“दर्जन भर प्रश्न” में राजस्थान के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जितेन्द्र निर्मोही

व्यक्ति परिचय:-

नाम:जितेन्द्र निर्मोही (जितेन्द्र कुमार शर्मा)

जन्म तिथि:– 07-04-1953. स्थान- झालावाड़.

शिक्षा:– झालावाड़ (राजस्थान) में ही.

प्राथमिक शिक्षा- मोती कुआ मिडिल स्कूल,

माध्यमिक शिक्षा-हायर सेकेण्डरी स्कूल, मालसदर, झालावाड़.

स्नातक स्तर- बीएससी राजकीय महाविद्यालय, झालावाड़.

सेवानिवृत्ति उपरांत- एम ए (हिन्दी, राजस्थानी भाषा).

पारिवारिक परिवेश:- बाबा पं मनीराम शर्मा मैथिलीशरण गुप्त के बड़े प्रशंसकों में से एक, पिता रमेश चंद्र शर्मा ग़ज़ल गुफ्तगू करने वाले, माता कमला देवी शर्मा झालावाड़ के साहित्य व सांस्कृतिक विरासत को समझने वाली महिला.

झालावाड़ का परिवेश- आजादी के पूर्व राजघराने में साहित्य के नवरत्न रखने की परंपरा, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी की “सरस्वती” के समानांतर झालावाड़ स्टेट से “सौरभ” पत्रिका का प्रकाशन, राज्य में हिंदी, उर्दू, बृज साहित्य की त्रिवेणी का प्रवाह होता रहता था.

पत्नी- श्यामा शर्मा (लेखिका), पुत्र- दो- श्री पुनीत कौशिक, श्री रोहित कौशिक इंजीनियरिंग स्नातक, पुत्री- श्रीमती श्वेता कौशिक, विधि स्नातक.

अभिरुचि: साहित्य, पुरातत्व, पर्यावरण आदि.

कार्य:- पूर्व प्रशासनिक सहायक, वन विभाग.

वर्तमान:– साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्ध.

प्रकाशित साहित्य:– हिन्दी साहित्य- जंगल से गुजरते हुए (प्राकृतिक काव्य), मुरली बाज उठी अणघातां (आध्यात्मिक निबंध), भोर पर चढ़ आई धूप (समकालीन काव्य), धूप के साये में चांदनी (काव्य), उजाले अपनी यादों के (संस्मरण), हाड़ौती अंचल का आधुनिक राजस्थानी काव्य (समीक्षा-आलोचना), ना जारे! जोगिया (उपन्यास), नीर की पीर (नाटक), तेरे चेहरे की  तलाश (कहानी संग्रह), कुछ तराने कुछ फसाने (निबंध), विचार एवं संवाद (आलेख), मैं भी गीत सुना दूं (नवगीत-गीत), मुंह बोलते अक्षर (समीक्षा-निबंध), सफ़र दर सफ़र (संस्मरण). राजस्थानी भाषा साहित्य–ई बगत को मिजाज (काव्य), बांदरवाळ की लड्यां (निबंध), हाड़ौती अंचल को राजस्थानी काव्य (समीक्षा-आलोचना), या बणजारी जूण (संस्मरण), नुगरी (उपन्यास), कफ़न को पजामो (कहानी संग्रह), गाधिसुत (राजस्थानी खण्ड काव्य), जंगळी जीवां की पछाण (बाल काव्य)

पुरस्कार एवं सम्मान:-

“जंगल से गुजरते हुए (प्रकृति काव्य) पर स्वतंत्रता सेनानी नवनीत दास वैष्णव सम्मान, “उजाले अपनी यादों के” संस्मरण कृति पर राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर का डा कन्हैयालाल सहल पुरस्कार, अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सेवा सम्मान नई दिल्ली, जिला प्रशासन झालावाड़ से सम्मानित, मुकन्दरा हिल्स नेचुरल सोसायटी से पर्यावरण सेवा का लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड, हिन्दी साहित्य सेवा पर उत्कर्ष साहित्यिक मंच, नई दिल्ली से लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड, सारंग, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, हाड़ौती गौरव आदि समयमान, भैया लाल व्यास सम्मान छतरगढ़ (मप्र), साहित्य मंडल नाथद्वारा से साहित्य विभूषण, हल्दीघाटी संस्थान से सोहनलाल द्विवेदी सम्मान, सर्व ब्राहृमण समाज, सनाढ्य ब्राह्मण समाज आदि से सम्मानित, नारायण सेवा संस्थान उदयपुर से सम्मानित, आशु कवि रतन लाल व्यास राजस्थान श्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान, जोधपुर, अक्षर सम्मान, कोटा एवं अन्य अनेक सम्मान.

