श्री कुलदीप राघव की लिखी “आई लव यू” पुस्तक पढ़कर समाप्त किया है। इस पुस्तक को रेडग्रैब बुक्स ने आकर्षक कवर में मूल्य रुपये 125 रखकर प्रकाशित किया है। सर्वप्रथम मैं राघवजी को इस पुस्तक हेतु बहुत बहुत शुभकामनाएँ देता हूँ। पेशे से पत्रकार हैं। अंग्रेजी चैनल के लिये काम करते हैं तो हिन्दी में लिखना थोड़ा मुश्किल रहा होगा क्योंकि दैनिक जीवनशैली में अंग्रेजी इतना प्रवेश कर गया होगा कि हिन्दी में इतना लम्बा लिखना आसान नहीं रहा होगा। कम उम्र में लिखना ही अपने आप में बड़ी बात है। मैं हमेशा कहता हूँ कि साहित्यकार अगर कोई विषय उठाये और उसका समाधान भी बता दे तो ज्यादा प्रभावशाली होगा। इसमें राघवजी ने एक विषय उठाया है। समाधान भी बताया है इसलिए यह पुस्तक ज्यादा लोगों को पसंद आयेगी। मुद्दा तगड़ा पकड़ा है। आज का ज्वलन्त विषय। समाधान तो पूछिये मत, बेहतरीन। सच कहूँ तो पुस्तक फ़िल्म बनाने के लिए ही लिखी गयी है। अब पुस्तक पर आऊँ।
पुस्तक का नाम कुछ और साहित्यिक होता तो बढ़िया होता। ट्रेन में मेरे बगल के यात्री ने पूछा कि कौन सी पुस्तक है, शीर्षक देखा तो कहा, ‘आजकल ऐसे ही छिछोरे नाम की पुस्तक बिकती है’। यानी अगर इस पुस्तक का नाम ‘क्या हुआ तेरा वादा’,
‘हुजूर आते आते बहुत देर कर दी’ या ‘दीवाना तेरे प्यार में’ टाइप होता तो इसपर बनी फ़िल्म गोल्डन जुबली होती। आज भी अपना मध्यम वर्ग इन शब्दों को आसानी से नहीं पचाता।
कहानी में नायक एक अच्छे घर का दिल्ली में नौकरी करने वाला लड़का है जिसे एक अपने ऑफिस में काम करने वाली तलाकशुदा महिला जो उम्र में उससे छः साल बड़ी है, से प्यार हो जाता है। उस महिला को उसका पूर्व पति और पूरा ससुराल बहुत तकलीफ देता था। उसे एक बेटी है। उस महिला को भी इस लड़के से प्रेम हो जाता है। अब दोनों के कॉफी पीने के लिये, मिलने के स्थान और मिलने की प्रक्रिया में बहुत पेज राघवजी ने लगाए हैं तथापि कथा की गति ठीक ठाक है। महिला जानती है कि दोनों का विवाह सम्भव नहीं है फिर भी प्रेम की शक्ति में खींची चली जाती है। लड़का माता पिता द्वारा विवाह की बात करने पर मना करते रहता है। प्रेम प्रसंग लंबा है। शबीना अदीबजी का शेर याद आएगा कि
“ख़ामोश लब हैं झुकी हैं पलकें दिलों में उल्फत नयी नयी है,
अभी तक़ल्लुफ़ है गुफ़्तगू में अभी मोहब्बत नयी नयी है।”
हालाँकि लेखक ने श्री विष्णु सक्सेनाजी की पंक्तियों का भी नाम देकर उल्लेख किया है।
“जब भी कहते हो आप हमसे कि अब चलते हैं,
हमारी आँख से आँसू नहीं संभलते हैं,
अब ना कहना कि संगे दिल नहीं रोते,
जितने दरिया हैं पहाड़ों से ही निकलते हैं।”
लड़का महिला की बेटी से भी परिचित है। कोई मनमुटाव नहीं है।
