ और लोकोदय प्रकाशन को भी इस बात के लिए धन्यवाद और बधाई देता हूँ कि उनके पास उनके प्रकाशन से एक ऐसी पुस्तक निकली है जो बहुत दूर तक जायेगी. जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि यह पुस्तक पाठकों के दिलों में जगह तो बनायेगी ही साथ ही साथ कविता लिखने वाले या कविता लेखन के क्षेत्र में जो आगे बढ़ना चाहते हैं उनको कविताएँ कैसे लिखी जाती हैं, कैसे लिखी जानी चाहिए उस ख्याल से भी इस पुस्तक को पढ़ना उनके लिए लाभकारी होगा.
मेरी पत्नी ने दो तीन कविताएँ पढ़कर मुझसे कहा कि प्रेम की कविताओं का स्तर बहुत ऊँचा है, पुस्तक को और बढ़िया गेटअप में आना चाहिए. हालाँकि मैंने ऊपर ज्यादा प्रेम की कविताओं का जिक्र नहीं किया है. उनके प्रश्न का उत्तर मैंने यह कह कर दिया कि यह पुस्तक मेरे लिये उस बताशे की तरह है जो मेरी दादी सत्संग सुनने के उपरान्त अपनी गेठी (साड़ी के पल्लू का एक छोर) में मेरे लिये बाँध कर लातीं थीं.