श्री विनोद दूबे जी की “इंडियापा” उपन्यास पढ़कर समाप्त किया है। सर्वप्रथम विनोदजी को इस पुस्तक हेतु बहुत बधाई। पुस्तक को हिन्द युग्म प्रकाशन ने मूल्य 125 रुपये रखकर आकर्षक कवर में प्रकाशित किया है। लेखक मर्चेंट नेवी में हैं और उपन्यास को ऐसे लिखा है जैसे आपबीती हो। पुस्तक खरीदते समय पुस्तक के नाम को समझ नहीं पाया था। इंडियापा का अर्थ क्या? पुस्तक के अंदर कथा में लेखक ने बताया कि इंडियापा लिखने का आशय है भारत में लीक से हटकर अचंभित जीवन जीना, कैसी भी परम्परा का पालन करना और रूढ़िवादी जीवनशैली के आदेश का पालन करना। उदाहरण के तौर पर लेखक कहता है कि भारत में रिक्शे वाले इतनों को भरने की फिराक में होते हैं जैसे वो खुद रिक्शे के बाहर हवा में बैठकर रिक्शा चलायेंगे। ये अपने को बाहर निकालकर रिक्शा चलाना इंडियापा है।
जातिवाद, कैसा भी रीति रिवाज और अपने माँ बाप के किसी भी कहे को चुपचाप मानते रहना इंडियापा है। अब पुस्तक पर आऊँ।
नायक बनारस के पास के एक गाँव का रहने वाला है जो अपनी माँ का इकलौता बेटा और एक बहन का भाई है। मर्चेंट नेवी में नौकरी करता है, बनारस शहर में घर बनाया है। अक्सर अपने कार्य से समुद्री मार्ग से विदेश जाते रहता है । उसे बनारस की ही एक लड़की से बाजार में देखकर प्यार हो जाता है। धीरे धीरे दोनों एक दूसरे को बहुत चाहने लगते हैं। बनारस, गंगा के उस पार का रेतीला तट और सारनाथ साथ साथ घूमते हैं। पुस्तक में बनारस के घाटों, मंदिरों और तंग गलियों का सुन्दर वर्णन है। पढ़कर बनारस घूमने का मन करने लगेगा। अब जब विवाह की बारी आती है तो आम हिन्दी फ़िल्म की तरह पता चलता है कि नायक शुक्ला सरनेम और नायिका सिंह सरनेम की है। कोई सीधा विलेन भी नहीं है। जाति का बन्धन आड़े आ जाता है। नायक को पिता नहीं है। अगर जाति बन्धन को तोड़कर विवाह कर लेगा तो समाज के तानों से उसकी एक मात्र माँ दुःखित हो मर जायेगी। रीति रिवाज़, परंपरा को देखते हुए और अनुशासित बेटे की तरह माँ के द्वारा पसंद की गयी लड़की से विवाह करता है।यानी नायक का विवाह एक सुन्दर, सबकी चहेती, सबका केयर करने वाली और नायक को बहुत चाहने वाली लड़की से होती है जो अपनी बेटी का नाम अनजाने में नायक की प्रेमिका का ही नाम रखती है। नायक की पत्नी भी भले इंडियापा के कारण अपने प्रेमी को छोड़कर आयी हो लेकिन अभी के जीवन में वह बहुत खुश है। प्रेमिका भी विवाह कर अपना अलग जीवन शुरू करती है। लेखक का मानना है कि प्रेमी प्रेमिका का विवाह नहीं होने के बाद दोनों के अच्छे दोस्त बने रहने का कॉन्सेप्ट ठीक नहीं रहता। दोनों एक दूसरे को उम्र भर चाहते रहिये, याद कीजिये लेकिन बिना कोई मतलब रखे अपना अपना जीवन देखिए।
हालाँकि कहानी का अन्त सुखद करने का प्रयास किया है लेकिन नायक और नायिका का विवाह नहीं हो पाने के कारण बहुत पाठक खुद इंडियापा के शिकार हो जायेंगे। लेखक ने बहुत ही खूबसूरती के साथ दोनों के पक्षों को रखा है। पाठक सोचता है कि जाति बंधन तोड़कर, भागकर या अन्य प्रकार से नायक विवाह कर सकता था। वो अपने पैरों पर खड़ा है। नौकरी वाला है। एक माँ ही तो है। रो धोकर या कोई भारी कसम देकर मना लेगा। या विवाह क्यों नहीं कर लेता, विधवा माँ क्या बिगाड़ लेगी? कुछ दिनों बाद खुद मान जायेगी। लेखक हमेशा पाठक के मन के हिसाब से चले आवश्यक नहीं। लेखक यह