“दर्जन भर प्रश्न” में आज व्यंग्यकार श्री प्रदीप उपाध्याय

व्यक्ति परिचय:-

नाम– डॉ प्रदीप उपाध्याय.

जन्म तिथि स्थान– 21 जनवरी, 1957. झाबुआ (जनजाति बहुल क्षेत्र)

शिक्षा

विधि स्नातक, स्नातकोत्तर (राजनीति विज्ञान, समाज शास्त्र, इतिहास), भारत-अमेरिका सम्बन्ध (1965 से 1975) पर लघु शोध.

पीएचडी (भारतीय राजनीति एवं राजनीतिक दल- 1969 से 1990 तक)

प्राथमिक/ माध्यमिक/ आगेस्थान

प्राथमिक शिक्षा- देवास में सुतार बाखल स्थित शासकीय प्राथमिक विद्यालय में.

माध्यमिक शिक्षा- तहसील सोनकच्छ, जिला देवास के शासकीय माध्यमिक विद्यालय में और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा शासकीय नारायण विद्या मंदिर क्र.-2, देवास में.

इसके उपरांत देवास में ही श्री कृष्णा जी राव पंवार शासकीय महाविद्यालय से स्नातक, विधि स्नातक एवं स्नातकोत्तर तक शिक्षा ग्रहण की.

पीएचडी- विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से.

पारिवारिक  जानकारी

पत्नी– श्रीमती विजया उपाध्याय स्नातक हैं. गृहिणी हैं.

बच्चे बड़ी पुत्री डॉ हर्षिता मिश्र दंत चिकित्सक है.

पुत्र- डॉ. रितेश उपाध्याय चिकित्सक है. शासकीय चिकित्सा महाविद्यालय, छिंदवाड़ा में सहायक प्राध्यापक हैं.

अभिरुचि/क्षेत्र– लेखन, ज्योतिष, एक्यूप्रेशर, फोटोग्राफी, बागवानी.

कार्यक्षेत्रभूत/वर्त्तमान

शासकीय सेवा-राज्य वित्त सेवा में उच्च पद पर पदस्थ रहते स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति. शासकीय सेवा में आने के पूर्व छः वर्ष वकालत की. इसके उपरांत लोकसेवा आयोग से नायब तहसीलदार के पद पर चयन होने के बाद तीन वर्ष इस पद पर सेवाएं दी तदुपरांत राज्य वित्त सेवा में उनतीस वर्ष तक विभिन्न पदों पर उज्जैन, शाजापुर, इंदौर और भोपाल में सेवारत रहे. वर्तमान में वकालत व्यवसाय के रूप में न होकर निःशुल्क विधिक परामर्श तक सीमित. पूर्ण रूप से लेखन कार्य को समर्पित.

विशेष अनुभव – ज्योतिष में लम्बे समय तक शौकिया रूप से जन्म कुंडली और हस्तरेखा द्वारा निःशुल्क परामर्श .

विशेष कार्य वर्तमान/ भविष्य की रूपरेखा– शासकीय सेवा में रहते लेखन के क्षेत्र में जो रूकावट आई  अब उसे पूरा करने का लक्ष्य. सेवाकाल के दौरान केवल एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित हो पाया. दिसम्बर, 2016 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद पाँच व्यंग्य संकलन और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं.

इस वर्ष एक व्यंग्य संकलन और एक लघुकथा संकलन के प्रकाशन की योजना है. दो उपन्यास पर काम चल रहा है लेकिन गति अभी बहुत धीमी है. इनमें एक व्यंग्य उपन्यास भी है.

लेखकीय कर्म

वर्ष 1974 में  पहला पत्र, पत्र सम्पादक के नाम लिखा और उसके बाद सतत रूप से यह सिलसिला चल निकला. लगभग चार सौ से अधिक पत्र लिखे हैं समस्यामूलक से अधिक वैचारिक. इसीलिए इसपर भी पुस्तक प्रकाशन की योजना है. साथ में विभिन्न स्तम्भों में आलेख के साथ कभी-कभी कविताएँ और कहानियाँ भी लिखीं लेकिन अधिक नहीं, मूल रूप से पत्र, आलेख और व्यंग्य ही लिखे. वर्तमान में व्यंग्य के साथ कहानी और लघुकथाएँ निरन्तर रूप से लिखी जा रही है.

