श्रीमती सोनी पांडेयजी की लिखी ‘बलमा जी का स्टूडियो’ पढ़कर समाप्त किया है। इसे रश्मि प्रकाशन ने सुन्दर साहित्यिक आवरण में मूल्य 135 रुपये रखकर प्रकाशित किया है।
सर्वप्रथम मैं लेखिका को उनकी इस पहली कहानी संग्रह हेतु बहुत बहुत बधाई, शुभकामनाएँ देता हूँ। इन्होंने पुस्तक को अपने दिवंगत सास, ससुर के साथ अपने माता और पिता को समर्पित किया है इसके लिए भी मैं इनकी सराहना करता हूँ।
इस बीच अनेक तीन नम्बरी पुस्तक पढ़ने को मिली थी इसलिए इसका स्वाद कुछ ज्यादा भाया।
पुस्तक में दस कहानियाँ हैं। सभी कहानियों में ग्राम्य जीवन, निम्न, मध्यम वर्ग के लोगों का जीवन वृत्त, रस्म रिवाज और धर्म के नाम पर अतार्किक प्रथाओं की चर्चा है। पुस्तक में पूर्वी उत्तर प्रदेश की स्थानीय भाषा में सराबोर कहानियाँ आपको खेत, भूसाघर, गाय, मिट्टी का घर और शुद्ध ग्रामीण जीवनशैली में जिलायेगी। आज के शहर के बच्चे शायद कुछ शब्द समझ नहीं पाएँगे लेकिन जिन्होंने गाँव में अपना बचपन बिताया है उन्हें पुस्तक बहुत अच्छी लगेगी। सोनीजी के शिल्प में ग्रामीण देशी घी, मसाला ज्यादा है। सोनीजी की कहानियों में गाँव की गरीबी, झट लाँछन लगाने की बोलचाल की भाषा, ग्रामीण प्रेम दर्शाने के तरीके, विधवा जीवन की त्रासदी, उनके अंध विश्वास, गाँव के गीत एवं रीति रिवाजों का सुन्दर वर्णन है। अब कहानियों पर आता हूँ।
पहली कहानी जो पुस्तक का नाम भी है ‘बलमा जी का स्टूडियो’ है। इसमें गाँव के छोटे से बाजार और ग्रामीण के जीवन का वर्णन है। कैसे मोबाइल ने एक गाँव के छोटे फोटोग्राफर को मिठाईवाला बना दिया। समय के हिसाब से गाँव के बदलने का चित्रण है। रचना पाठक को मुस्कुराते हुए आगे ले जाती है। एक प्रसंग है जिसमें एक लड़की को विवाह पूर्व होने वाली सास देखने आती है। लेखिका लिखती हैं कि लड़के की माँ नंगाझोरी करने लगी। पल्लू हटाकर पीठ और साड़ी उठाकर पैर देखी, मुँह में ऊँगली डालकर दाँत गिने। इनके लिखने का लहजा आपको वहाँ बिठा देगा और लगेगा कि आपके सामने ये सब घटित हो रहा है। अच्छी रचना है।
पुस्तक का नाम पुस्तक के कद को कम कर देता है क्योंकि पुस्तक की अन्य कहानियाँ पुस्तक को बहुत ऊँचाई पर ले जाती है जबकि ये नाम उस कद को कम कर देता है। कोई अन्य गाँव से जुड़ा साहित्यिक नाम होता तो बेहतर होता।
दूसरी कहानी ‘टूटती वर्जनाएँ’ में पुरानी रस्म के नाम पर अंध विश्वास पर चोट किया गया है। गाँव में अनिष्ट से बचने के लिए विवाह के बाद की एक रस्म है कि नव पति पत्नी नंगे बदन एक कमरे में अकेले एक पूजा करे जिसको लेकर नायिका असहज हो जाती है। इस प्रकार की अनेक प्रथा पहले से चली आ रही है जिसपर लेखिका ने करारा वार किया है। लिखने की शैली पाठक को बाँधे रखती है।
‘स्वर्ग नरक’ एक पारिवारिक कहानी है। एक बुजुर्ग की जब अवहेलना होती है तो वो क्या अनुभव करता है। कहानी आपके आसपास की लगेगी।
‘अंजुमन खाला को गुस्सा क्यों नहीं आता’ कहानी में लेखिका ने हिन्दू मुस्लिम परिवार के बीच की बॉन्डिंग की सुन्दर तरीके से चर्चा की है। धर्म अलग है लेकिन आपसी भाईचारा बहुत है। दोनों समुदायों की लड़कियों के बीच का प्रेम अंत तक कैसे एक दूसरे को करीब रखता है यह लेखिका ने अच्छे से समझाया है। मुस्लिम परिवार में अनेक बच्चों के कारण होने वाली परेशानी, बेमेल विवाह, कम उम्र में विवाह के दुष्परिणाम और विवशता में किये गये विवाह का बुरा परिणाम स्थापित करने में लेखिका सफल है।
‘बुद्धि शुद्धि महायज्ञ’ में एक पात्र अनजाने में सूअर का माँस खा लेता है। अनेक प्रकार से पाप दूर करने का उपाय करता है। एक पण्डितजी एक विशेष कार्य कर पाप छुड़ा देता है। क्या करता है मैं नहीं बताऊँगा। पढ़िये और जानिए। सस्पेंस मैं क्यों समाप्त करूँ? पाठक अंत का इंतजार करते बँधा रहता है। सुन्दर रचना है। अनेक पाखंड पर प्रहार भी है।