विशेष:– राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, राजस्थानी भाषा साहित्य संस्कृति अकादमी बीकानेर, केन्द्रीय अकादमी नई दिल्ली से सम्बद्ध रहे. देश की प्रतिनिधि संस्थाओं के पुरस्कार एवं सम्मान मूल्यांकन समिति में शामिल.

सम्पर्क:– बी- 422, आर के पुरम, कोटा, राजस्थान, पिन-324010. मोबाइल नंबर- 9413007724.

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“दर्जन भर प्रश्न”

श्री जितेन्द्र निर्मोही से विभूति बी. झा के ‘दर्जन भर प्रश्न’ और श्री निर्मोही के उत्तर-

विभूति बी. झा: नमस्कार. सर्वप्रथम आपको आपकी अनेक पुस्तकों और पुरस्कारों के लिए बधाई, शुभकामनाएँ.

  1. पहला प्रश्न:- आपकी इतनी रचनाओं में आपकी सबसे प्रिय पुस्तक कौन सी है और क्यों? आपकी कहानी ‘कफन का पैजामा’ पूरी दुनियाँ में चर्चित रही. पाठकों की इतनी अच्छी प्रतिक्रियाओं पर आपकी टिप्पणी?

श्री निर्मोही के उत्तर– मेरी प्रकाशित साहित्य में मेरी सबसे प्रिय कृति ‘‘उजाले अपनी यादों के’’ संस्मरणद्ध कृति है. इसमें साहित्य की व्यष्टि से समष्टि तक की यात्रा है. साहित्य से हमारे जन सरोकार हैं, समाज से साहित्य की जुगल बंदी है. ये निःसंदेह साहित्य की जन भागीदारी वाली कृति है. नामवर कथा साहित्य की पत्रिका ‘‘हंस’’ में प्रकाशित कहानी ‘‘कफन का पाजामा’’ एक शायर की जिंदगी के उतार-चढ़ाव का अफसाना है, जो अपने ‘‘स्व’’ को जिंदा रखता है. पाठकों को यह कहानी पसंद आने का कारण इसका नयापन है. किस तरह से एक अमीर आदमी का बेशकीमती कफन हवा से उड़कर दूर झाड़ियों में लिपट जाता है. दूसरी ओर एक शायर को अनेक बरस बाद मुशायरे का आमंत्रण आता है. वो देखता है कि आल इंडिया मुशायरे में जाने के लिए पुरानी बेशकीमती अचकन तो है लेकिन पाजामा नहीं है. बुरे वक्त में वो अपने अब्बा को याद करता हुआ उनकी कब्र पर जाता है और वहाँ से नये शहर में जाते वक्त उसे अनायास एक बेशकीमती कपड़ा मिल जाता है. इस कहानी में एक शायर की जिंदगी के उतार-चढ़ाव हैं. पाठकों को इसकी रोचकता अच्छी लगी, मुझे भी अच्छा लगा.

  1. प्रश्न:- आपके पसंदीदा रचनाकार कौन-कौन हैं? आपका नाम किन साहित्यकारों के साथ लिया जाये? आपकी क्या इच्छा है?