पुरस्कार

वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में  व्यंग्य संकलन ‘मौसमी भावनाएँ’ के लिए पवैया सम्मान से सम्मानित, वर्ष 2018-19 में व्यंग्य संकलन ‘सठियाने की दहलीज पर’ के लिए ‘अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति राष्ट्रीय प्रतिष्ठा पुरस्कार’ तथा संस्मरण लेखन हेतु रचनाकार आर्ग द्वारा पुरस्कृत. ‘श्यामसिंह त्यागी स्मृति हिंदी सेवा सम्मान-2019, सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा.

संपर्क/ पता/ फोन नम्बर

16, अम्बिका भवन, उपाध्याय नगर, मेंढकी रोड, देवास, म. प्र., पिन- 455001. मोबाईल- 9425030009. इमेल- [email protected]

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दर्जन भर प्रश्न

श्री प्रदीप उपाध्याय से विभूति बी. झा के ‘दर्जन भर प्रश्न’ और श्री उपाध्याय के उत्तर-

विभूति बी झा– नमस्कार. सर्वप्रथम आपको आपकी हाल की पुस्तकों ‘रिश्तों की कड़वाहट’ और ‘सठियाने की दहलीज पर’ के लिए बधाई, शुभकामनाएँ.

  1. पहला प्रश्न:- आपकी दोनों पुस्तक बहुत चर्चित रही. ‘रिश्तों की कड़वाहटकहानी संग्रह है जबकिसठियाने की दहलीज परव्यंग्य संग्रह. दोनों पुस्तकों की पृष्ठभूमि बिल्कुल अलग हैं. पढ़ने से नहीं लगता कि एक ही रचनाकार की दोनों पुस्तकें हों. इनपर पाठकों की इतनी अच्छी प्रतिक्रियाओं पर आपकी टिप्पणी?

श्री उपाध्याय के उत्तर-जी नमस्कार और आपको बहुत बहुत धन्यवाद. यह सही है कि कहानी संग्रह ‘रिश्तों की कड़वाहट’और व्यंग्य संग्रह ‘सठियाने की दहलीज पर’ की पृष्ठभूमि अलग-अलग हैं . जैसा कि आपने कहा है कि ऐसा लगता ही नहीं है कि दोनों पुस्तकें एक ही रचनाकार की हों. इसका एक कारण तो यह भी है कि दोनों पुस्तकें अलग-अलग विधा पर हैं. एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि व्यंग्य समग्र समाज को दृष्टि में रखकर समाज में व्याप्त विसंगतियों और विद्रूपताओं के विरुद्ध एक आक्रोश के रूप में उभरता है जबकि कथा समाज की स्थापित मान्यताओं और संस्थाओं के विघटन पर एक विचार की अभिव्यक्ति है कुछ घटनाओं को लेकर. वैसे मैं मूल रूप से व्यंग्य ही लिखता रहा हूँ और अभी तक मेरे छः व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं जबकि कहानी विधा का यह पहला संग्रह है लेकिन फिर भी मैं कभी यह दावा नहीं करता कि मैं व्यंग्यकार हूँ या कहानीकार हूँ. मैं एक लेखक हूँ और अपनी अभिव्यक्ति को हर उस व्यक्ति तक पहुँचाना चाहता हूँ जिसे पढ़कर लगे कि हाँ, उसकी सोच भी ठीक इसी तरह से है या जो वह पढ़ रहा है उसमें  उसके मन की बात कही गई है और संभवतः मेरी रचनाओं और पुस्तकों को पाठकों का इतना प्रतिसाद मिलना मेरी बात की पुष्टि करता है. मेरे एक व्यंग्य संग्रह ‘मैं ऐसा क्यूँ हूँ’ का छः माह में ही दूसरा संस्करण आना इस बात का प्रमाण भी मान सकते हैं.