फिर एक दिन महिला को लेकर अपने माता पिता से मिलाने अपने घर ले जाता है। पहले से एक बेटी है जानकर सभी मना कर देते हैं। दोनों वापस आकर अलग होने की कोशिश करते हैं। माता पिता नयी लड़की पसन्द कर घर बुलाकर लड़के को दिखाते हैं। लड़का नहीं चाहते हुए भी माँ बाप की खुशी की खातिर दूसरी लड़की से विवाह को राजी होता है। दिल्ली लौटकर लड़के का सामान्य सा एक्सीडेंट हो जाता है। अब लड़के की माँ पावर में आ जाती है। इस नयी लड़की से सगाई होने वाली है। और…..।
अंत बताकर मैं पुस्तक का सस्पेंस समाप्त नहीं करूँगा। इसके लिए आपको पढ़ना पड़ेगा।
कथा ‘कुछ कुछ होता है’ फ़िल्म की तरह बढ़ते हुए अचानक ‘बॉडीगार्ड’ जैसी लगती है लेकिन आधे से मुड़ जाती है और फिर ‘दिल वाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे’ में प्रवेश करती है। कुल मिला जुलाकर पुस्तक की कहानी ही है जो पुस्तक को खींचेगी। एक तो लेखक ने तलाक़शुदा का पुनर्विवाह पर परिचर्चा करवा दी। दूसरी की सामाजिक मान्यताओं पर भावनात्मक बातें आज भी भारी हैं ये भी बताने में लेखक सफल होते हैं। तीसरी, समाधान भी बताया। कहानी की दृष्टि से हिट है भाई।
शिल्प की दृष्टि से कुछ खास नहीं है। साहित्य ना ढूँढे तो बेहतर है। कहानी पढ़िए। लेखक क्या कहना चाह रहा है समझिए, बात खत्म। अभी की पढ़ी पुस्तक में भगवंत अनमोलजी और प्रांजल सक्सेनाजी दोनों ने साहित्य की दृष्टि से बेहतर लिखा है लेकिन कहानी में इन्होंने दोनों को पछाड़ दिया। इस पुस्तक में भी अनेक अच्छी लाइनें मिलीं।
“नदी भी न इंसान की तरह होती है, जहाँ से पैदा होती है, वहाँ बच्चे की तरह उथल पुथल करती है, शरारत करती है और जैसे जैसे बढ़ती जाती है तो इंसान की तरह शांत और गंभीर होती जाती है।”
“खुशनसीब होते हैं जिन्हें प्यार में रोना नसीब होता है।”
“प्यार में जी रहे इंसान के लिए दिन में चौबीस नहीं अड़तालीस घंटे होते हैं।”
कहानी ही तो लेखक को कालिया, दीवार और शोले जैसी प्रतिष्ठा दिलाती है।
एक बात और कि राघवजी ने उत्तर भारतीयों की मानसिकता को काफी सूक्ष्मता से पकड़ा है। यह लेखक लंबी रेस का घोड़ा है। अगली पुस्तक साहित्य और कथानक दोनों में इससे भी बेहतर होगी ये मेरा अनुमान है। समाज के सामने एक कड़वी सच्चाई लाकर एक बड़ा समाधान बताया है। लेखक की सफलता यही है।
मैं पुनः कुलदीप राघवजी को इस पुस्तक हेतु बधाई और धन्यवाद देता हूँ। अपेक्षा करता हूँ कि इस पुस्तक पर जब भी फ़िल्म बने उसके प्रीमियर में भी मुझे फ्री पास देकर बुलायें। पुस्तक मैंने अगर पहले पढ़ी होती तो 1 दिसम्बर वाले प्रोग्राम में गुवाहाटी से दिल्ली मिलने अवश्य आता। कोई बात नहीं। जल्द ही दिल्ली आकर मिलूँगा। राघवजी के अंदर बहुत अच्छी अच्छी कहानी है इसका संकेत इस पुस्तक में उन्होंने दिया है। भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ।
जिन लोगों ने इतना लंबा पढ़ा, उनका भी आभार। जिन लोगों ने इस पुस्तक को बिना पढ़े वाह वाह किया है उनसे एक प्रश्न कि नायिका स्नेहा को खाने में क्या पसंद है? बताने वाले को क्या मिलेगा राघवजी से पूछ लें।

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.