उत्तर मनुष्य की पसंद कहाँ एक जगह टिकती है. मुझे खुशी है जिन साहित्यकारों को मैंने सेकेंडरी, हायर सेकेंडरी में पढ़ा, उनमें से अधिकांश से रूबरू भी हुआ. छायावाद के चारो सितारे मुझे पसंद हैं खासकर ‘महादेवी’ और ‘पंत’. द्विवेदी काल के ‘मैथिलीशरण गुप्त’. उसके बाद समकालीन काव्य में ‘केदारनाथ सिंह’ और सौन्दर्य के कवि ‘शमशेर बहादुर सिंह’. आज की पीढ़ी में ‘रोहित ठाकुर’ आपकी वजह से. गीतकारों में रमानाथ अवस्थी, बालकवि बैरागी, चन्द्रसेन विराट इनसे मेरी अंतरंगता भी बनी रही. हरिवंश राय बच्चन को मैंने समग्र पढ़ा है. कथाकारों में  जैनेन्द्र, गुलेरी, शैलेष मटियानी, यशपाल. जैनेन्द्र से जब मेरा संवाद हुआ, मैं गीत ही लिखता था. उन्होंने तब कहा था ‘‘एक दिन आप खूबसूरत गद्य लिखोगे और बेहतर कथाकार बनोगे.” उनका कथन आज सत्य हो रहा है. नामवर सिंह से भी मैं मिला हूँ, वो लाजवाब थे. समीक्षा क्षेत्र में मैं उन्हें गुरु मानता हूँ. नाटक में मदन शर्मा, हबीब तनवीर. राजस्थानी साहित्य, गीत जगत में पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया, मेघराज मुकुल, रघुराज सिंह हाडा, ओम पुरोहित कागद. कथा जगत में रामस्वरूप किसान, कमला कमलेश. समालोचना में डॉ. नीरज दइया.   मैं जानता हूँ कि गीत, संस्मरण, साहित्य व समीक्षा जगत में लोग मुझे जानेंगे, मानेंगे. रही बात स्थान की तो यह तो साहित्य समाज निर्धारित करता है. आज देश के प्रतिनिधि साहित्य स्वरूपों में मेरा नाम है, मेरे साहित्य पर शोध हो रहे हैं, अब क्या चाहिए?

  1. प्रश्न:- पुराने रचनाकारों की कृति और आजकल नये रचनाकारों की ‘नयी वाली हिन्दी’ में लिखी कृति को देखकर आपको हिन्दी साहित्य का क्या भविष्य लगता है? आपकी राय क्या है? आज के रचनाकारों में किनकी रचनाओं से आप प्रभावित होते हैं? कुछ नाम बताएँ?

उत्तर– पुराने रचनाकार ज्ञान पिपाषु होते थे. मैथिलीशरण गुप्त ने ‘‘साकेत’’ लिखने के लिए कितना पढ़ा. जयशंकर प्रसाद ने ‘‘कामायनी’’ लिखने के लिए कितना पढ़ा, ‘‘कामायनी’’ की भूमिका से ज्ञात होता है. रामधारी सिंह दिनकर ने ‘‘रश्मिरथी’’ के लिए ‘‘महाभारत’’ और अन्य सहायक ग्रंथ देखें होंगे. ये सब रचनाएँ ‘‘कालजयी’’ हैं. आप यदि स्वयं का साहित्य पढ़ते हैं और वहाँ ही सीमित रहते हैं तो अच्छी रचना कैसे लिखेंगे. नयी पीढ़ी के साथ यही संकट है. समाचार चैनल्स के टी.वी. केप्शन में चलते शब्द आपने देखे हैं? उनमें हिन्दी का मजाक दिखायी देता है. अहिन्दी भाषी क्षेत्र के लोग ऐसा करें तो चले लेकिन हिन्दी भाषी प्रदेशों में हिन्दी को विकृत करना अक्षम्य है. आज की रचनाएँ भी यदि प्रकृति, संवेदना, सहिष्णुता को छोड़कर नया कुछ करेगी तो वह निःसंदेह कालजयी नहीं होगी. साहित्य के मूल में मनुष्य और मनुष्यत्व है. जो अच्छा लिखेगा, लोग उसकी सराहना करेंगे. सहज, बोधगम्य, और सघन साहित्य आज भी पसंद किया जा रहा है. नाम गिनाने की मैं आवश्यकता नहीं समझता.

  1. प्रश्न:- नये रचनाकारों, ग्रामीण, छोटे स्थानों के रचनाकारों को जो अच्छा लिखते हैं परन्तु संसाधन नहीं होने के कारण प्रकाशक गंभीरता से नहीं लेते, उनको आप क्या सलाह देंगे?

