श्री अनवर सुहैलजी की लिखी कहानी संग्रह “गहरी जड़ें” पढ़कर समाप्त किया है. बहुत ही सार्थक शीर्षक है. समाज में जिन कुरीतियों और विचारधाराओं ने अपनी गहरी जड़ें जमा लीं हैं उन्हें उखाड़ना आसान नहीं है. पुस्तक को एपीएन पब्लिकेशंस ने सुन्दर आवरण में मूल्य रुपये 160/- रखकर प्रकाशित किया है. मैं अनवर सुहैल साहेब को इस बेहतरीन और खतरा मोल लेने वाली पुस्तक के लिए बधाई, शुभकामनाएँ देता हूँ और इतना हिम्मती कार्य करने के लिये उनकी सराहना करता हूँ.
इस पुस्तक में दस कहानियाँ हैं और सभी कहानियाँ मुस्लिम परिवार, उनकी जीवन शैली, आशंका, निजी जीवन में धर्म के नाम पर हस्तक्षेप और ज्यादातर कर्मकांड के बारे में लिखी गयीं हैं. लेखक ने लगभग प्रत्येक कहानी में कट्टर धर्मान्धता, मुस्लिम समाज का जातिवाद, कुरीतियाँ और निजी जीवन में धर्म के नाम पर कुछ भी थोप देने का बहुत सलीके से, खुलकर, सीधा विरोध किया है. यह एक मुस्लिम लेखक के लिए दसरथ माँझी की तरह पहाड़ काट रास्ता बनाने जैसा कार्य है. लेखक ने बहुत ही हिम्मत से मुँहतोड़ साहित्यिक कुदाल चलाया है. किसी भी समाज की कुरीतियों को साहित्य सबसे पहले उजागर करता है. कुरीतियों पर बार- बार, लगातार प्रहार कर समाज को जगाता है तभी अंत में समाज उसे अपने से हटाता है. लेखक ने मुस्लिम समाज की अनेक कुरीतियों पर तेज़ प्रहार किया है. मुझे मुस्लिम समाज की बहुत चीजों की जानकारी नहीं थी जो इस पुस्तक से मिली है. अब कहानियों पर आता हूँ.
पहली कहानी ‘नीला हाथी’ में लेखक ने एक ऐसे कलाकार के बारे में लिखा है जो बहुत अच्छा मूर्तिकार था. मुस्लिम होकर हिन्दू देवी देवताओं की मूर्ति बनाता था. धर्म के ठेकेदार ने रोककर माफी मंगवायी. अब वह जुगाड़ कर एक मजार बनवाता है और मुजाबिर (दरगाह/मजार पर रहने वाला जो चढ़ावा लेता है) बन जाता है. हरा चोगा पहन, गले में रंगीन पत्थर डालकर अपने लाभ के लिये बाजार खड़ा कर देता है. बेहतरीन अंदाज में व्यंग्य है. लेखक यह स्थापित करने में सफल हो जाता है कि इस्लाम में मूर्ति पूजा मना है लेकिन एक कलाकार का मूर्ति बनाना तो जायज़ होना चाहिए. बनाना तो उसकी जीविका का साधन था. धर्म के नाम पर साधन नहीं छीना जाये. मुझे मजाहिया शायर नश्तर अमरोही का एक सच्चा शेर याद आता है कि- “बरहना जिस्म पर चादर कोई ओढ़ाये क्यों, सड़क की लाश है कोई मजार थोड़े है.”
इनकी रचनाओं में एक आम शहरी जो सोचता है वही हू-ब-हू कलम ने उतार दिया है. 1984 का सिक्ख दंगा हो, 1992 का बाबरी मस्जिद के बाद का विवाद, 1993 का मुम्बई बम ब्लास्ट या 2002 का गुजरात दंगा, सबको लेखक ने कटघरे में खड़ा किया है. लेखक मुस्लिम हैं अतः उन्होंने अपने समाज की बारीकियों और कमियों को बहुत ही अच्छे तरीक़े से रखा है. दूसरी कहानी ’11 सितंबर के बाद’ में एक आम मुस्लिम जो किसी गुट में नहीं था लेकिन व्यंग्य और गंदी मानसिकता के लोगों की बातों से तंग आकर मुस्लिम खेमे में शामिल होता है, की कहानी है. ये आपसी वैचारिक दूरी की त्रासदी की दास्तान है.
‘गहरी जड़ें’ जो इस पुस्तक का नाम भी है, वाकई इतनी समृद्ध है कि अकेला मुस्लिम परिवार अपने पुश्तैनी मकान में, हिन्दुओं के मोहल्ले में, इस विश्वास से रह रहा है कि साम्प्रदायिकता की हवा कुछ नहीं बिगाड़ पायेगी. मुख्य पात्र अपने बच्चों और परिवार के कहने पर भी मुस्लिम बहुल इलाके में नहीं आता. यह आत्मविश्वास है. ये कहानी उन लोगों के लिए है जो अपने धर्म मानने वाले लोगों के बीच जाकर रहना चाहते हैं. भीड़ के बीच. अच्छी रचना है. लेखक अपने उद्देश्य में सफल है. गहरी जड़ें हैं इतनी आसानी से कैसे कोई उखाड़ सकता है.