2. प्रश्न:- आपके साहित्य के पसंदीदा रचनाकार कौनकौन हैं? आपका नाम किन साहित्यकारों के साथ लिया जाये? आपकी क्या इच्छा है?

उत्तर– मेरे साहित्य के सबसे पसंदीदा रचनाकार तो शरतचंद्र हैं. उनके सभी उपन्यास मेरी अपनी लायब्रेरी में है. मानव स्वभाव पर उनसे बेहतर शायद ही किसी ने लिखा हो,ऐसा मेरा मानना है. इनके अलावा तो बहुतेरे पसंदीदा नाम हैं, प्रेमचंद, फनीश्वरनाथ रेणु, मणिमधुकर तो दूसरी ओर व्यंग्य विधा में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल और हाँ, दुष्यंत कुमार का नाम तो भूल ही नहीं सकते. जहाँ तक किसी साहित्यकार के साथ नाम लिए जाने की बात है तो यह काल्पनिक बात होगी क्योंकि जो आज लिखा जा रहा है उसका मूल्यांकन आने वाले समय में होगा. अतः मैं तो यही चाहूंगा कि मेरा नाम किसी के साथ नहीं बल्कि मेरी अपनी अलग पहचान के रूप में ही हो.

3. प्रश्न:- आपके व्यंग्य पूरे भारत के समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रहे हैं. श्रीलाल शुक्ल के बाद व्यंग्यकार की कमी खल रही थी. आप उभर कर सामने आये. गिने चुने को छोड़ ज्यादा प्रभावशाली व्यंग्यकार नहीं रहे. क्या लगता है व्यंग्य के रचनाकार कम हैं या पाठक कम हुए हैं?

उत्तर– जी यह सही है कि देश के छोटे-बड़े अधिकांश समाचार पत्रों में मेरे व्यंग्य प्रकाशित हो रहे हैं और उन्हें पाठक पढ़ भी रहे हैं,पसंद भी कर रहे हैं. निश्चित ही परसाईजी, शरदजी और श्रीलाल शुक्लजी व्यंग्य के पुरोधा रहे हैं लेकिन यदि वर्तमान परिदृश्य पर भी दृष्टि डालें तो दो पीढ़ियाँ बेहतरीन व्यंग्य लिख रही हैं और इनका अपना पाठक वर्ग भी है. यानी निराशाजनक स्थिति नहीं है. हमें इस बात पर भी गौर करना होगा कि हरेक रचनाकार की हरेक रचना श्रेष्ठ नहीं होती है. कुछ रचनाएँ ही उन्हें स्थापित कर देती है. वैसे आपको यह भी बता दूं कि व्यंग्य साहित्य बहुत लिखा जा रहा है. अच्छा-बुरा सभी लेकिन मेरे मत में सभी का स्वागत किया जाना चाहिए. अच्छा साहित्य टिका रहेगा और बुरा साहित्य दरकिनार हो जाएगा. व्यंग्य के रचनाकार और पाठक दोनों ही कम नहीं हुए हैं. हाँ, कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने व्यंग्य के लिए स्थान जरूर सीमित कर दिया है.

4. प्रश्न:- पुराने रचनाकारों की कृति और आजकल के नये रचनाकारों कीनयी वाली हिन्दीमें लिखी कृति को देखकर आपको हिन्दी साहित्य का भविष्य क्या लगता है?

उत्तर-समय के साथ परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. केवल हिन्दी भाषा के साथ ही ऐसा नहीं है. अन्य भाषाएँ भी प्रभावित हुई हैं. प्रभाव के अनेक कारक हैं. जो कल था वैसा पूरी तरह आज नहीं है और जो कल होगा वह निश्चित ही परिवर्तित स्वरूप में होगा. वैसे भी केवल भाषागत आधार पर पूरी तरह से किसी कृति को नहीं तौला जा सकता और यह भी कि आज का पाठक उन कृतियों को कैसे ग्रहण करता है, यह भी देखा जाना चाहिए. जहाँ तक हिन्दी साहित्य के भविष्य का सवाल है, मुझे तो यही लगता है कि भविष्य उज्जवल है. काफी लिखा और पढ़ा जा रहा है. हाँ, पाठक की अपनी पसंद है. साहित्य के नाम पर बहुत कुछ प्रकाशित हो रहा है तो वह नकारा भी जा रहा है.