उत्तर:- नये रचनाकार अधिक से अधिक लिखे, अधिक से अधिक पढ़े, अधिक से अधिक स्थापित साहित्यकारों से सम्पर्क रखे तो मार्ग वहीं से प्रशस्त होगा. मैंने बहुत से रचनाकारों को जिन्होंने विशेष ढ़ंग से लिखा या विशिष्ट लिखा, उन्हें उनसे सम्बंधित संस्थाओं से संपर्क कराया. उनको लाभ हुआ. कृतियाँ प्रकाशित हुईं. नये रचनाकार समूह बनाकर चयनित सामग्री का संकलन कर स्थानीय स्तर पर कृति प्रकाशन करें और जन सहभागिता से अर्थ प्राप्त करने की कोशिश करें. आपने भी  ‘‘अवली’’ और ‘‘इन्नर’’ को सार्वजनिक स्थल पर क्यों रखा? जन अभिरुचि लोगों में हो, यही है. साहित्य सेवा आगे का मार्ग स्वयं दिखाती है. आज के नामवर व स्थापित साहित्यकारों ने भी कभी प्रकाशकों के धक्के खाये हैं.

  1. प्रश्न:- अभी जो पुस्तक बाज़ार में आने से पहले बेस्ट सेलर होती है, बाद में पाठक उसे नकार देते हैं. बेस्ट सेलर पुस्तक और उत्तम कृति दोनों को आप क्या मानते हैं? पुस्तक बाज़ार के अनुसार लिखी जा रही?

उत्तर– बाजारू विशेषण ही हल्का शब्द है. आजकल शब्द कितने भोथरे होते जा रहे हैं. आज से लगभग चालीस वर्ष पूर्व शब्द का कितना मूल्य था. आज मूल्य विहिन संस्कृति में हम जी रहे हैं. चेतन भगत की अगर ‘फाइव पॉइंट समवन’/ ‘‘थ्री इडियट’’ की सेल सबसे ज्यादा होती है तो क्या आप उसे साहित्यिक अवदान कहेंगे, नहीं ना? नीरज स्वयं कहते थे कि मुझे साहित्य में वो मान नहीं मिला जिसका मैं हकदार था. व्यावसायिक मूल्यांकन साहित्य का मूल्यांकन नहीं है. बेस्ट सेलर कृति और उत्तम कृति में यही अंतर है जो अभिजात्य संस्कृति और मूल संस्कृति में है. जमीन से जुड़े हुए साहित्यकार की कृति से उसका परिवेश, उसका चिन्तन और सांस्कृतिक पक्ष उजागर होता है. जो पुस्तक बाजार के अनुसार लिखी जायेगी वो कभी भी साहित्यिक मूल्यांकन में खरी नहीं उतरेगी.

  1. प्रश्न:- लेखक की अतिप्रिय कृति को कभी पाठक पसंद नहीं करते. लेखक पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? ऐसी स्थिति में आपके अनुसार लेखक को क्या करना चाहिए?

उत्तर:- पसंद कर भी सकते हैं और नहीं भी. मेरी अतिप्रिय कृति ‘‘उजाले अपनी यादों के’’ हृदय को स्पर्श करती है. जिस लेखक ने साहित्य जगत में संघर्ष ही नहीं किया उसे ये क्यों पसंद आयेगी. पाठक की बात अलग है. हाँ, आपको पसंद आयेगी, भाभीजी को पसंद आयेगी. आपदोनों साहित्य के लिए संघर्ष कर रहे. लेखक को चाहिए कि ऐसी कृति के अध्यायों को पत्र-पत्रिकाओं समाचार पत्रों से प्रकाशित कराये. मंच से अपने उद्बोधन में काम में ले, उसे जीवन विमर्श में शामिल करें, साहित्यिक संवाद में काम में ले, मैं ऐसा होकर रहा हूँ.

  1. प्रश्न:- आपकी दृष्टि में लेखन में अश्लील गालियों का हू-ब-हू प्रयोग और यौन सम्बन्धों की चर्चा की क्या सीमा होनी चाहिए? साहित्यकार अभी हिंसा और यौन संबंधों वाली रचनाओं की ओर उमड़ पड़े हैं? क्या इसे आप सफलता की सीढ़ी मानते हैं?