समझाने में सफल हो जाता है कि आप प्रेम में थे किसी कारण विवाह नहीं हो पाया तो निराश मत होइए। जहाँ हैं वहाँ नया खुशहाल जीवन जीने की कोशिश कीजिए। दूसरी तरफ यह भी बताने में सफल होता है कि देखिए प्रेमी जोड़ा जीवन भर एक दूसरे को चाहते रहेगा, एक प्रेम कहानी अपने रूढ़िवादी इंडियापा की वजह से अलग अलग दिशा में भटक गयी। इंडियापा पर प्रहार भी दिखता है। शादीशुदा बड़ी बहन भी समाज का हवाला दे सब जानते हुए अन्य लड़की से विवाह कराने पर बल देती है और इस प्रेम पर चुप्पी साध लेती है। बेटे की धड़कन तक परखने वाली माँ इतनी बड़ी बात नहीं परख पाती? सामाजिक प्रतिष्ठा इन रिश्तों की बलि लेती रहती है। पुस्तक रूढ़िवादी विचारधारा और बीच के सुझाए समाधान के बीच समाप्त होती है। आगे यही है कि दोनों का विवाह अलग अलग होता है। एक दूसरे को राधा कृष्ण के प्रेम की तरह रखिये लेकिन दोस्ती और मिलने जुलने का प्रयास मत कीजिए। मन ही मन एक दूसरे को जीवन भर याद करते रहिए।
अपने जीवन में आगे बढ़ लगभग सभी खुश ही हैं।
इनके लिखने की शैली अद्भुत है। नये प्रेम में दोनों को पड़ने के बाद की स्थिति का विवरण बहुत ही बारीक साहित्य की चाशनी में डुबोकर लिखा गया है। शुरुआती साठ पेज पुस्तक को ऊँचाई पर ले जाती है फिर कहानी फ्लैट हो जाती है। अंत से पहले फिर कथा गति पकड़ती है। कथ्य की दृष्टि से कथा सामने है ही। शिल्प की दृष्टि से भी अच्छी पुस्तक है। नयी वाली हिन्दी से ऊपर। हालाँकि पढ़ने से पता चलता है कि पुस्तक कुछ साल पहले ही लिखी गयी थी प्रकाशन अभी हुआ है। कुछ स्थिति, घटना और फिल्मी गाने इन बातों को स्थापित कर देते हैं। नायक का द्वन्द का चित्रण भी ठीक ठाक है। 176 पेज की पुस्तक है जिसे कुछ कम भी किया जा सकता था। कुछ चरित्र की आवश्यकता नहीं थी फिर भी कथा लम्बी करने हेतु रखी गयी है ऐसा लगता है। खासकर नायक का दोस्त जो बनारस में नेतागिरी करता है। स्थानीय बनारसी नेता का चरित्र बताने के लिए ठीक था लेकिन पाठक अंत तक सोचता है कि नायक का मित्र है अंत तक कुछ मार पीट कर नायक को सहयोग करेगा क्योंकि नायिका का नेता भाई इससे चुनाव हारा है। अंत तक उसकी कोई उपयोगिता सामने नहीं आती।
कुल मिलाकर यह एक ऐसी प्रेम कहानी है जिसमें नायक नायिका अपने जीवन में अलग अलग इंडियापा के कारण अलग अलग आगे बढ़ते हैं।
कुछ पंक्तियाँ अच्छी बन पड़ी है।
“मैंने गेट इतने धीरे से खोला कि गेट की भी नींद ना टूटने पाए।”
“माँ कसम, मन किया कि अपना ही गला दबा दूँ।”
“माँ ने उस दिन नजर उतारी थी। माँओं के अन्दर निरूपा राय की आत्मा कब आ जाये, कोई नहीं जानता।”
“शायद एक बार जो बनारस का हो जाता है वह दुनियाँ के और किसी भी जगह का नहीं हो सकता।”
“शादियाँ अरेंज्ड हो या लव, कुछ सालों बाद एक ही जगह, वही डायपर, बच्चे, रिश्तेदार, मीठी नोंक झोंक पर मिलती है। इन्हीं किरदारों को निभाते हुए किसी दिन इस रंगमंच से उतरने की बारी आ जाती है।”
नायक नायिका को मिलाने वाले पाठक अपनी राय भिन्न रख सकते हैं लेकिन लेखक यह बताने में सफल होता है कि इंडियापा के कारण अनेक लोग अलग हुए जो एक दूसरे को नहीं भूलते हुए अपना जीवन खुशहाली से जी रहे हैं। अगर आप भी इंडियापा के शिकार हैं तो जहाँ हैं ख़ुशहाल जीवन जीयें।
पुनः विनोद दूबेजी को बधाई और भविष्य की शुभकामनाएँ। इनके अद्भुत शिल्प को अवश्य पढ़ें।