अगली कहानी ‘जाजिम’ में एक विधवा के त्याग, अपमान सहकर भी संयुक्त परिवार में संघर्षरत जीने की कहानी है। जीवन के उत्तरार्ध में किसी को उसकी परवाह नहीं रहती है। चित्रण शानदार है।
“कील” एक अनकही प्रेम कथा है। मन ही मन प्रेम करने वाले नायक की कहानी जो अंत तक प्रेमिका को चाहता है और प्रेमिका के रूढ़िवादी परिवार की कील इतनी गहरी है कि वो बाहर की दुनियाँ सोच नहीं सकती। दिल को छू लेने वाली कहानी है।
“सूरमा भोपाली” में गाँव से मेला देखने जब सब मिलकर जाते हैं तो क्या सब होता है, का वर्णन है। मेला में बिकने वाले वस्तुओं का हास्यपूर्ण वर्णन है लेकिन अंत आपको हिला देगा। कहानी आपको ‘चिमटा’ कहानी की याद दिला देगी। एक छोटी बच्ची अपने लिए अनेक वस्तु खरीदती है। पैसे कम पड़ने पर अपनी गुड़िया जबरन वापस कर, मार खाकर भी बूढ़ी दादी की आँखों के लिए सूरमा इस विश्वास से लाती है कि अब उसे साफ दिखायी देगी। घर में इतने बुजुर्ग के लिए कौन सोचता है? मार्मिक कहानी है।
‘एही ठैयां मुनरी हेरानी हो रामा’ कहानी में एक ननद की अँगूठी मायके में खोती है। पूरा परिवार मुहल्ला खोजता है। नाले में घुसकर अनेक लोग ढूँढते हैं लेकिन नहीं मिलता है। अंत में जिसके आयोजन में आयी है वो भाभी अपनी सोने की अँगूठी भाई के कहने पर बदले में दे देती है। ननद मन ही मन खुश होती है कि हमने नकली अँगूठी भुलाकर असली सोने की अँगूठी ठग ली। लिखने का तरीका बहुत ही सुन्दर है। पढ़ने में मन भी लगता है। आपको सिनीवाली शर्माजी की लिखी कहानी सिकड़ी की याद ताजा हो जायेगी। यहाँ मेरा विचार अलग है। ननद और भौजाई में नहीं बनती है ये सार्वजनिक सिद्ध बात हो सकती है। भाई आजीवन बहन को मायके से खुशी खुशी विदा करेगा ये भी प्रमाणित सत्य है लेकिन क्या बहन मायके से ठग कर जायेगी? मायके से इस तरह का व्यवहार विरले ही बहन कर सकती है। मायके के नाम पर तो महिलाएँ गाछ पतार से लड़ ले। लेखिका से निजी अनुरोध कि ननद का इमेज ऐसा न बनाइये कि भाभी बुलाना छोड़ दे।
अंतिम कहानी ‘मोरी साड़ी अनाड़ी ना माने राजा’ है। ये कहानी पहले की सभी कहानियों से अलग कहानी है। सामाजिक बेड़ियों को, परंपराओं को तोड़कर एक विधवा अपनी बच्ची के साथ एक बुजुर्ग अकेले रहने वाले व्यक्ति के यहाँ सेवा कर अनेक लाँछन सह रहती है। बाद में बुजुर्ग को उनके बच्चे मरणासन्न स्थिति आने पर अपने पास ले जाते हैं। अब यह महिला विवशता में अपनी बच्ची के साथ अपनी पत्नी से दूर रहने वाले एक दूसरे परिचित व्यक्ति के अनुरोध पर साथ जीवन बिताने का निर्णय लेती है। वो व्यक्ति अपनी सारी संपत्ति अपने पहली पत्नी से प्राप्त पुत्र को लिख पहले परिवार से मुक्ति पाता है। अब इन दोनों की गाड़ी हिचकोले खाते बढ़ने लगती है। यह कहानी एक विधवा को समाज से लड़कर अपना नया जीवन पुनः शुरू करने की हिम्मत देती है। एक साफ मेसेज, एक दिशा दिखाती है।
कुल मिलाकर लेखिका का कथ्य और ग्रामीण शिल्प पुस्तक को सोंधी खुश्बू से सराबोर रखने में सफल है। मैं इन्हें भविष्य की शुभकामनाएँ देता हूँ। कहीं कहीं ग्रामीण शब्द और वातावरण कुछ ज्यादा भी है तथापि रचनाएँ सुन्दर हैं। व्याकरणीय त्रुटि भी है। कुछेक पुल्लिंग स्त्रीलिंग की गलतियाँ भी हैं लेकिन पढ़ने के आनन्द ने उसे किनारा कर दिया है।
मुझे ग्रामीण वातावरण की रचनाओं में इन लेखिकाओं से काफी उम्मीदें हैं।
गाँव से जुड़े लोगों को यह पुस्तक एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए। पैसा वसूल पुस्तक है।