पुस्तक “कोठा नम्बर 64” के लेखक श्री राकेश शंकर भारतीजी को इस नयी पुस्तक हेतु बधाई, शुभकामनाएँ।
अमन प्रकाशन ने पुस्तक का प्रकाशन शीर्षक के अनुरूप रंगीन कवर में 176 पेजों की पुस्तक मूल्य 225 रुपये रखकर किया है।
भारतीजी विदेश में रहते हैं और मेरी उनसे साहित्यिक मित्रता भी है। अक्सर बातें भी होती हैं। उनकी एक बात मुझे लिखने पर मजबूर करती है कि जैसा लगे वैसा ही लिखिये लेकिन लिखिये। ठीक नहीं लगे तो लिखिये कि पुस्तक ठीक नहीं है। कमी निकालिये तो भविष्य में सुधार होगा। जहाँ कुछ लेखिकाएँ जरा सी भी आलोचना होने पर फेसबुक से लेकर सब जगह ब्लॉक कर देतीं हैं ऐसे में उनका अनुरोध उन्हें ऊपर की ओर ले जायेगा, ऐसा मेरा मानना है।
उनके इसी आग्रह पर लिख रहा हूँ।
उनकी पिछली पुस्तक के प्रति भी मेरे विचार आलोचनात्मक ही थे।
“कोठा नम्बर 64” जैसा कि नाम से ही जाहिर है सभी कहानियाँ वेश्यावृत्ति, वेश्याओं के जीवन, उनके बच्चों की जीवनशैली और उनके इस व्यवसाय से जुड़े लोगों जिसे दलाल कहा गया है पर आधारित है। पुस्तक की प्रस्तावना में ही लेखक सरकार से पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी वेश्यावृत्ति को कानूनी रूप से मान्यता देने का अनुरोध करते हैं।
ये सच है कि हर दौर में वेश्यावृत्ति होती रही है। हाँ, इसका रूप बदलते रहता है। आज भी अनेक सार्वजनिक जगहों पर, बड़े होटलों में चोरी छुपे चल ही रहा है। इनका शोषण भी होता ही है। सर्वविदित है कि अधिकतर महिलाएँ ठगी, धोखाधड़ी और गरीबी के कारण इस पेशे में धकेली जातीं हैं। अब जब इस विषय पर पुस्तक लिखी जायेगी तो अपेक्षा की जायेगी कि इनके यहाँ तक पहुँचने की कहानी, जीवनशैली का दुःखद पहलू, इनके बच्चों का वर्तमान और भविष्य की चर्चा, इनके जीवन के अंतिम पड़ाव की चर्चा, इनके जीवन में निर्णय लेने के क्षण में कैसे निर्णय लिए जाने चाहिए और एक समाज एवं सरकार के लिए सुझाव की चर्चा हो। कहीं इस पर भी चर्चा होनी चाहिए थी कि एक चूक यहाँ तक पहुँचा सकती है। कोई कैसे, कहाँ तक, किस पर भरोसा करे।
उनके दुःखों की विस्तृत चर्चा होनी चाहिए थी लेकिन पुस्तक में इन बातों का घोर अभाव है। लेखक ने कहीं कहीं करुणा लाने का प्रयास किया है तथापि पुस्तक आनंद लेकर, चटखारे लेकर पढ़ने जैसी बन गयी है। कहीं भी मर्म खुलकर उभर नहीं पाया है। करुणा, ममता और दया नहीं आ पाती बल्कि पढ़ने पर लगता है कि इनका जीवन इसी कार्य हेतु है।
एक महत्वपूर्ण बात और कि आजकल माँ, बहन, महिलाओं की गालियों का देशी वास्तविक रूप में प्रयोग साहित्य के नाम पर होने लगा है। समाज में ऐसी गालियाँ दी जाती हैं लेकिन लेखक अगर उसे उसी रूप में लिखता है तो फिर आम जन और साहित्यकार में क्या फर्क रहा? साहित्य समाज का आईना है लेकिन साहित्यिक आईना है। गालियाँ साहित्यिक भाषा में लिखें, किसने रोका है? गालियों के वास्तविक रूप से पाठक ठगा महसूस करता है। अगर आप ऐसी गालियाँ लिखते हैं तो यकीन मानिए लोग आपकी पुस्तक को घर में आम किशोर बच्चों से दूर छुपाकर रखेंगे। ये पुस्तक कभी दूसरे के सामने नहीं आयेगी। कोई दूसरा पढ़ नहीं पायेगा।
मेरी राय में किसी भी कहानी और पुस्तक लिखने के पहले लेखक को यह मालूम होना चाहिए कि वो ये क्यों लिख रहा है? अगर यह स्पष्ट है तो अंत में पुनरीक्षण करना चाहिए कि जो वो कहना चाह रहा था वो कह पाया कि नहीं, तभी वो रचना या पुस्तक सफल होगी।
लम्बे समय तक वही कहानी प्रासंगिक रहती है जिसमें एक मैसेज हो, समस्या उठायें तो समाधान की तरफ भी कुछ इशारा हो।
इस पुस्तक में कहीं कहीं कुछ समस्याएँ उठायीं गयीं हैं लेकिन बहुत स्पष्ट नहीं हो पाता है। पढ़ने पर लगता है कि वेश्याएँ अपने को इसी हेतु उनका जन्म हुआ है मानकर खुश हैं। बहुत वीभत्स या दुखदायी भाव नहीं बन पाया। उनके मुख्य धारा में आने के रास्ते पर भी कोई कहानी होनी चाहिए थी। उनके बच्चों की विस्तृत चर्चा, बच्चों को शिक्षा कैसे दी जाये इसपर भी विचार होना चाहिए था। इन सबका इस पुस्तक में अभाव है। वेश्याओं के दुःख दर्द की पूरी कहानी होनी चाहिए थी। अभाव खलता है।
पूरी पुस्तक में कुछ कहानियाँ आपके दिल तक पहुँचते पहुँचते रह जातीं हैं। 14 कहानियों में कुछ नया नहीं है। ऐसे अनेक कहानियाँ पहले भी पढ़ी है जिसमें अय्याश किसी वेश्या की पुत्री से संबंध बनाता है और बाद में पता चलता है कि वो पुत्री उसी की है।
कुल मिलाकर ऐसी पुस्तक को लोग पहले ही दोयम दर्जे का मानते हैं। छुपाकर पढ़ते हैं।
कुछ बातों की तारीफ भी करनी पड़ेगी।
इस पुस्तक में भले ही कुछ प्रश्न अनुत्तरित हैं तथापि इस वर्ग पर बहुत कम लोग लिखने की हिम्मत करते हैं। लेखक भारतीजी की शिक्षा भारत के सबसे बड़े यूनिवर्सिटी में हुई है। विषय चुनना लेखक का निजी क्षेत्र है। उन्होंने ऐसा विषय चुना है यह भी कम बात नहीं है। उनकी इससे पूर्व की पुस्तक किन्नर समाज पर थी।
आज भारत में पारिवारिक, विदेश और बुजुर्गों को केंद्र में रखी रचनाएँ ही सफलता के कीर्तिमान बना रही है ऐसे में इस विषय को भी भूला नहीं जाना चाहिए, लेखक याद दिलाने में तो सफल हो जाते हैं। एक बार याद दिला देते हैं कि समाज से ये समाप्त नहीं हुईं हैं। सारे प्रश्न आज भी विद्यमान हैं।
भविष्य में जब कभी कोई इस विषय पर लिखेंगे तो शायद मेरे ये विचार कुछ सहायक हों।