‘चेहल्लुम’ कहानी एक आम घर की कहानी है. दो बेटे पिता की मृत्यु के बाद माँ से सब ले लेने की राजनीति करते हैं. बेटी आकर माँ का पक्ष लेती है. मुस्लिम बेवा औरतों का पति की मृत्यु के बाद इद्दत की अवधि यानी तीन माह तक घर से बाहर निकलना मना होता है जिसे मुख्य पात्र अम्मी ने विद्रोह कर तोड़ दिया है. अपना काम वो खुद नहीं करेंगी तो बेटे बहू इसका लाभ ले उनका सब हड़प लेने की नीयत में लगे हैं. कहानी आज के समय में जीने को कह रही है. कहानी पिछले समय के जंज़ीरों को तोड़ आगे बढ़ने को प्रेरित करती है.
‘दहशतगर्द’ कहानी में एक मुस्लिम युवक साम्प्रदायिक माहौल में कैसे दहशतगर्द बन जाता है, की कहानी है. मुस्लिम समाज पर लगने वाले आरोपों और प्रत्यारोपों के बीच उलझे इस पात्र ने अनेक ज्वलंत प्रश्नों को उठाया है. कहानी अंत तक अपनी रोचकता बनाये रखती है.
‘नसीबन’ एक तलाकशुदा महिला की कहानी है. इसमें सास अपने नपुंसक बेटे की पत्नी से किसी भी तरह बच्चे की आस लगा झगड़ते रहती है. विवश निरपराध औरत मायके आती है. तलाक़ मिलने पर दूसरा खुशहाल जीवन पुनः शुरू करती है. अब बस में उसे अपने पहले पति की दूसरी पत्नी से उसके तीन बच्चों के साथ भेंट हो जाती है. तीन बच्चे कैसे आये? यह कहानी कुछ भी, कैसे भी, नैतिक या अनैतिक तरीके के बीच से निकलती है. एक औरत कैसे अपने अहं के लिये कुछ भी करवा सकती है का चित्रण है. तलाक़ मिली हुई महिला के संघर्ष की कहानी है. यहाँ “अवली” पुस्तक की एक कहानी लेखक सर्वेश्वर प्रतापजी की “धाधा” की याद आती है जिसमें औरत अपने बाँझ होने की गाली भी नहीं सुनती, नफरत करने वाली सास से भी अलग होना नहीं चाहती और ना ही अपने नशेड़ी पति को छोड़ना चाहती. ये दोनों कहानियाँ एक दूसरे के आमने सामने लगतीं हैं.
‘पीरू हज्जाम उर्फ हजरतजी’ कहानी में लोगों की आँखों में धूल झोंककर मजार के बनवाने और अध्यात्म के नाम पर ढ़कोसला, ठगी, पाखंड और व्यवसाय करवाने की कहानी है. पैसे और अय्याशी के कारण कोई रिश्ता स्थायी नहीं रह पाता. कहानी अपनी दिशा दिखाने में बिल्कुल स्पष्ट और कामयाब है.
‘कुंजड़-कसाई’ कहानी मुस्लिमों के अन्दर जाति प्रथा के कसक को बयां करती है. कुरैशी का विवाह सैय्यद की लड़की से होती है लेकिन उसे अपना सरनेम छुपाने को कहा जाता है. कहानी ऊँची और निम्न जाति के मिथक को तोड़ती है लेकिन मुख्य पात्र अंत तक इसे झुठला नहीं पाता.
‘फत्ते भाई’ कहानी एक ऐसे साधारण पति पत्नी की है जो छोटा सा काम करके अपना जीवन बसर करता है. निःसंतान है लेकिन दोनों के बीच बहुत प्यार है. दोनों खुश भी हैं. फत्ते भाई जोर का बीमार पड़ते हैं. चिकित्सा से, झाड़- फूँक, ताबीज़ के बाद भी जब ठीक नहीं होते तो किसी दूर के हिन्दू बजरंगबली के मंदिर का प्रसाद समाज से छुपाकर इस विश्वास से खाते हैं कि बीमारी ठीक हो जायेगी. ये बात मुस्लिम धर्मगुरु और समाज के ठेकेदार को पता चल जाती है. वे इसे धर्म विरुद्ध मानकर पुनः इस्लाम में दाखिल होने को कहते हैं. कुफ्र करने वाले का निकाह टूट जाता है इसलिए उसे अपनी पत्नी के साथ फिर से निकाह पढ़वाना होगा. सुनते ही फत्ते भाई का जिस्म बेसुध हो जाता है.
लेखक ये बताने में सफल हो जाता है कि किसी भी व्यक्ति को स्वयं कोई भी धर्म मानने का अधिकार है और वो अपनी मर्जी से किसी भी धर्म के किसी कार्य में भाग ले सकता है, इससे उसका अपना धर्म खतरे में नहीं आ जाता. ‘पुरानी रस्सी’ कहानी एक अदृश्य रस्सी की तरह एक मुस्लिम युवक का एक आदिवासी महिला के प्रति प्रेम की कहानी है. अब विवाहित महिला अपना प्रिय बकरा बेचना नहीं चाहती थी लेकिन पहले प्यार को कैसे मना कर दे. अंत तक पाठक आगे क्या होगा सोचकर बंधा रहता है.
कुल मिलाकर एक मुस्लिम लेखक द्वारा अपने समाज के अंदर का भय, आशंका, स्थिति, जातिवाद, अंधविश्वास, ठगी, गरीबी, अशिक्षा और धार्मिक कट्टरवादिता के साथ बहु संख्यक से अनेक सवाल पूछती कहानियाँ लिखी गयीं हैं. यह लेखक का भागीरथी प्रयास है. इन कुरीतियों की जंजीरों को तोड़ना बहुत आसान नहीं है लेकिन छोटा ही सही लेखक ने एक हथौड़ा तो मार ही दिया है. मैं लेखक को इतनी साफगोई से अपनी बात रखने की पुनः बधाई देता हूँ.
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