“आग के अक्षर” क्षणिका- संग्रह लेखिका श्रीमती हरकीरत हीरजी की कालजयी पुस्तक है। इस पुस्तक का पुस्तकालय संस्करण हार्ड कवर में अयन प्रकाशन ने मूल्य रुपये 400 रखकर बहुत ही आकर्षक कवर में प्रकाशित किया है।
इस पुस्तक हेतु हीरजी को मैं बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।
पुस्तक में 200 क्षणिकाएँ हैं। जैसे 200 अलग अलग फूल एक माला में गूँथी हुईं हों। अलग अलग खुश्बूओं से सराबोर।
नारी मन की अनेक वेदनाएँ, रोष, घुटन और अपेक्षाओं के अनुत्तरित प्रश्न। रचनाकार का द्वन्द। आपको झकझोर देंगीं। एक एक क्षणिका एक अदृश्य गोली की तरह है जो सीधे दिल और मन पर प्रहार करती है। सोचने को मजबूर करती है। हरकीरत हीरजी को आज की अमृता प्रीतम कहूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
श्री मंजर भोपालीजी का शेर
“कह दो मीरो ग़ालिब से शेर हम भी कहते हैं ,
वो सदी तुम्हारी थी ये सदी हमारी है” हरकीरतजी पर फिट बैठती हैं। ये दशक इनका ही है। इनकी रचनाओं में एक तीक्ष्णता है। सीधा लक्ष्य को भेदने वाला कथ्य और बेहतरीन शिल्प। बहुत दिनों के बाद एक ऐसी पुस्तक जिसे गर्व से कहूँ कि ये पुस्तक मैंने पढ़ी है, मेरे पास है। कम शब्दों में गंभीर से गंभीर बातें। ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर सोचने को आप विवश हो जायें। 200 क्षणिकाओं में यहाँ मैं कितनों का जिक्र करूँ? किसे कम आँकूँ?
क्षणिका की विधा में एक रचनाकार का दर्द, नारी विमर्श का उम्दा उदाहरण।
आइये अब पुस्तक के भीतर प्रवेश करें।
पहली ही गेंद/ रचना ‘नृत्य’ शीर्षक में उन्होंने सिक्सर यह कहते हुए मारा कि
“याद है मुझे
तुमने पहले ही दिन कहा था
नाचना नहीं आता तो
चली जाओ यहाँ से
मैंने उसी दिन
खामोशी के पैरों में
बाँध दिए थे घूँघरू
और सिखा दिया था उसे
सबके इशारों पर
नाचना…..”
‘कत्ल’ क्षणिका में कहती हैं कि
“हाँ!
मैंने कर दिया है कत्ल
अपनी मोहब्बत का
यकीं न हो तो अपने चेहरे से
कफन उतार कर देख लेना…”
‘ एक नई शुरुआत’ में कहती हैं कि
“सुना है
पतझड़ आ रहा है
ऐ खुदा…
इस देह से भी उतार देना
कुछ सूखे पत्ते…”
कुछ अन्य क्षणिकाओं को और देखें।
” घर की कुछ खाली जगहों पर
रख दिए हैं मैंने कुछ पत्थर
अक्सर…
हर चोट सिखा जाती है मुझे
गिरकर संभलना…”
“उसने कहा
चुप रहो तुम
मैंने सी लिए अपने होंठ
अब तुम ही कहो
इन सुलगते अक्षरों को
कागज पर ना रखूँ
तो कहाँ रखूँ?”
” बेशक
मत देना आवाज
न ही थामना मेरा हाथ
पलट कर देख तो सही
तेरी राहों में ही जले हैं पैर मेरे….”
” कुछ तो है
तेरे अक्षरों में ए नज़्म
यूँ ही नहीं लोगों के दिलों से
आह उठती…”
” ये रात
कौन छू गया नज़्मों को
कि सुबह पन्ने नम मिले…”
‘कत्ल’ क्षणिका में कहती हैं कि
कुछ शब्द जो
अब नहीं दिखते इन नज्मों में ही
कभी देखना गौर से
उनका रक्त..
कहीं ना कहीं लगा होगा
तुम्हारे ही हाथों में…”
” जब से छुआ है
तेरी मजार को
एक शब्द देह पर उग आया है
बता उस शब्द को कैसे दफन करूँ?”
‘ मृत अक्षर’ क्षणिका में कहती हैं कि
“रात भर नज़्म खोदती रही
अपनी ही कब्र
वह दफना देना चाहती थी
खामोशी में डूब कर
खुदकुशी कर चुके देह के
कुछ
मृत अक्षरों की लाशें…”
पढ़कर आप हिल जायेंगे कि
“आज की रात
तुम अक्षर हो जाना
मैं सफहा हो जाऊँगी
जी चाहता है फिर जन्म दूँ
एक नज़्म को…”
इनकी एक सलाह देखिए कि
“काट देनी पड़ती हैं कुछ जड़ें
जो दरारों को
और ज्यादा फैलाने लगें…”
“बड़ी अजीब किस्म की होती है
नज़्म की देह
उसमें मोहब्बत भी है
दर्द भी…
और आग भी…
अब ये तुम्हारे ऊपर है
कि तुमने उसे किन हाथों से छुआ है…”
” ठीक उसी जगह
अब एक नई लकीर बन गई है
कुछ दिनों पहले जहाँ से
कट गई थी हथेली
क्या पता…
ये तेरे नाम की लकीर हो…”
” रात
बहुत देर तक
चलती रही दर्द के टुकड़े
उनमें इक तेरा नाम भी था…”
“जब भी छुआ
कमबख्त बहुत देता था दर्द
तेरे इश्क का जख्म
आज धो दिया है मैंने…”
“मुहब्बत…
समझ लेती है
खुद ब खुद…
खामोशी भरे शब्दों के सारे अर्थ…”
” सबसे पवित्र जगह होती है
इक औरत की कोख
जो बिन जाति मजहब के
परवरिश करती है
इक बलात्कारी का अंश…”
“रात आसमां ने
आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की मौत ना हुई…”
“सब लिबास उधेड़ दिए
इश्क की जात ने
शराब में मदहोश
दूर सूखी घास पर
अधजले टुकड़े सी
खंडहर हुई जा रही है
इश्क की चादर…”
कुल मिलाकर एक बेहतरीन क्षणिकाओं की पुस्तक पढ़कर समाप्त किया। मैं पुनः हरकीरत हीरजी को शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ। प्रणाम करता हूँ यह कहकर कि लिखती रहें। आप सब भी इस पुस्तक को पढ़ें और आगे की पीढ़ी को बतायेँ।

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.