5. प्रश्न:- नये रचनाकारों, ग्रामीण, छोटे स्थानों के रचनाकारों को जो अच्छा लिखते परन्तु संसाधन नहीं होने के कारण प्रकाशक गंभीरता से नहीं लेते, उनको आप क्या सलाह देंगे?

उत्तर:– संघर्ष तो सभी क्षेत्रों में है. अपने को स्थापित करने के लिए धैर्य रखना जरूरी है. लेखन के क्षेत्र में कदम रखते ही जरूरी नहीं कि पुस्तकें भी प्रकाशित हो जाएं. अतः नये रचनाकारों, ग्रामीण और छोटे स्थानों के रचनाकारों के लिए मेरा यही मशविरा है कि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं के प्रकाशन के साथ आगे बढ़ते रहें, अच्छा साहित्य पढ़े. पाठकों की प्रतिक्रियाओं को गंभीरता से लें. समूहबाजी या कहें गुटबाजी से दूर रहें. प्रभावी लेखन को प्रकाशक भी अधिक समय तक उपेक्षित नहीं कर सकेंगे.

6. प्रश्न:- अभी जो पुस्तक बाज़ार में आने से पहले बेस्ट सेलर होती है, बाद में पाठक उसे नकार देते हैं. बेस्ट सेलर पुस्तक और उत्तम कृति दोनों को आप क्या मानते हैं? पुस्तक बाज़ार के अनुसार लिखी जा रही?

उत्तर– अभी बाजारवाद का युग है. साहित्यकार का प्रयास यह होना चाहिए कि वह उत्तम कृति दे और सौभाग्य से वह बेस्ट सेलर होती है तो ठीक. हाँ, यदि बाजार की मानसिकता और व्यावसायिक दृष्टिकोण से कुछ रचा-बसा गया है तो वह कृति लायब्रेरी की धूल खाती मिलेंगी. पाठकों से आत्मीय संवाद स्थापित नहीं कर पाएंगी.

7. प्रश्न:-  आपकी दृष्टि में लेखन में अश्लील गालियों का हूबहू प्रयोग और यौन सम्बन्धों की चर्चा की क्या सीमा होनी चाहिए? साहित्यकार अभी हिंसा और यौन संबंधों वाली रचनाओं की ओर उमड़ पड़े हैं? क्या इसे आपकी नजर में ये सफलता की सीढ़ी है?

उत्तर:-मेरा अपना मत तो यही है कि लेखन में अश्लील गालियों का हुबहू प्रयोग और यौन सम्बन्धों की चर्चा सीधे तौर पर नहीं होना चाहिए. प्रतीकों के माध्यम से भी जहाँ सृजन की अनिवार्यता परिलक्षित हो, किया जा सकता है. मनुष्य की स्वाभाविक मनोवृत्ति है कि अश्लील प्रसंगों और यौनाचार की ओर शीघ्र ही प्रवृत्त हो जाता है. फिल्मकार की तरह ही कई साहित्यकार भी हिंसा और यौन सम्बन्धों वाली रचना के माध्यम से कुत्सित विचारों को फैलाकर पाठकों को आकर्षित करना चाहते हैं. ताकि सृजन के क्षेत्र में सफल हो सके लेकिन यह सफलता चिरस्थाई नहीं है.

8. प्रश्न:- साहित्य समाज का आईना कहलाता है. आपके लेखन में भी वर्त्तमान का सीधा प्रयोग हास्य व्यंग्य के रूप में होता है. साहित्य में काल्पनिक की अपेक्षा यथार्थ लेखन ज्यादा सफल होता है जबकि सिनेमा में यथार्थ से ज्यादा काल्पनिक? आज का लेखन सिनेमा से प्रभावित है? आप क्या मानते हैं?