उत्तर:– साहित्य लेखन में यह बात इशारों से कही जा सकती है, यह ज्यादा सार्थक और उपादेय होगी. इस मामले में मैं थोड़ा सा भी कुविचार का अंश सामने लाना जरूरी नहीं समझता. हिंसा और यौन सम्बन्धी रचनाएँ साहित्य नहीं है, अकविता को नकार दिया गया है. नामवर लोग यहां असफल रहे है. अज्ञेय के उपन्यास का नायक शेखर का यौवन भी एक इशारे वाला ही है, इसलिए पसंद किया गया. वो अगर यौवन उन्मुक्त कर देते तो ‘‘शेखर एक जीवनी’’ का अवमूल्यन हो जाता. मैं यौन और हिंसा को लेश मात्र भी तरजीह नहीं दूँगा.

  1. प्रश्न:- साहित्य समाज का आईना कहलाता है. साहित्य में काल्पनिक की अपेक्षा यथार्थ लेखन ज्यादा सफल होता है जबकि सिनेमा में यथार्थ से ज्यादा काल्पनिक? आज का लेखन सिनेमा से प्रभावित है? आप क्या मानते हैं?

उत्तर:– आईना अब साफ कहाँ है? पहले साहित्यकार का कथ्य और आचरण एक होता था. मैने सोहन लाल द्विवेदी व जैनेन्द्र जैसे लोग देखे हैं. साहित्य बिना काल्पनिकता के समावेश के सामने आ ही नहीं सकता. हाँ, यथार्थ साहित्य का ही महत्व है. कथा जगत हो या काव्य जगत, यथार्थ का धरातल ही उन्हें कालजयी बनाता है. साहिर, शकील, हसरत, राजेन्द्र कृष्ण, शैलेन्द्र आदि के गीतों ने काल्पनिक कथाओं में जीवंतता लायी है. उनकी फिल्में आज भी याद की जातीं हैं. जिस तरह मंच का साहित्य मंच से उतरते ही समाप्त हो जाता है, उसी तरह सिनेमा का लेखन है. देवदास आज भी याद किया जाता है, हमेशा याद किया जायेगा.

  1. प्रश्न:- आजकल हिन्दी भाषी भी हिन्दी में बात करना पसंद नहीं करते. अपने बच्चों के साथ विदेशी भाषा में बात करते हैं. क्या आप मानते हैं कि हिन्दी भाषा का अस्तित्व संकट में है?

उत्तर: जिसको अपनी भाषा नहीं उसका कोई भविष्य नहीं, हमारे प्रदेश राजस्थान की ‘राजस्थानी मारवाड़ी’ इसलिए जिन्दा है कि उसे पढ़ा लिखा समाज, व्यावसायिक समाज, ग्राम्य समाज समान रूप से बोलता है. चीन के सैन्य अधिकारियों के साथ बैठक हो या विदेशी राजनयिकों के साथ उच्चस्तरीय बातें, हर जगह अपनी भाषा को प्रमुखता दी जाती है. विदेशियों में अंग्रेजी भाषा में बोलने को लेकर कितने ही किस्से हैं जहाँ हमें विदेशियों ने लज्जित किया है. अच्छे सम्भ्रांत व्यक्तियों को भी विदेशों में आपस में हिन्दी बोलनी चाहिए क्योंकि हिन्दी की लोकप्रियता अमेरिका के विशाल मैदानों से बोलती है. प्रचार प्रसार में विदेशी क्रिकेटर हिन्दी में क्यों बालते हैं? हिन्दी बोल कर वो हमें प्रभावित करते हैं. हिन्दी को किसी सहारे की जरूरत नहीं है. हिन्दी अपने बल पर खड़ी हुई है.

  1. प्रश्न:- आप मानते हैं कि साहित्य में भी गुटबाजी, किसी को नीचा या ऊपर कराने का, जुगाड़ का खेल होता है? दिया जाने वाला पुरस्कार भी इन बातों से प्रभावित होता है? 

उत्तर: जी हाँ. साहित्य में दो गुट हमारे देश में विशेष हैं. दोनों के फिर अपने-अपने धड़े हैं. हर जगह नीचा-ऊँचा दिखना धड़ेबाजी में होता है, जिसे समाप्त करना संभव नहीं है. अधिकांश पुरस्कारों पर खास विचारधारा के लोगों का कब्जा रहता है. राज्य के पुरस्कार भी उसी तरह दिये जाते रहे हैं, यह कोई नयी बात नहीं है. चली आ रही है, चलती रहेगी. हाँ, अकादमियों में कभी-कभी विचारधारा से हटकर भी पुरस्कार दे दिया जाता है. उसका स्वागत किया जाना चाहिए. बड़े से बड़े पुरस्कार भी विचारधारा से प्रभावित हैं जो नहीं होने चाहिए.

  1. प्रश्न:- सोशल मिडिया का लेखन और लेखक पर क्या प्रभाव पड़ा है? ऑनलाइन और लाइव आना कहाँ तक हितकारी है? मोबाईल युग आने से हिन्दी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है?

उत्तर– उसमें ठहराव नहीं है. आज लिखा, कल समाप्त हो जाता है, यही सोशल मीडिया है. यहाँ काव्य और आइडिया दोनों चोरी होते हैं पर इस संवादहीन युग में मैं इसे भी अच्छा मानता हूँ. यहाँ कुछ तो हो रहा है. लोग मेरी पोस्ट का इंतजार करते हैं. किसकी समीक्षा आयेगी, सर किसके बारे में बतायेंगे. मेरे मित्र समूह में ‘जयप्रकाश मानव’ देश के प्रतिनिधि साहित्यकारों का परिचय उनकी जन्मतिथि के अनुसार कराते हैं. अच्छा लगता है. कभी यह भी बताते हैं कि किसी खास नामवर साहित्यकार का सरनेम कैसे आया? अच्छा लगता है, ज्ञानवर्द्धन होता है. इसी तरह समकालीन काव्य में प्रमुख हस्ताक्षर ‘सवाई सिंह शेखावत’ साहित्यकारों की रचना धर्मिता से बराबर परिचय कराते रहते हैं. फेसबुक के माध्यम से मैं देश के प्रतिनिधि दिवंगत साहित्यकारों के परिवार से जुड़ पाया हूँ.

  1. प्रश्न:- साहित्य जीवन यापन का साधन नहीं रह गया है. साहित्य में अपना भविष्य तलाश रहे नयी पीढ़ी के रचनाकारों, नये रचनाकारों के बारे में आपके क्या विचार हैं? आप उन्हें क्या सलाह देंगे?

उत्तर: सच कहा आपने. जब टी.वी. नहीं था तो देश की पत्र-पत्रिकाएँ साहित्यकारों का जीवन यापन का साधन हुआ करती थी. पुस्तकों से रायल्टी भी मिलती थी, कृतियाँ भारी मात्रा में क्रय की जाती थी. उस समय बहुत से लेखकों ने समाचार जगत को पकड़ रहा था. आज जो टी.वी. पर आपको बड़े-बड़े एंकर दिखते हैं ये कहाँ से आये, समाचार जगत से ही ना. यहाँ भी जुगाड़ है, अखाड़े हैं, मंच के कवि लाखों में ले रहे हैं. हालाँकि अभी बाजार ठंढ़ा है. लेखन में अब बहुत मेहनत है, प्रतिस्पर्धा ज्यादा है. नये रचनाकारों से यही कहना है कि वो जिस विधा में अच्छा लिख सकते हैं उसका सर्वप्रथम चयन करें, अधिक से अधिक पढ़ें, निरंतर लेखन करें. रास्ता उन्हें स्वयं दिखलाई देगा.

विभूति बी. झा– बहुत बहुत धन्यवाद. आभार. आने वाली पुस्तकों की शुभकामनाएँ.

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श्री जितेन्द्र निर्मोहीजी की कृतियों की एक तस्वीर:-

बचपन से साहित्य पढ़ने का शौक. अनेक भाषाओं की पुस्तकें पढ़कर अपना विचार देना. तत्पश्चात पुस्तकों की समीक्षा करना. फिर लिखना प्रारम्भ. अब तक “अवली”, “इन्नर” “बारहबाना” और “प्रभाती” का सफल सम्पादन.