उत्तर:- निश्चित ही साहित्य समाज का आईना है जबकि सिनेमा के बारे में ऐसा नहीं कह सकते हैं. हो सकता है कि कुछ अंशों में लेखन सिनेमा से प्रभावित हो रहा हो लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि आज का लेखन यथार्थवादी सोच पर ही आधारित है. सिनेमा  आदमी को दो-चार घंटे के लिए दुनियादारी के वास्तविक धरातल से दूर कल्पना लोक की उड़ान करवा देता है और इसके बाद वही यथार्थ की भूमि, जबकि लेखन व्यक्ति को यथार्थ से परिचित कराता है. क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए, यह लेखकीय दायित्व है.

9. प्रश्न:- आजकल हिन्दी भाषी भी हिन्दी में बात करना पसंद नहीं करते. मोबाईल युग आने से हिन्दी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है? क्या आप मानते हैं कि हिन्दी भाषा का अस्तित्व संकट में है?

उत्तर:-यह पूर्ण सत्य नहीं है. मोबाइल युग ने हिन्दी के पक्ष में माहौल भी बनाया है. सोशल मीडिया ने आम आदमी को भी जोड़ा है. जो लोग लिख-पढ़ नहीं पाते थे वे भी मोबाइल के उपयोग के लिए हिन्दी सीखने लगे हैं. इसके अलावा हिन्दी साहित्य भी सोशल मीडिया पर सुलभ हो गया है. पहले जहाँ घरों में एक ही समाचार पत्र-पत्रिका पढ़ी जाती थी, मोबाइल के युग ने इन्हें सुलभ कराया है. लोग इस माध्यम से साहित्य से जुड़ने भी लगे हैं. अतः मुझे नहीं लगता कि हिन्दी भाषा का अस्तित्व संकट में है.

10. प्रश्न:- आप मानते हैं कि साहित्य में भी गुटबाजी, किसी को नीचा या ऊपर कराने का, जुगाड़ का खेल होता है? दिया जाने वाला पुरस्कार भी इन बातों से प्रभावित होता है

उत्तर:- यह सब तो पहले से ही होता आया है. राज्याश्रय पाकर उपकृत होने या सामने वाले को नीचा दिखाने का खेल होता रहा है और आज के समय में कुछ ज्यादा ही हो रहा है. यानी प्रबन्धन कौशल अधिक दिखाई दे रहा है. लेकिन सच्चे सृजनकार को निस्पृह भाव से अपने लेखन कर्म में जुटे रहना चाहिए क्योंकि साहित्य कर्म वृत्ति नहीं है. सम्मान, पुरस्कार स्थायी नहीं है, सृजन ही युगो तक जीवित रहता है.

11. प्रश्न:- साहित्य जीवन यापन का साधन नहीं रह गया है. साहित्य में अपना भविष्य तलाश रहे नयी पीढ़ी के रचनाकारों, नये रचनाकारों के बारे में आपके क्या विचार हैं? आप उन्हें क्या सलाह देंगे?

उत्तर-मेरा मानना है कि साहित्य जीवन यापन का साधन होना भी नहीं चाहिए. जीवन यापन के साधन के रूप में अन्य अनेक क्षेत्र हैं. साहित्य तो अपने आप में साध्य है, वह साधन कैसे हो सकता है. अतः नई पीढ़ी के रचनाकारों के लिए मेरी यही सलाह है कि साहित्य साधना को जीवन यापन के साधन के रूप में बिल्कुल न लें.

12. प्रश्न:- आप आज के हिन्दी रचनाकारों में पाँच ऐसे रचनाकारों के नाम बतायें जिनकी पुस्तक से आप प्रभावित हैं या आपको भविष्य में उनसे हिन्दी साहित्य में अपेक्षा है?

उत्तर-वैसे तो कई प्रतिभाशाली हिन्दी रचनाकार हैं, लम्बी फेहरिस्त है किन्तु फिर भी इस प्रश्न पर मैं मौन ही रहना चाहूँगा.

विभूति बी. झा– बहुत-बहुत धन्यवाद. आपको आने वाली पुस्तकों हेतु शुभकामनाएँ.

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पुस्तकें:-

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.